चिपको आंदोलन पर विशेष : घर से निकलकर इन महिलाओं ने इतिहास रच दिया ...

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चिपको आंदोलन पर विशेष : घर से निकलकर इन महिलाओं ने इतिहास रच दिया ...चिपको आंदोलन की बरसी पर खास..

एक दिन की बात है... महाराष्ट्र के गांव से हजारों औरतें तपती सड़कों पर पैदल निकल पड़ीं, मुंबई जाने के लिए। हजारों नाराज औरतें, कोई टूटी चप्पल पहने, कोई नंगे पांव बस एक साड़ी में। अपना घर छोड़ कर, अपने बच्चे छोड‍कर तकलीफ में दहकता अपना गांव छोड़कर, अपने सूखे कुएं छोड़कर, दो चार दिन के लिए कर्ज में डूबी अपनी जिंदगियां छोड़कर। लेकिन ये कैसे हुआ?

हमने तो कवियों से सुना था, कहानी लिखने वालों से सुना था, बुजुर्गों से सुना था, पड़ोसियों से सुना था, हर औरत से सुना था...कि और धैर्य की मूर्ति होती है। न जाने क्या क्या सहती है। कभी घर चलाने की मुश्किलें, कभी घर और ऑफिस साथ में चलाने की मुश्किलें, कभी घर और खेत साथ चलाने की मुश्किलें।

ये धैर्य तो उसे बचपन से ही घुट्टी में पिला दिया जाता है न? वो नाप-तौल कर बोलती है, वो सिर झुका कर चलती है...नज़रें नीची करके, सहम-सहम कर अपनी ज़रूरतें बताती है, वो ध्यान रखती है कि हंसते समय कितना सेंटीमीटर मुंह खोलें, जिससे हंसी फूहड़ या वलगर ना लगे, वो जानती है कि उसे सवाल नहीं पूछना चाहिए, बहस नहीं करनी चाहिए… वो अन्याय, इनजस्टिस, इनइक्वेलिटी जैसे कॉन्सेप्ट्स पर भरोसा नहीं करती… वो अपनी मुश्किलें, अपनी परेशानियां, अपने सपने किसी को नहीं बताती...जो चुपचाप जो मिलता है उसे अपनी किस्मत, अपना भाग्य समझकर ले लेती है। इसलिए औरत... और खासकर गाँव की औरत मुश्किलों से जूझती औरत, गरीबी से चुपचाप लड़ती औरत...जब नाराज होती है, जब उसका धैर्य टूटता जाता है, और जब वो सड़क पर उतर आती है...तो समझ लीजिए कि ब्रेकिंग प्वाइंट आ गया है धैर्य की लक्षमण रेखा टूटने की कगार पर हैं।

चाहे सरकारें हो, चाहे हाकिम हों, चाहे आसपास का पुरुष प्रधान समाज हो, चाहे सदियों पुरानी सोच हो, इन्हें आगाह हो जाना चाहिए, कि गरीब औरत का सड़क पर उतरना एक बैरोमीटर है, एक लिटमस टेस्ट है, सूचकांक का इशारा है...कि अब तकलीफ की हद पार हो गई ।...कि दूर कहीं किसी दुनिया में, किन्हीं गाँवों में, किन्हीं छोटे शहरों में, कहीं बस्तियों में, अखबारों की बस्तियों और मीडिया की हेडलाइनों से दूर...कुछ बहुत गलत हो रहा है। इस देश में समय समय पर नाराज औरतों को सड़क पर आना पड़ा है, और ये जब हुआ, समाज ने कोई करवट जरूर ली...

मेरा नाम है नीलेश मिसरा…और मैं चल पड़ा हूं ढूंढने इन नाराज औरतों की कहानियां...

मार्च का महीना था...साल था 1974...उत्तराखंड के चमोली के रैनी गांव में सड़क बनाने के लिए पेड़ काटे जाने की योजना प्रशासन ने पास कर दी थी। गांव वाले विरोध कर रहे थे तो उन्हें मुआवज़ा देने की घोषणा हो गई। पेड़ काटने के लिए अधिकारियों ने जानबूझ कर 26 मार्च का दिन चुना, क्योंकि मुआवज़ा लेने के लिए गांव के पुरुष चमोली में थे और सामाजिक कार्यकर्ताओं को बातचीत के बहाने गोपेश्वर नाम के कस्बे में बुला लिया गया था।

सिर्फ पांचवीं पास वो महिला जिसका नाम गौरा देवी था, जिसने कानून की मोटी-मोटी पोथियां नहीं पढ़ी थीं, जिसने अपने गांव के बाहर की दुनिया नहीं देखी थी, जिसे अफसरों से बात करने के तौर-तरीके भी नहीं आते थे...वो गौरा देवी अपनी साथी औरतों के साथ पेड़ों से चिपककर खड़ी हो गईं कि- हिम्मत है, तो काट लो पेड़!

गांव में बची थी सिर्फ कुछ ‘कमज़ोर’ औरतें। अफसर और ठेकेदार पेड़ काटने पहुंचे। सिर्फ पांचवी पास वो महिला जिसका नाम गौरा देवी था, जिसने कानून की मोटी-मोटी पोथियां नहीं पढ़ी थीं, जिसने अपने गांव के बाहर की दुनिया नहीं देखी थी, जिसे अफसरों से बात करने के तौर-तरीके भी नहीं आते थे...वो गौरा देवी अपनी साथी औरतों के साथ पेड़ों से चिपककर खड़ी हो गईं कि- हिम्मत है, तो काट लो पेड़! देखिए वीडियो

नहीं काट पाए सरकारी अफसर वो पेड़। वापस लौटना पड़ा, वो कमज़ोर आवाज़ रैनी गांव से निकलकर पूरे देश में गूंजने लगी। पर्यावरण, जंगल, प्राकृतिक संसाधन जैसे शब्द, पहली बार डिक्शनरी से निकलकर संसद में सुनाई दिए। वो महिलाएं पेड़ों से जिस तरह से चिपक गई थी उसके बाद उस आंदोलन का नाम चिपको आंदोलन पड़ गया। यह आंदोलन पर्यावरण से जुड़े हर आंदोलन के लिए एक मिसाल बन गया। इसके बाद ही देश में पर्यावरण और वन मंत्रालय बना, वन अधिनियम लाया गया। कैसे किया होगा ये सब उन चंद कमज़ोर औरतों ने?

चिपको आंदोलन जब हुआ था तो मैं सिर्फ एक साल का था। तब से अब तक पिछले चार दशकों में ये देश कितना बदल गया। जीवन शायद थोड़ा और मुश्किल हो गया। अन्याय शायद थोड़ा और बढ़ गया। ताकतवर थोड़ा और ताकतवर हो गए। देखिए वीडियो

मैं जा रहा हूं उत्तर प्रदेश के कन्नौज जिले के तिर्वा कस्बे, जहां मुझे मिलेंगी अंगूरी दहाड़िया, जिनकी जिंदगी में एक दिन अचानक अन्याय का साया बहुत लंबा हो गया...

ये भी पढ़ें- द नीलेश मिसरा शो : कौन हैं ये नाराज औरतें जो टूटी चप्पल पहने या नंगे पांव चली जा रहीं एक साथ

अंगूरी दहाड़िया

मैं बहुत गरीब परिवार से थी, पहले मैं साड़ी के डिब्बों से जूते के डिब्बे बनाती थी। हमारे पति भी बहुत बीमार रहते थे, इसलिए इस बिज़नेस से मैंने दिन रात काम कर के एक प्लॉट खरीदा। उस प्लाट पर मैं एक बिल्डिंग बनवाना चाहती थी। बिल्डिंग बनवाने के बाद जो बिल्डर था उसने मुझसे कहा कि आप इसका बैनामा मत करवाइये, जितने में बैनामा करवाएंगी उतने में एक नया कमरा बन जाएगा। फिर मैंने उनमें एक झोपड़ी बनवा ली थी। जब बिल्डिंग तैयार हुई, तो उस आदमी ने मेरे साथ धोखाधड़ी कर ली थी। मैंने सबके आगे जाकर अपना दर्द कहा पर किसी ने भी मेरी नहीं सुनी।

इसके बाद मुझे कुछ समझ नहीं आया कि मैं क्या करूं। उसके बाद मैंने एक संकल्प किया कि जो मेरे साथ हुआ वो मैं किसी गरीब भाई-बहन के साथ नहीं होने दूंगी। मुझे एक बार लगा कि मैने सोच तो लिया है, लेकिन मैं इतने लोगों की मदद कैसे कर पाऊंगी। फिर मेरे दिमाग में एक बात आई कि एक संगठन खड़ा कर सकूं, जिससे मैं हर सरकारी अधिकारी से बात कर सकूं, हर नेता से बात कर सकूं और अपना दर्द सह सकूं और दूसरे के लिए भी लड़ाई लड़ सकूं। इसलिए मैने गाँव गाँव जाकर महिलाओं से मिलना शुरू किया ऐसे कर के 2010 में मैंने इस ग्रीनगैंग संगठन को खड़ा किया।

आज हमारा संगठन यूपी के कई जिलों में है, जैसे फरूख्खाबाद हैं, जालौन, कानपुर नगर, कानपुर देहात, झांसी जैसे कई जिलों में हमारा संगठन चल रहा है और आज हमारे संगठन में 14,000 से अधिक महिलाएं शामिल हो चुकी हैं,जिसकी मदद से मैं हर गरीब की लड़ाई लड़ती हूं।

आज यहां के माफिया लोगों को हमारे संगठन का डर रहता है। अभी 15 दिन की ही बात है एक पास के ही गाँव में रमेश यादव दबंग था, वो तीन महीने से महिला को उसकी ज़मीन नहीं दे रहा था। जब मेरी पास ये जानकारी आई तो मैंने उसके प्लाट पर जाकर 150 महिला बैठा दी, उनके साथ एक बूढ़ी अम्मा को भी लिटा दिया। मैने कहा कि अगर आज ये बुढ़िया मर गई तो हम तुम्हारे ऊपर कार्रवाई करवा देंगे। हम यहां से हटने वाले नहीं हैं, हमारी भीड़ देखकर उसने आखिरकार वो ज़मीन खाली कर दी औऱ हमने उस महिला को न्याय दिलवा दिया।

ऊषा विश्वकर्मा

कभी कोई कॉन्सेप्ट नहीं था लेकिन हम लोग इसके शिकार हैं पुलिस से कोई सपोर्ट नहीं मिला, प्रशासन से कोई सपोर्ट नहीं मिला, समाज से कोई सपोर्ट नहीं मिला, हमने अपनी सुरक्षा करना ख़ुद ही सीखा। हम में से दो से तीन लड़कियाँ रेप विक्टिम हैं और हम लोग सेक्सुअल वायलेन्स का शिकार हैं, हम लोग अपनी भी लड़ाई लड़ते हैं और समाज में और भी ऐसे केस होते हैं उनके भी लिए लड़ते हैं। जब मैंने ये क़दम उठाया तो मुझे लग रहा था कि मैं अकेली ही पीड़ित हूँ, इस चीज़ को लेकेर मैं बाहर निकली तो पता चला कि मेरी जैसी बहुत सारी लड़कियाँ इस घटना का शिकार हैं, और अब ज़्यादा से ज़्यादा लड़कियाँ हमारे साथ हैं।

परिवार वाले पहले तो साथ नहीं थे, अब उनको लग रहा है ये काम सही है। इससे हमारी बेटी का कुछ ना कुछ जुड़ा हुआ है, इस क्षेत्र में हमें आगे आना चाहिए अभी हमारे साथ बीस से पच्चीस लड़कियाँ ऐक्टिव ग्रुप में हैं और क़रीब साढ़े आठ हज़ार लड़कियाँ सदस्य हैं रेड ब्रिगेड की। हम लोग लड़कियों के साथ एक अलग प्रकार की ट्रेनिंग करते हैं, हम लोग सेल्फ़ डिफ़ेन्स की ट्रेनिंग देते हैं, हम हमेशा ये नहीं सोच सकते हैं की पुलिस हमारे साथ रहेगी, माता पिता साथ रहेंगे, क्यूँकि मुझे अपनी सुरक्षा ख़ुद करनी होगी तो इसीलिए हमें इतना मज़बूत बनाना रहेगा ताकि दूसरों का सहारा लेने की ज़रूरत ना पड़े।

औरत जब जब सड़क पर उतरे, और गरीब औरत जब जब सड़क पर उतरे, सरकारों को अपने गिरेबान में झांक लेना चाहिए। याद करिए नब्बे के दशक को, जब आंध्र प्रदेश में सैकड़ों औरतें सड़क पर उतर आईं थीं शराब के खिलाफ। जिन औरतों की किस्मत में शराबी पति के हाथ से मार खाना लिखा था, उन गरीब, कमज़ोर, अनपढ़ औरतों ने मुख्यमंत्री के घर के आगे जमीन पर लेट कर धरना दिया, रास्ता रोक दिया, शराब की दुकानें तोड़-फोड़ दी, अपने शराबी पतियों, बाप, भाइयों के सर मुंड़वा कर गधों पर घुमाया।

उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में संपतपाल नाम की एक महिला ने जो अब तक टीवी और अखबारों में पहचाना नाम बन चुकी हैं उन्होंने गुलाबी गैंग नाम से एक समूह की शुरूआत की। लाठी भांजती इन महिलाओं ने उत्पीड़न करने वाले लोगों को चने चबवा दिए। आज उनके आंदोलन में हजारों महिलाएं जुड़ी हैं।

ऐसे किस्से हिंदुस्तान के कोने कोने में होते रहते हैं। कुछ सुर्खिंयां बन पाते हैं, कुछ दब जाते हैं। लेकिन औरतों की नाराजगी दब नहीं पाएगी। हर नाराज औरत की नाराजगी के पीछे कोई लंबी नाइंसाफी छिपी होती है। आइए सीखें कि इन औरतों की नाराजगी क्या कह रही है। सिर्फ सरकारों ने नहीं, आपने और हमने, हम पुरुषों, हम शहर में रहने वालों ने, हम गरीबों को हिकारत की नजर से देखने वालों ने, हम सब ने भी इस नाराजगी को हवा दी है।

लेकिन अब स्थिति हाथ से निकल रही है, समझ लीजिए कि धैर्य की हदें पार हो रही हैं, कुछ प्रचंड होने को है। ये औरतें मुंह बंद करके नहीं बैठी रहेंगी। ये घूंघट ओढ़कर, कोने में दुबकी नहीं रहेंगी। जब नाराजगी हद से पार कर जाएगी तो ये अपने घर, अपने गांव को बचाने के लिए अपने देहरी लांघ जाएंगी … चाहे दुनिया इनके हिसाब से चले न चले, लेकिन ये दुनिया तक अपनी बात जरूर पहुंचाएंगी।

मैं चल पड़ा हूं एक और सफर पर, किसी और कहानी की तलाश में...जमीनी हिंदुस्तान की कहानियां। वो कहानियां जो हमारे पास अपना कुछ न कुछ छोड़ जाती हैं, हमारी जिंदगी में शामिल हो जाती हैं...और हमें बताती हैं कि अपने आस पास कि दुनिया को हम एक नई नजर, नई उम्मीद से देखें...क्योंकि हमारे हीरो हमारे आस पास रहते हैं...

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