दो फीट कालीन बुनने के लिए 14 रुपये को बेहद कम मानते हैं मिर्ज़ापुर के कारीग़र

यूपी के मिर्जापुर और भदोही का कालीन शुरू से बाहरी देशों में भी खरीददारों की पहली पसँद रहा है। हथकरघे पर तैयार यहाँ के कालीन की बढ़ती माँग के बावज़ूद कारीगर खुश नहीं हैं। मुनाफ़ा कम होने से कुछ कालीन कारोबारी अब खुद दिहाड़ी बुनकर हो गए हैं।

Brijendra DubeyBrijendra Dubey   3 Jun 2023 12:01 PM GMT

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जसोवर पहाड़ी (मिर्जापुर), उत्तर प्रदेश। मिर्जापुर के जसोवर पहाड़ी गाँव में बेशक घर टूटे फूटे या कच्चे हो, फर्श मख़मली ज़रूर है। लाल, नीले चटख रंग के रेशमी फर्श पर नंगे पाँव चलते यहाँ के लोग हर सुबह हाथों से खूबसूरत मख़मली फर्श तैयार करते हैं, लेकिन उनके खुद के नसीब में चरमराती खाट से ज़्यादा कुछ नहीं है।

ये हक़ीक़त है भगवान बुद्ध की उपदेश स्थली और सिल्क साड़ी के लिए मशहूर वाराणसी से करीब 60 किलोमीटर दूर बसे जसोवर पहाड़ी गाँव की।

यहाँ की हर एक गली से आती हथकरघों की आवाज़ मिर्जापुर के इस गाँव की आमदनी का ज़रिया है। ज़िले में जुलाहा समुदाय के करीब 3000 बुनकर कालीन तैयार कर अपना परिवार चलाते हैं। हालाँकि समय के साथ साथ यहाँ के कालीन में काफी बदलाव आया है। कुछ इसे जहाँ सही मानते हैं वहीं कुछ कारीगर मज़बूरी बताते हैं।


"लॉकडाउन से पहले हम सूती धागे से भी कालीन बुनते थे, अब हम ऊन का इस्तेमाल करते हैं।" 45 साल के बुनकर इरफान गाँव कनेक्शन को बताते हैं।

“पहले यहाँ धागे वाली दरी की भी बुनाई होती थी, हम लोग खुद का सामान ख़रीदकर उसकी बुनाई करते थे, फेरी वाले आते थे हम लोग का माल ख़रीद कर ले जाते थे। पैसा घर पर मिल जाता था। लेकिन अब फेरी वालों का आना बंद हो गया।” इरफ़ान ने कहा, उनकी आवाज में उदासी थी।

जसोवर पहाड़ी गाँव के 500 बुनकरों में से कई दिहाड़ी मजदूर ऐसे हैं जो कभी खुद कालीन या दरी के बड़े निर्माता थे। इरफ़ान ने कहा, "यह करीब 15 साल पहले की बात है। उस समय हम मालिक हुआ करते थे, लेकिन अब मज़दूर हो गए हैं।"


मिर्जापुर और भदोही के पड़ोसी ज़िले राज्य में कालीन बनाने का केंद्र हैं, जहाँ हज़ारों बुनकर किसी न किसी रूप में इससे जुड़े हैं। लेकिन इस गाँव के बुनकरों की हालत पतली है। इसकी एक वजह इनका असंगठित होना भी है।

कई बुनकर ऐसे हैं जो कई पीढ़ियों से कालीन बनाने का काम कर रहे हैं। माना जाता है कि वे मुगलों के समय से ये काम करते आ रहे हैं। लेकिन पिछले कई कुछ सालों से इनके पास काफी कम काम है ।

बड़े निर्यात घराने और कालीन व्यापारी बुनकरों को कालीन का कच्चा माल देते हैं और उन्हें हर दिन के हिसाब से दिहाड़ी देते हैं। पैसा इस बात पर निर्भर करता है कि उन्होंने कितना कालीन बुना है।

आधी हो गई कमाई

इरफ़ान की पत्नी रजिया बेगम कहतीं हैं, घर का काम ख़त्म करने के बाद वे भी बुनाई करने बैठती हैं ।

“सिर्फ अपनी कमाई से घर चलाना काफी नहीं है। यह अभी भी कठिन है क्योंकि मैं एक दिन में सौ रुपये से ज़्यादा का कालीन नहीं बुन सकती हूँ। मुझे दो फीट कालीन बुनने के लिए 14 रुपये मिलते हैं, ”30 साल की रजिया बेगम ने कहा।

इरफ़ान और रजिया को अपने पाँच बच्चों को मामूली कमाई से पालना पड़ता है। “पहले पति और पत्नी एक दिन में आसानी से 400 रुपये से 500 रुपये तक कमा सकते थे। अब हम खुशकिस्मत हैं अगर एक दिन में 200 रुपये भी कमाते हैं।"


जसोवर पहाड़ी गाँव की 33 साल की बेबी की भी ऐसी ही शिकायत है। “लॉकडाउन के पहले कालीन का काम बढ़िया चलता था लेकिन लॉकडाउन के बाद से काम मंदा हो गया है। पहले हम महिलाएँ 250 रुपए तक कमा लेती थी, लेकिन अब 100 रुपए कमाना भी मुश्किल सा हो गया है,” गांव कनेक्शन को बताया।

बेबी कहतीं हैं, "इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि कालीन बनाने के लिए कई ऑर्डर मिलेंगे, मैं अक्सर किसी और के साथ कारीगर के रूप में काम करती हूँ। "

शबाना मई की दुपहरी में तपती टीन शेड के नीचे बैठी कालीन बुन रहीं थीं। "हम और हमारे पति दोनों कालीन बुनकर हैं, हम 150 रुपए का काम कर लेते है, हमारे पति 300 का काम करते है। कालीन की बुनाई मेहनत का काम है, बच्चो के लिए करते है जब हम काम नहीं करेंगे तो हमारे बच्चे खाएंगे क्या?, "34 साल की शबाना ने गाँव कनेक्शन को बताया।

शबाना ने आगे कहा, "बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं। हम गरीब हैं इसलिए बच्चों को बड़े स्कूल में नहीं पढ़ा सकते। हमे भी शौक है बच्चों को बड़े स्कूल में पढ़ाने का लेकिन गरीबी की वज़ह से नहीं पढ़ा पाते। मजदूरी का रेट भी नहीं बढ़ रहा है।"

हथकरघा बुनाई मुश्किल भरा काम

कच्चे मिट्टी के घर में बैठकर, बिना रुके बुनाई करते हुए, महजबीन ने समझाया कि करघा लगाना और पूरे दिन बुनाई करना थका देने वाला काम है। “सुबह से शाम हो जाती है, बहुत मुश्किल से 100 रुपए का काम होता है, कभी तो ऐसा हो जाता है कि उतना भी मिलना मुश्किल हो जाता है। पैसे नहीं होने की वज़ह से मैं स्कूल की पढ़ाई पूरी नहीं कर सकी।” 20 साल की महजबीन ने कहा।

पाँचवी कक्षा तक पढ़ी महजबीन को आगे की पढ़ाई पूरी न कर पाने की टीस आज भी है। "मैं हर दिन इसके बारे में बुरा महसूस करती हूँ, लेकिन मेरे पास कोई रास्ता नहीं था।"

मिर्जापुर में उद्योग विभाग के उपायुक्त अशोक कुमार गाँव कनेक्शन को बताते हैं, "कारपेट उद्योग में लगभग 76 हज़ार लोग सीधे या दूसरे रूप से शामिल हैं, और जिले में लगभग 3 हज़ार बुनाई इकाइयाँ हैं।" उन्होंने कहा कि यहाँ के कालीन जर्मनी, अमेरिका, जापान, यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस सहित कई देशों को निर्यात किए जाते हैं।


अशोक कुमार ने कहा, "उद्योग विभाग, वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट (ओडीओपी) पहल के तहत शिल्पकारों को काम सिखाने के साथ कर्ज़ की सुविधा भी दे रहा है, तमाम योजनाओं के ज़रिए वे इतना कुछ सीख लेते हैं कि अपना परिवार चला सकते हैं। " उन्होंने कहा, कोई भी व्यक्ति इसके लिए उद्योग विभाग के दफ़्तर से संपर्क कर सकता है। इसकी ऑफिसियल वेबसाइट है http://odopup.in/hi

ओडीओपी योजना से यूपी सरकार को प्रदेश के 75 जनपदों के (5 सालो में) 25 लाख लोगों को रोज़गार मिलने की उम्मीद है। इन छोटे लघु और मध्य उद्योग से 89 हज़ार करोड़ से अधिक का निर्यात उत्तर प्रदेश से किया जा चुका है।

भारत में बने कालीन का करीब 90 फ़ीसदी निर्यात किया जाता है। यही वज़ह है कि भारत दुनिया के सबसे बड़े कालीन उत्पादक और निर्यातक देशों में से एक है। यहाँ के हाथ से बने कालीनों की बाहर के देशों में काफ़ी माँग है, जिसे करीब 73 देशों में निर्यात किया जाता है। अमेरिका इसमें सबसे बड़ा है।

कालीन के कारोबारियों को बाहरी देशों में सामान भेजने में कार्पेट एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल काफी मदद करता है। हाथ से बुने हुए कालीन और अन्य फ्लोर कवरिंग निर्यातकों के लिए भारत की ये बड़ी संस्था है। ये निर्यातकों को नए बाज़ारों का पता लगाने, आर्थिक सहायता देने और अंतरराष्ट्रीय आयोजनों में आर्थिक हिस्सेदारी के साथ व्यापार विवादों को निपटाने में सहायता करता है।

कैसे और कहाँ-कहाँ बनता है कालीन

कालीन बनाने से पहले ग्राफ पेपर पर स्केच किया जाता है, और फिर बनानेवाला उस ग्राफ पेपर के मुताबिक कालीन की डिज़ाइन तैयार करता है। उसके बाद, धागों को रंगीन किया जाता है, और कालीन को टफ्टिंग गन से गुदगुदाया जाता है। अगर कालीन को हाथ से बुना जाता है, तो इसे खास हथकरघा के ज़रिए बनाया जाता है जो इसे गाँठने के काम में मदद करता है।


हाथ से बुने हुए सामान्य आकर के कालीन को बनाने में 14 से 16 सप्ताह का समय लगता है।

उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर, भदोही, वाराणसी और आगरा के अलावा कुछ दूसरे राज्यों में भी कालीन तैयार किया जाता है। जिनमें जयपुर, श्रीनगर और दानापुर शामिल हैं। समय के साथ बढ़ती माँग से कालीन की डिज़ाइन और आकर में भी बदलाव आया है। अब बाज़ार में कई किस्म के कालीन हैं जो अलग -अलग ज़रूरतों के लिए तैयार किए जा रहे हैं। इनमें हाथ से बुने हुए ऊनी आसन, टफ्ट्स और नॉट्स वाले ऊनी कालीन,स्टेपल या सिंथेटिक फाइबर से बने कालीन,पूरी तरह रेशम से बने कालीन और चेन स्टिचिंग वाले गलीचे मुख्य हैं।

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