दुनिया भर में प्रसिद्ध है उत्तराखंड का प्राचीन लोक नृत्य - पांडव नृत्य

उत्तराखंड अपने प्राचीन मंदिरों के साथ ही यहां पर मनाए जाने वाले लोक त्योहारों के लिए प्रसिद्ध है, हर एक त्योहार की अपनी अलग-अलग मान्यताएं होती हैं, ऐसा ही एक त्योहार है जिसमें गाँव के लोग पांडव नृत्य करते हैं।

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हिमालय की गोद में बसा उत्तराखंड जिसे लोग देवभूमि के नाम से भी जाना जाता है, अपनी अलौकिक खूबसरती, प्राचीन मंदिर और अपनी संस्कृति के लिए विश्वविख्यात है। यहां की लोक कलाएं और लोक संगीत बरसों से भारत की प्राचीन कथाओ का बखान करती आ रही हैं।

ऐसी ही एक प्राचीन परंपरा है पांडव नृत्य जो की देवभूमि उत्तराखंड का पारम्परिक लोक नृत्य है। उत्तराखंड में पांडव नृत्य पूरे एक माह का आयोजन होता है। गढ़वाल क्षेत्र में नवंम्बर और दिसंबर के समय खेती का काम पूरा हो चुका होता है और गांव वाले इस खाली समय में पाण्डव नृत्य के आयोजन के लिए बढ़ चढ़कर भागीदारी निभाते हैं।


उत्तराखंड के जोशीमठ के रहने वाले राजेंद्र प्रसाद डिमरी पांडव यात्रा के बारे में बताते हैं, "दिवाली के दिन सारे गाओं वाले भेलू खेलते थे और एकदशी के दिन से पांडव नृत्य शुरू हो जाता था, लेकिन अब लोगों के हिसाब से ये खेला जाता है, जिससे ज्यादा से ज्यादा लोग इसमें शामिल हो सकें।"

वो आगे कहते हैं, "इसमें मुख्य किरदार पाँच पांडव होते हैं, बाकी उनके सैनिक होते हैं और हाथी का रूप ऐरावत हाथी होता है।"

पाण्डव नृत्य कराने के पीछे गाँव वालों द्वारा विभिन्न तर्क दिए जाते हैं, जिनमें मुख्य रूप से गाँव में खुशहाली, अच्छी फसल और माना जाता है कि गाय में होने वाला खुरपका रोग पाण्डव नृत्य कराने के बाद ठीक हो जाता है।

मान्यता है कि पाण्डव गण अपने अवतरण काल में यहाँ वनवास, अज्ञातवास, शिव जी की खोज में और अन्त में स्वर्ग की यात्रा के समय आये थे। महाभारत के युद्ध के बाद पांडवों ने अपने विध्वंसकारी अस्त्र और शस्त्रों को उत्तराखंड के लोगों को ही सौंप दिया था और उसके बाद वे स्वर्ग की खोज के लिए निकल पड़े थे, इसलिए अभी भी यहाँ के अनेक गांवों में उनके अस्त्र- शस्त्रों की पूजा होती है और पाण्डव लीला का आयोजन होता है।

इस भव्य और वृहद आयोजन के दौरान गढ़वाल में भौगोलिक दृष्टि से दूर दूर रहने वाली पहाड़ की बहू- बेटियां अपने मायके आती हैं, जिससे उनको वहां के लोगों को अपना सुख दुःख बताने का अवसर मिल जाता है, अर्थात् पाण्डव नृत्य पहाड़वासियों से एक गहरा संबध भी रखता है। पाण्डव नृत्य के आयोजन में सबसे ग्रामीणों द्वारा पंचायत बुलाकर आयोजन की रूपरेखा तैयार की जाती है। सभी गाँव वाले तय की गई तिथि के दिन पाण्डव चौक में एकत्र होते हैं।


पाण्डव चौक उस स्थान को कहा जाता है, जहां पर पाण्डव नृत्य का आयोजन होता है। ढोल और दमाऊं जो कि उत्तराखण्ड के पारंपरिक वाद्य यंत्र हैं, जिनमें अलौकिक शक्तियां निहित होती हैं। इन दो वाद्य यंत्रों द्वारा पाण्डव नृत्य में जो पाण्डव बनते हैं, उनको विशेष थाप द्वारा अवतरित किया जाता है और उनको पाण्डव पश्व कहा जाता है। वे गांव वालों द्वारा तय नहीं किए जाते हैं, प्रत्युत विशेष थाप पर विशेष पाण्डव अवतरित होता है, अर्थात् युधिष्ठिर पश्वा के अवतरित होने की एक विशेष थाप है, उसी प्रकार भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव आदि पात्रों की अपनी अपनी विशेष थाप होती है।

पाण्डव पश्वा प्रायः उन्हीं लोगों पर आते हैं, जिनके परिवार में यह पहले भी अवतरित होते आये हों। वादक लोग ढोल- दमाऊं की विभिन्न तालों पर महाभारत के आवश्यक प्रसंगों का गायन भी करते हैं। प्रकार यह उत्तराखंड की सदियों से चली आ रही उत्तराखण्ड की अनुपम सांस्कृतिक धरोहर है।

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