बे-पटरी हो गई है महिला ट्रैकमैनों की जिंदगी

Devanshu Mani TiwariDevanshu Mani Tiwari   1 Nov 2018 6:16 AM GMT

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लखनऊ। ''अरे ओ मैला उठाने वाली, इधर देख '' सामने गुज़रती हुई ट्रेन में बैठे एक लड़के ने जब कविता (29 वर्ष) को यह बोला , तो कविता उसे चाह के भी कुछ नहीं कह पाई। उस दिन ट्रेन उसके सामने से गुज़र गई पर कविता आज तक उस लड़के की बात का जवाब नहीं दे पाई है। कविता रेल विभाग में ट्रैकमैन के पद पर तैनात है और हर रोज वो कई किलोमीटर पैदल चल कर रेल की पटरियों की हालत ठीक करती है, ताकि ट्रेनें बिना रुकावट चलती रहें।

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ का रेलवे स्टेशन यूं तो भारत के ऐतिहासिक व आधुनिक रेलवे स्टेशनों में से एक माना जाता है। लेकिन इस स्टेशन के यार्ड पर काम कर रही महिला ट्रैकमैनों की स्थिति किसी दिहाड़ी मजदूर से कम नहीं है। रेलवे स्टेशन पर यार्ड नंबर एक पर काम कर रही ट्रैकमैन कविता गुप्ता बताती हैं,'' लोग ये नहीं जानते हैं कि हमारा काम क्या है। अगर हम लाइन ठीक न रखें, तो कभी भी बड़ा एक्सिडेंट हो सकता है। दिन में 10 घंटे की नौकरी में हमें तीन किलो से ज़्यादा वजनी सामान लादकर कई किलोमीटर चलना पड़ता है और रेलवे लाइन ठीक करनी पड़ती है। लाइन में नट की ऑएलिंग, ग्रास कटिंग और पटरी के किनारे गिट्टियों को डालने का काम रहता है।''

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रेलवे की सरकारी नौकरी के बाद भी अपनी पहचान बताने से बचती हैं ट्रैक मैन महिलाएं।

ट्रैकमैन कविता की तरह ही देश की हज़ारों महिला ट्रैकमैन जोखिम और लोगों की छींटाकशी को नज़रअंदाज़ कर हर रोज कई किमी. तक फैले रेल मार्ग को ठीक करने में लगी रहती हैं। भारतीय रेल वार्षिक सांख्यिकी वक्तव्य रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2013-14 के मुताबिक रेल विभाग ( ग्रुप- डी) के अंतर्गत भारत में दो लाख से अधिक ट्रैकमैन काम करते हैं। इनमें से दस प्रतिशत हिस्सा महिला ट्रैकमैन का है। एक रेलवे ट्रैकमैन औसतन रोज़ाना 15 से 20 किलो के यंत्रों को लेकर पांच से छह किमी. की दूरी तक पटरियों की निगरानी करने व उन्हें ठीक करने का काम करता है।

रेलवे कर्मचारी ट्रैकमैन एसोसिएशन (आरकेटीए), भारतीय रेल में काम कर रहे (ग्रुप - डी) कर्मचारियों और ट्रैकमैनों की मदद कर रही है। आरकेटीए के वरिष्ठ अधिकारी विश्वनाथ सिंह बताते हैं, '' ट्रैकमैन चाहे महिला हो या पुरूष सभी को एक जैसा ही काम करना पड़ता है। हां, महिलाओं के लिए यह काम थोड़ा मुश्किल होता है। यार्ड पर लाइन इंस्पेक्शन के समय महिलाओं के लिए प्रसाधन की कोई व्यवस्था नहीं होती है। कई बार तो ऐसा होता है कि दोनो लाइनों पर ट्रेन गुज़रती है और ट्रैकमैन को बीच में ही बैठना पड़ता है।''

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मवईया यार्ड संख्या-एक पर काम रही ट्रैकमैन तोषी अग्रवाल (30 वर्ष) गर्भवती हैं और उन्हें डॉक्टर ने कम वजन उठाने और हल्के काम करने की सलाह दी है। लेकिन रेलवे में ट्रैकमैन के पद में प्रमोशन दिए जाने व फेरबदल किए जाने का कोई प्रावधान नहीं है। इसलिए उनके पास रेलवे लाइन पर रोज़ वज़नदार किट लेकर काम करने के अलावा दूसरा और कोई रास्ता नहीं है।

हाथ में तलवार नुमा लंबा सा कटर लिए हुए ट्रैक पर जमा झाड़ियां हटाती हुई तोषी ने बताया,'' सुबह घर का काम निपटाकर लाइन पर जल्दी आना पड़ता है और ट्रैक क्लियर करना पड़ता है। यार्ड में खराब पड़े पुराने ट्रेन के डिब्बों के नीचे जमा हो गई झाड़ियों को हटाने पर डर लगता है कि कहीं वहां पर सांप- बिच्छू न हो। डॉक्टर ने ज़्यादा झुक कर काम न करने के लिए कहा है पर ये हमारा काम है, करना तो पड़ेगा ही।''

रेल विभाग के अंतर्गत काम करने वाली सभी महिला कर्माचारियों के छह माह का मातृत्व अवकाश दिए जाने का प्रावधान है। लेकिन महिलाएं आमतौर पर ये अवकाश गर्भावस्था के आठवें महीने से लेती है, जिससे वो अपने बाकी बचे हुए अवकाश में बच्चे की देखभाल ठीक तरीके से कर सकें।

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महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान विशेष सावधानी व आराम की ज़रूरत होती है, इस बारे डॉ. रेखा सचान, महिला रोग विशेषज्ञ क्वीन मेरी अस्पताल, लखनऊ बताती हैं,'' गर्भावस्था शुरू हो जाने पर महिलाओं को अपने स्वास्थ्य का खास ख्याल रखना चहिए। ज़्यादा से ज़्यादा समय तक आराम करना चाहिए और वजनदार सामान नहीं उठाना चाहिए। गर्भवती महिला को कम आराम मिलने और थकावट अधिक होने से गर्भपात का खतरा बढ़ जाता है।''

केंद्र सरकार की एक रिपोर्ट बताती है कि हर साल रेलवे लाइन ठीक करते हुए लगभग 300 ट्रैकमैन की जान जाती है। ट्रैकमैन के काम में जोखिम अधिक होने के कारण पिछले दो वर्षों में हज़ारों ट्रैकमैनों ने बिना बताए नौकरी छोड़ दी है। रेलवे ट्रैकमैनों की सुविधाएं न बढ़ाए जाने के कारण पिछले वर्ष राजस्थान में सभी ज़ोनल रेलवे स्टेशनों पर काम कर रहे 214 ट्रैकमैनों ने बिना बताए नौकरी छोड़ दी। जोनल रेलवे द्वारा रेलवे बोर्ड को भेजी गई रिपोर्ट में यह बात सामने आई कि नौकरी छोड़ने वाले 214 ट्रैकमैनों में से 60 फीसदी महिला ट्रैकमैन थी।

'' सरकारी नौकरी होने के बावजूद लोग ट्रैकमैन को मैला उठाने वाले से कम नहीं मानते हैं। लोगों ने हमारे काम को इतना छोटा बना दिया है कि अब हम भी इसे अच्छी नौकरी नहीं मानते हैं। हमारे घर वाले बस इतना जानते हैं कि उनकी बेटी रेलवे की सरकारी नौकरी कर रही है और हम भी उन्हें अब यह नहीं बताना चाहते कि हम क्या कर रहे हैं। इसलिए अपना चेहरा ढक कर काम करते हैं।'' ट्रैकमैन कविता आगे बताती हैं।

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रेल मंत्रालय, भारत सरकार के मुताबिक देश में इस वक्त करीब 2.14 रेल कर्मचारियों की कमी है। पिछले तीन वर्षों में 1.4 लाख भर्तियों की संख्या घटकर वर्ष 2016 में 19,500 रह गई। इनमें से 56 फीसदी पद ट्रैकमैन व ग्रूप-डी केटेगरी के हैं। हाल ही में रेलवे बोर्ड ने महिला ट्रैकमैनों के लिए केडर में बदलाव करने का आदेश दिया था, इसके अंतर्गत हर रेल मंडल के अधिकारी महिला ट्रैकमैन को उसकी योग्यता के अनुसार अन्य विभागों में तैनात कर सकते हैं। लेकिन भारतीय रेल में ट्रैकमैन की कमी के चलते ऐसा करना रेलवे बोर्ड के लिए कठिन साबित हो रहा है।

देश में ट्रैकमैनों की कमी को रेलवे के लिए गंभीर बताते हुए अॉल इंडिया रेलवेमेन फेडरेशन (एआईआरएफ) के महासचिव शिव गोपाल मिश्र कहते हैं ,'' भारतीय रेलवे में सुरक्षा श्रेणी में काम करने वाले लगभग 1.27 लाख कर्मचारियों की कमी है। इनमें से करीब 72,000 ट्रैकमैन हैं। रेलवे के मैनुअल में ट्रैकमैन का जो काम है, वो चाहे महिला हो या पुरुष सबके लिए एक बराबर है। अगर पुरुष ट्रैकमैन रोज़ाना 20 किलो का भार लेकर पटरियों को ठीक करता है, तो महिलाएं भी उतना ही वजन उठाती हैं।''

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रेलवे लाइन पर काम के दौरान एक ट्रैकमैन को सुरक्षा के लिए सेफ्टी ग्लब्स (दस्ताने), सेफ्टी बूट और लाल झंडा दिए जाने का नियम है, लेकिन सुरक्षा के नाम पर ट्रैक मैन के पास सिर्फ उसकी आँखे ही होती हैं, जिससे वो ट्रेन को करीब आते देख हट सकता है। ऐसे में ठंड के समय कोहरे के मौसम में ट्रैक पर काम करना खतरनाक साबित होता है।

खराब उपकरणों ( कटे-फटे गब्स ) के सहारे करना पड़ता है काम।

'' ट्रैकमैन महिलाओं को काम के दौरान अपने बच्चों को रेलवे ट्रैक के किनारे ही बैठ कर दूध पिलाना पड़ता है और वहीं खाना भी खाना पड़ता है। हमने सरकार को पत्र भेजकर ट्रैकमैनों की किट हल्की करने और खासतौर पर महिला ट्रैकमैनों को कार्यस्थल पर प्रसाधन और प्राथमिक उपचार की अच्छी व्यवस्था देने के लिए कहा है और सरकार ने हमारी मांगों को जायज़ ठहराया है।'' शिव गोपाल मिश्र आगे बताते हैं।

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