कश्मीर में लकड़ी के खूबसूरत खतमबंद कला से सजी पारंपरिक छतें

खतमबंद यानी लकड़ी की छत कश्मीर की पारंपरिक वास्तुकला की विरासतों में से एक है। सुंदर दस्तकारी और तरह-तरह के चित्रों से सजी छतें, इस क्षेत्र की तमाम इमारतों की एक सामान्य विशेषता रही है, चाहे वह महल हों, मंदिर हो, मस्जिद हो या फिर रईसों के घर। यहां तक कि हाउसबोट भी इस कला से दूर नहीं रह पाई हैं। मंदी के दौर को पार करने के बाद, कश्मीरी शिल्पकारों को उम्मीद की एक किरण देते हुए खतमबंद शिल्प फिर से कश्मीर में वापसी की ओर है

Fahim MattooFahim Mattoo   6 Jan 2023 12:10 PM GMT

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श्रीनगर, जम्मू और कश्मीर। खानयार, सफाकदल, श्रीनगर में 200 साल पुराने सूफी दरगाह दस्तगीर साहब में खूबसूरती से गढ़ी गई खतमबंद या लकड़ी की छत कभी बेहद खूबसूरत नजर आया करती थी। इतने सालों बाद, आज भी भक्त उतनी ही शिद्दत के साथ इस छत के नीचे बैठकर प्रार्थना करते हैं, जिस तरह से सालों पहले किया करते थे।

दरगाह के वार्डन सलीम ने गाँव कनेक्शन को बताया, "यह अभी भी सुंदर है, लेकिन यह अपने फूलों वाले डिजाइनों वाली मूल छत की तुलना में फीकी है। छत ने दरगाह के रहस्यवादी और ध्यानपूर्ण माहौल को काफी खूबसूरत बना दिया है।"

दरअसल जून 2011 में मूल और खास खतमबंद छत में भयंकर आग लगने की वजह से यहां खासा नुकसान हुआ था। पूरी छत जलकर राख हो गई थी।


सलीम ने कहा, "नई दरगाह को मूल संरचना की तर्ज पर फिर से बनाया गया था, लेकिन आधुनिक इमारत में इस्तेमाल किए गए कंक्रीट में वैसा जादू नहीं है।"

खतमबंद छत घाटी की पारंपरिक वास्तुकला की विरासतों में से एक है। सुंदर दस्तकारी और तरह-तरह के चित्रों से सजी छतें, इस क्षेत्र की तमाम इमारतों की एक सामान्य विशेषता रही है, चाहे वह महल हों, मंदिर हो, मस्जिद हो या फिर रईसों के घर। यहां तक कि हाउसबोट भी इस कला से दूर नहीं रह पाई थीं।

कश्मीर का खतमबंद शिल्प

खतमबंद सजावटी छतें हैं जो लकड़ी के टुकड़ों को ज्यामितीय पैटर्न में एक-दूसरे से जोड़कर बनाई जाती हैं।

फारसी शब्द खतम बंद का अर्थ है 'पूरा चक्कर लगाना'। ऐसा माना जाता है कि छत के इस खास डिजाइन को मुगल काल में 1541 में मिर्जा हैदर तुगलक कश्मीर में लेकर आए थे.

लेकिन एक मान्यता यह भी है कि विद्वान संत शाह हमदानी ने इस्लाम का प्रचार करने के लिए घाटी का दौरा किया था और उनके दल में कई खतमबंद कलाकार भी आए थे। उन्होंने ही इस कला को यहां तक पहुंचाया था। कहा जाता है कि वे 14वीं शताब्दी में फारस (वर्तमान ईरान) से आए थे और कला को समर्पित करते हुए एक दरगाह खानकाही-मौला को यहां बनाया गया था. खातंबंद कला की सबसे मुश्किल भरी नक्काशी से सजी यह दरगाह अभी भी श्रीनगर में मजबूती से खड़ी है.

श्रीनगर के पुराने हिस्से सफाकदल में आपको अली मोहम्मद गिरू की बुरादा से भरी वर्कशाप पूरे जोरों से काम करती नजर आ जाएगी।

गिरू ने गाँव कनेक्शन को बताया, “मैं अपने पिता, दादा और उनके पूर्वजों की तरह ही इस शिल्प को जिंदा बनाए रखने के लिए काम कर रहा हूं। वे सभी शिल्पकार थे जिन्होंने खूबसूरत खातंबंद छतें बनाईं थीं। मैं कुछ और करने के बारे में सोच भी नहीं सकता।" वह अपने हाथों से लकड़ी के टुकड़ों पर चिनार के पत्तों की आकृति उकेरने में लगे हुए थे।


गिरू के कारीगर उसके चारों ओर झुक कर बैठे हुए हैं। वो लकड़ी के टुकड़ों को एक साथ जोड़ने का काम करते हैं जो अंत में खातंबंद आकार ले लेती हैं।

गिरू ने गाँव कनेक्शन को बताया कि खतमबंद छत काफी लंबे समय तक चलती हैं। यह घाटी की जलवायु परिस्थितियों के लिए एकदम सही है।

उन्होंने बताया, "अगर आप पुराने शहर की विरासत संरचनाओं को देखते हैं, तो आप महसूस करेंगे कि खतमबंद हमारे पूर्वजों के लिए जीवन का एक तरीका था।" गिरू को उनके सहयोगी और ग्राहक प्यार से वुस्ता या मास्टर कहकर पुकारते हैं। वह आगे कहते हैं, "उन खंडहर संरचनाओं में से कई तो अब कश्मीर की समृद्ध विरासत के अतीत निशान बन कर रह गए हैं।"

गिरू ने अलंकृत छतों पर इस्तेमाल किए गए कई तरह के डिजाइनों के नामों को याद करते हुए कहा कि खातंबंद का निर्बाध ज्यामितीय पैटर्न ऐसा अहसास कराता है, मानों कोई तारों भरे आकाश को निहार रहा हो। बीट डार, मौजे लहर, हस पोहल, दावाजधा गिरिद, चंगेज कानी, चार बख्श, हस्तुबल, पोहल मुरबा और मुरबा बादाम उनके कुछ डिजायनों में से हैं।

उन्होंने समझाया, "छत आमतौर पर देवदार के पेड़ की लकड़ी से बनी होती है। क्योंकि यह हल्की और मजबूत होती है।"


गिरू ने कहा कि पुराने समय में हाथ से एक दिन में लगभग 100-150 टुकड़े तैयार कर लिए जाते थे. लेकिन अब मशीनें इस काम में लग गईं हैं, तो रोजाना 2,500 टुकड़े बनाए जा सकते है. बस इसके लिए बिजली का लगातार आना जरूरी है। उन्होंने कहा, "डिजाइन के आधार पर एक खातंबंद सीलिंग की कीमत 250 रुपये से 1,000 रुपये प्रति वर्ग फुट के बीच हो सकती है।"

60 की उम्र के बढ़ई मास्टर मिस्गर ने गाँव कनेक्शन को बताया, “खातंबंद के सेहत के लिए भी बड़े फायदे हैं. लकड़ी की छत सर्दियों के दौरान गर्माहट बरकरार रखती है और गर्मियों में ठंडक देती है।"

मिसगर और अली मोहम्मद जैसे शिल्पकारों की बदौलत खातंबंद शिल्प आज भी कायम है।

पारंपरिक छत की वापसी

जैसा कि अन्य कलाओं और शिल्पों के साथ हुआ है, खतमबंद भी मंदी का सामना करना पड़ा था। 70 साल के एक अन्य शिल्पकार अली मोहम्मद ने गांव कनेक्शन को बताया, “ आज आप जिन व्यस्त गुलजार कार्यशालाओं को देख रहे हैं, कभी वो सुनसान पड़ी थीं। नए आवास पैटर्न और डिजाइनों के आ जाने से बाजार में एक नई मांग पैदा हुई, जहां पारंपरिक छत के लिए कोई जगह नहीं थी।"

अली ने कहा, “सौभाग्य से काफी सारे लोग अपनी जड़ों की ओर लौट रहे हैं और चाहते हैं कि उनके नए घरों में पारंपरिक अतीत भी मौजूद हो. खातंबंद छत फिर से चलन में लौट आई हैं।”

इस काम में माहिर बढ़ई की संख्या लगभग 600 हैं. ये सभी श्रीनगर के पुराने शहर में कला को जिंदा बनाए रखने का काम कर रहे हैं। मोहम्मद अली ने कहा, "हम 100 अलग-अलग डिजाइन बना सकते हैं। अधिकांश शिल्पकार सफाकदल, ईदगाह और लाल बाजार क्षेत्रों से आते हैं।”

खतमबंद छतें फिर से लोकप्रिय हो रही हैं, तो कारीगरों ने भी आगे की तरफ देखना शुरु कर दिया है। गिरू ने गाँव कनेक्शन को बताया “ अल्लाह की मेहरबानी से मैंने देश के हर राज्य में काम किया है। हमने हाल ही में बेंगलुरु और गोवा में परियोजनाएं पूरी की हैं। मैंने दुबई और नेपाल में भी काम किया है।" गिरू के पास उनके लिए काम करने वाली 10 कलाकारों की टीम है। उन्होंने कहा, "वे सभी शिक्षित लोग हैं और इस पेशे से काफी खुश हैं।"

गाँव कनेक्शन ने हस्तशिल्प निदेशक महमूद अहमद शाह से खतमबंद शिल्प की स्थिति के बारे में जानकारी लेने के लिए संपर्क किया, लेकिन उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं मिल पाया है।

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