पुष्पेंद्र वैद्य, कम्युनिटी जर्नलिस्ट
सतना। मध्य प्रदेश में सतना जिले में एक गांव है, जहां आज भी हर घर से चरखे की आवाज सुनाई देती है। यहां के लोग आज के दौर में भी चरखे मदद से सूत काटते हैं और कंबल आदि बनाते है। तीन हजार से अधिक आबादी वाले इस गांव का नाम सुलखमा है।
इस गांव को देख दशकों पहले गांधी युग की यादें ताज़ा हो जाती है। बापू की दी हुई सीख और स्वावलंबी भारत का सपना गांव में आज भी साकार दिखाई दे रहा है। चरखा गांव वालों के लिए आजीविका का जरिया है।
सुलखमा गांव सतना जिला मुख्यालय से लगभग 90 किलोमीटर दूर बसा है। स्वावलंबन की प्रथा को बनाए रखने वाले इस गांव के लगभग हर घर में एक चरखा चलाया जाता है। पाल जाति बाहुल्य इस गांव की यह परम्परा महात्मा गांधी के सिखाए पाठ की देन है।
स्थानीय निवासी रघुनाथ पाल बताते हैं, “बापू ने स्वावलंबी भारत का सपना सजोया था, वह भारत इस गांव में देखने को मिलता है। गांव के लोग चरखे से कपड़े और कंबल बनाकर बेचते हैं। चरखा परम्परा के साथ-साथ इनकी अजीवीका का मुख्य साधन भी है। गांव के लोगों ने अपने काम को बांटा हुआ है। जैसे चरखा चलाकर सूत कातने का काम घर की महिलाओं का होता है। महिलाएं रोजमर्रा के घरेलू काम निपटाकर चरखे से सूत तैयार करती हैं। इसके बाद का काम घर में पुरूषो का होता है जो इस सूत से कम्बल और बाकि चीजे बुनने का काम करते हैं।”
इसी गांव की महिला संखी बाई पाल बताती हैं, “चरखा चलाने से बहुत बचत तो नहीं होती है लेकिन घर का खर्च किसी तरह से चल जाता है। यहां सूत काटने की परंपरा बहुत दिनों से है। इस काम करने का एक फायदा यह होता है कि घर की महिलाओं को बाहर काम करने नहीं जाना पड़ता है।”
देवेन्द्र गुप्ता कहते हैं, “गांव के बुजुर्गो ने महात्मा गांंधी के स्वदेशी अभियान से प्रभावित होकर चरखा चलाना सीखा था। गांधी जी कहा करते थे कि स्वदेशी अपनाओं और विदेशी भगाओ। इसी कहे अनुसार गांव के लोग चरखा चलाकर अपना पालन पोषण कर रहे हैं।”
वहीं प्रेम लाल पाल बताते हैं, “आजादी के इतने सालों बाद भी गांव वालों ने अपनी विरासत को मरने नहीं दिया। हालांकि अब यह विरासत कमजोर जरुर होने लगी है। इसका कारण यह है कि कई दिनों तक चरखा चलाने और बुनने के बाद भी लोगों को पूरी मजदूरी नहीं मिल पाती है। गांव के लोगों को एक अदद सरकारी मदद की दरकार है ताकि इन्हें काम की सही मजदूरी मिल सके।”