एक समय था जब भारत में गधों का इस्तेमाल बोझा ढोने के लिए किया जाता था, लेकिन बढ़ते मशीनीकरण, आधुनिक वाहन और ईट-भट्ठों में काम न मिलने की वजह से लोगों ने इन्हें पालना कम कर दिया है। जबकि उसी गधी का दूध बाजार में 1500 से 3000 रुपए प्रति लीटर तक बिक रहा है। गाँव कैफे शो में गधों के बारे में बात की गई कि गधे कितने उपयोगी हो सकते हैं।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के पूर्व निदेशक डॉ. मु्क्ति सदन बसु गधों की उपयोगिता के बारे में बताते हैं, “मूंगफली गुजरात की प्रमुख फसलों में से एक है और सबसे ज्यादा जरूरी बात, इसकी खेती गुजरात के कच्छ-भुज एरिया में ज्यादा होती है। वहां पर गधे समाज का एक अहम हिस्सा हुआ करते थे, राजस्थान और गुजरात के मालधारी समुदाय के लोग गधे पालते आए हैं, उसी दौरान मैंने गधों के बारे में जानकारी इकट्ठा की, कि वो कितने उपयोगी हो सकते हैं। पिछले कुछ दिनों में मैंने देखा कि इनकी संख्या तेजी से कम हो रही है। पिछले सात साल में तो इनकी 61 प्रतिशत तक घट गई।”
वो आगे कहते हैं, “क्लास में जब बच्चा किसी सवाल का जवाब नहीं दे पाता तो टीचर उसे गधा कहता है, जबकि गधे भी बुद्धिमान होते हैं। पिछले कुछ साल में जब गाँव-गाँव गाड़ियां पहुंच गईं तो लोगों को लगने लगा कि गधे अब किसी काम नहीं बचे हैं। फिर तो गधों के साथ बहुत बुरा बर्ताव हुआ, सही तरीके से चारा-पानी नहीं दिया गया और उन्हें ऐसे ही मरने को छोड़ दिया गया। जबकि ऐसा नहीं है, मैंने फ्रांस और जर्मनी जैसे देशों के बारे में जाना कि दस साल पहले ही वहां पर लोग गधी के दूध का महत्व समझने लगे थे, कई सारी बड़ी कॉस्मेटिक कंपनिया साबुन में गधी के दूध का प्रयोग करती हैं। फ्रांस में तो गधी के दूध इस्तेमाल होता है। हमारे यहां इतने काम के जानवर का समझा ही नहीं गया।”
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अगर गधों की घटती संख्या पर ध्यान न दिया गया तो ये विलुप्त हो जाएंगे, इसे बारे में डॉ. बसु बताते हैं, “भारत में गधों के साथ बुरा बर्ताव किया गया और उन्हें विलुप्त होने से बचाने की कोई पहल ही नहीं की गई। हरियाणा के हिसार में स्थित राष्ट्रीय अश्व अनुसंधान संस्थान इस क्षेत्र में काम कर रहा है। मैंने संस्थान को एक प्रोजेक्ट भी लिखा है कि उन्हें दो बातों का ध्यान देना होगा, एक तो गधों की संख्या बढ़ाने पर ध्यान देना और जिस तरह से सरकार सेव द टाइगर प्रोजेक्ट चला रही है, उसी तरह से सेव द डंकी प्रोग्राम चलाना चाहिए। इसके लिए संस्थान को कृत्रिम गर्भाधान के जरिए बेहतर नस्ल के गधे विकसित करने चाहिए। जिससे आने वाले पांच-छह साल में दूध उत्पादन बढ़ सके और हम इसे दूध उत्पादक पशु के रूप में देख सकें।
दिल्ली की रहने वाली पूजा कौल और उनके साथियों ने मिलकर ‘ऑर्गेनिको’ नाम का एक स्टार्टअप शुरू किया जो गधी के दूध से स्किन केयर उत्पाद बनाकर बेचता है। पूजा बताती हैं, “टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस से एमए करने के बाद हमने सोचा कि कुछ अलग करते हैं, तब हमने गधी के दूध से प्रोडक्ट बनाने के बारे में सोचा। भारत में तो अभी गधी के दूध से प्रोडक्ट बनाना अभी नया है, जबकि यूरोपियन देश में तो लोग गधों के लेकर बहुत जागरूक हैं, कॉलेज के दौरान हमने एक आर्टिेकल पढ़ा था कि स्वीट्जरलैंड में किसी ने डंकी फॉर्म खोला था, जो बच्चों के लिए दूध बेचते थे।”
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डंकी मिल्क के फायदों के बारे में अगर बताऊं तो डंकी मिल्क अपने एंडी एजिंग गुणों के लिए जाना जाता है, जैसे कि स्किन पर झाइयां हो जाती हैं, उनके लिए काफी फायदेमंद होता है। इसी तरह कई छोटे बच्चे जिन्हें गाय-भैंस के दूध से एलर्जी होती है, उनके लिए डंकी मिल्क, माँ के दूध के रूप में दिया जाता है। साथ-साथ ही डंकी मिल्क अस्थमा के मरीजों के लिए काफी फायदेमंद माना जाता है, जैसे की काली खांसी में इलाज के रूप में माना जाता है।
हमने भी यही सोचा कि हमारे काम के लिए डंकी फार्म खोलने की जरूरत नहीं है, वैसे ही इतने लोग गधे पालते हैं, उन्हीं के साथ काम शुरू कर सकते हैं। साल 2016-17 में महाराष्ट्र के सोलापुर में हमने एक प्रोजेक्ट शुरू किया था, शुरूआत 14 गधा पालकों के साथ की, शुरू में हमने सोचा की गधी का दूध ही मार्केट में ले जाएंगे, लेकिन तब हुआ कि लोग इतने जागरूक नहीं हैं, कौन इसे खरीदेगा। तब हमने सोचा कि इससे साबुन बनाएं। हमने 200 साबुन से शुरुआत की और फेसबुक से बेचना शुरू किया। इसके बाद कॉलेज खत्म होने के बाद हमने ‘ऑर्गेनिको’ की शुरूआत की। दिल्ली एनसीआर के गधा पालकों के साथ काम शुरू किया।
अभी हमारे पास खुद का फार्म नहीं है, हम गधा पालकों को भी कमाई का जरिया दे रहे हैं, इसमें 1500 से 2000 प्रति लीटर दूध का दाम देते हैं। ऐसे में जो ईंट के भट्ठे पर काम करने वाले लोगों को हर दिन 300 से 400 सौ रुपए दिहाड़ी मिलती थी, वो अब बदलकर दूध बेचकर 15 सौ हर दिन का मिलने लगा है। अभी हम 100 ग्राम का साबुन लगभग 499 में बेच रहे हैं, जो कई तरह के स्किन प्रॉब्लम में मदद करता है।
संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार गधी और घोड़ी के दूध में प्रोटीन इस तरह का है कि जिन लोगों को गाय के दूध से एलर्जी है, यह उनके लिए बहुत बेहतर होता है। इस दूध में प्रोटीन और वसा की मात्रा कम होती है लेकिन लैक्टॉस अधिक होता है। इसका उपयोग कॉस्मेटिक्स और फ़ार्मास्युटिकल उद्योग में भी होता है क्योंकि कोशिकाओं को ठीक करने और प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के भी इसमें गुण हैं।
भारत में गधों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। पिछले एक दशक में देश गधों की आधी से अधिक आबादी को खो चुका है। 2019 की पशु जनगणना के अनुसार देश में गधों की कुल आबादी 1.2 लाख है, जो पिछली यानी 2012 की जनगणना से 61.23 प्रतिशत घट गई थी। 2012 में यह संख्या 3.2 लाख थी।