बचपन की नींद और लोरियों का साथ बहुत पुराना है। पहले के ज़माने में जब टीवी, मोबाइल फोन जैसी चीज़ें नहीं थी, बच्चों को बहलाकर सुलाने के लिए लोरियां ही साथ देती थीं। कभी मां की मधुर आवाज़, कभी दादी का लाड़ और कभी पिता का प्यार। लोरियों में कुछ ऐसा जादू होता है कि नन्हें-मुन्ने इन्हें सुनते-सुनते कब मीठी नींद सो जाते हैं, मालूम ही नहीं होता।
भारत के बारे में कहा जाता है ‘कोस-कोस पर बदले पानी और चार कोस पर वानी’, यानी यहां हर एक कोस पर पानी का स्वाद बदल जाता है और चार कोस पर भाषा। अब इतने भाषाओं और बोलियों बाले देश में लोरियां एक जैसी कैसे हो सकती हैं? यहां भी न जानें कितनी भाषाओं और बोलियों में लोरियां गाई जाती रही हैं।
गांव कनेक्शन की ख़ास सीरीज़ ‘Folk Studio’, में हम छिपी हुई लोक कलाओं को आपके सामने लाने की लगातार कोशिश करते हैं। इसके नए एपिसोड में हम आपके लिए लाए हैं मिथिलांचन की मशहूर मैथिली लोरी ‘झूलो मेरे बच्चे, पुए जैसे गाल हैं’। इस लोरी को मैथिली भाषा के लेखक स्वर्गीय बद्रीनाथ झा ने लिखा था। आज भी यहां दादी-नानियां छोटे-छोटे बच्चों को ये लोरी गाकर सुलाती दिख जाती हैं।