'गेमिंग डिसऑर्डर' - मोबाइल फोन की लत ग्रामीण बच्चों को दे रही नई बीमारी; गाँव कनेक्शन की ग्राउंड रिपोर्ट

पिछले साल जून की 4 तारीख को लखनऊ में मोबाइल गेम खेलने से मना करने पर बेटे ने अपनी माँ को ही गोली से मार दिया था। इस घटना ने तमाम ऐसे माता-पिता को सोचने को मजबूर कर दिया कि उनके बच्चे भी तो गेम खेलते हैं, कहीं वो भी ऐसा कोई कदम न उठा दें। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तो ऑनलाइन गेमिंग को नई बीमारी गेमिंग डिसऑर्डर का नाम दिया है। गाँव कनेक्शन की ग्राउंड रिपोर्ट में पढ़िए किस तरह से मोबाइल गेम ने अभिभावकों को परेशान किया और किस तरह से बच्चों को इस लत से बचाया जा सकता है।

Manvendra SinghManvendra Singh   20 Jun 2022 1:24 PM GMT

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पुखरायां (कानपुर देहात)। 12 साल का सोनू हर दिन पांच घंटे मोबाइल गेम खेलने में बिताता है तो वहीं 17 साल के शशांक जब गेम खेल रहे होते हैं तो उन्हें मना करने पर गुस्सा हो जाते हैं।

पिछले साल 4 जून को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में एक 16 साल के बेटे ने अपनी मां की गोली मार के हत्या कर दी। इस घटना ने पूरे देश का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया क्योंकि हत्या का कारण PUBG मोबाइल गेम था जहा माँ के बार-बार टोकने पर बच्चे ने अपनी माँ की गोली मार कर हत्या कर दी।

लखनऊ की यमुनानगर कॉलोनी जहां पर यह घटना हुई, वहां से लगभग 149 किमी दूर कानपुर देहात जिले के पुखरायां ब्लॉक के एक गाँव में 12 साल के सोनू और 17 साल के शशांक रहते हैं। (दोनों लड़कों के नाम बदल दिए गए हैं)

पहले क्रिकेट खेलने वाले सोनू का ज्यादातर समय मोबाइल गेम में ही जाता है। मोबाइल गेम की आदत पर सोनू बतात है, "मुझे PUBG खेलना बहुत पसंद है वैसे तो मेरा पसंदीदा गेम क्रिकेट था, लेकिन अब गाँव में कोई नहीं खेलता क्योंकि धूप रहती है और गाँव में अब कोई क्रिकेट खेलता भी नहीं।"

आगे पूछे जाने पर वो हर दिन कितनी देर मोबाइल पर गेम खेलता है वो खिलखिलाते हुए बोला, "मैं दिन में पांच घंटे गेम खेलता हूं।"

गेमिंग डिसऑर्डर को इंटरनेशनल क्लासिफिकेशन ऑफ डिजीज (ICD-11) के 11 वें संशोधन में गेमिंग व्यवहार ("डिजिटल-गेमिंग" या "वीडियो-गेमिंग") के एक पैटर्न के रूप में परिभाषित किया गया है। फोटो: गाँव कनेक्शन

ग्रामीण भारत में इंटरनेट और मोबाइल धीरे-धीरे अपना असर दिखाना शुरू कर चुके हैं। जहां गाँव के बच्चे अब शारीरिक खेल कूद के बजाए अपना ज़्यादा समय मोबाइल की काल्पनिक दुनिया में बिताना पसंद करते हैं।

नीलसन इंडिया द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार ग्रामीण इलाकों में इंटरनेट के सक्रिय उपयोगकर्ताओं की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है। अध्ययन के अनुसार 2019 से भारत के ग्रामीण इलाकों में सक्रिय इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या में 45 फीसदी का इजाफा हुआ। इस रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि इंटरनेट का सक्रियता से उपयोग करने वालों में महिला उपयोगकर्ताओं की संख्या 2019 के बाद से 61 फीसदी बढ़ी है।

लखनऊ के हादसे के बाद सभी माता-पिता हैरान परेशान तो हैं ही उसी के साथ वो इस बात को लेकर चिंतित भी हैं की कैसे वो अपने बच्चों को मोबाइल से दूर रखें। कोरोना काल में जहां ऑनलाइन क्लास ने माता पिता को अपने बच्चों को मोबाइल देने पर मजबूर किया, वहीं ज़्यादातर बच्चे पढाई के साथ-साथ कब मोबाइल की काल्पनिक दुनिया को अपनी दुनिया समझने लगे किसी को पता ही नहीं चला।

राजधानी लखनऊ की यह खबर जब गाँव पहुंची तो लोग एकाएक मोबाइल फ़ोन की लत को लेकर गंभीर हो गए वो परेशान थे क्योंकि इस घटना के पहले बच्चों का मोबाइल पर घंटों समय देना उन्हें एक फिक्र की बात नहीं लगती थी, लेकिन इसके परिणाम इतने भयावह हो सकते हैं इसका उनको कोई अंदाज़ा नहीं था।

सर्वे के अनुसार प्रतिभागियों में मोबाइल फोन की लत की व्यापकता 33.0% थी। लड़कियों (32.3%) की तुलना में लड़कों (33.6%) में लत अधिक थी। फोटो: मानवेंद्र सिंह

36 वर्षीय किरन सिंह जोकि बुदारा गाँव मुरैना ज़िले मध्य प्रदेश की निवासी हैं और एक 13 साल के बच्चे की माँ भी हैं, किरन गाँव कनेक्शन से बताती हैं, "मोबाइल की वजह से हम सारे ही परेशान हैं, मेरे घर में भी जो बच्चे है और मेरी देवरानी के जो बच्चे हैं पूरा दिन हाथ में मोबाइल लेकर रखते हैं।"

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ के डॉक्टरों ने अक्टूबर 2020 से मार्च 2021 तक दिल्ली के निम्न-आय वाले शहरी क्षेत्रों के 264 किशोरों (10-19 वर्ष) के बीच एक समुदाय-आधारित, क्रॉस-सेक्शनल सर्वे किया गया था। इस सर्वे के अनुसार प्रतिभागियों में मोबाइल फोन की लत की व्यापकता 33.0% थी। लड़कियों (32.3%) की तुलना में लड़कों (33.6%) में लत अधिक थी। मोबाइल फोन की लत उन किशोरों में काफी अधिक पाई गई, जिसमें 3 भाई-बहन थे, और जो एकल परिवारों से संबंधित थे।

वो आगे कहती हैं, "और अगर बच्चों को डांटों तो खाना नहीं खाते अगर मोबाइल छुड़ा लो तो गुस्सा हो जाएंगे जब मोबाइल देते हैं तभी खाना खाते हैं और जब से लखनऊ के लड़के की खबर सुनी है तब से और ज़्यादा दिमाग ख़राब हो गया है।"

"जब से ऑनलाइन क्लास का चलन चला है तब से बच्चे और ज़्यादा परेशान करने लगे है पहले इतना मोबाइल नहीं चलाते थे, पहले बाहर जाने से हम मना करते थे लेकिन अब हम खुद बच्चों से कहते है बाहर जा कर खेलों मोबाइल मत चलाओ, "किरन की बातों में डर झलक रहा था।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ऑनलाइन गेमिंग को बताया है नई बीमारी

वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन (WHO) ने ऑनलाइन गेमिंग को गेमिंग डिसऑर्डर का नाम दिया है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार, 'गेमिंग डिसऑर्डर' गेमिंग को लेकर बिगड़ा नियंत्रण है, जिसका अन्य दैनिक गतिविधियों पर भी प्रभाव पड़ता है। डब्ल्यूएचओ ने इंटरनेशनल क्लासिफिकेशन ऑफ डिजीज

गेमिंग डिसऑर्डर को इंटरनेशनल क्लासिफिकेशन ऑफ डिजीज (ICD-11) के 11 वें संशोधन में गेमिंग व्यवहार ("डिजिटल-गेमिंग" या "वीडियो-गेमिंग") के एक पैटर्न के रूप में परिभाषित किया गया है।

17 साल के शशांक सिंह को भी मोबाइल गेम की लत लग गई है। शशांक कहते हैं, "मेरी भी गेम खेलने की आदत है तो जब भी फ्री होता हूं बस गेम ही खेलता हूं इसकी वजह से मेरे पास फ्री टाइम ही नहीं बचता और गेम खेलने के दौरान मुझे कोई बोलता है तो भी और कुछ करने की इच्छा ही नहीं होती।"

वो आगे कहते हैं, "अभी कुछ हफ़्ते पहले की ही बात है मेरी माँ मुझे टोका करती थी, मतलब एक होता है की गेम खेलते रहो तो लेवल्स आते हैं। हम लेवल्स क्रॉस करते रहते है तो बार-बार उसको और खेलने का मन करता है। जिस समय में गेम खेल रहा होता हूं उस समय मुझे कोई बुलाए या टोके तो मुझे इरिटेशन होती है गुस्सा आता है मुझे लगता है की में अपने जीवन का इतना ज़रूरी काम कर रहा हूं, गेम खेल रहा हूं तो दूसरे मुझे क्यों डिस्टर्ब कर रहें हैं।"

दिसंबर 2021 में देश भर में 2 साल से अधिक उम्र के सक्रिय इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या 64.6 करोड़ थी। सक्रिय इंटरनेट उपयोगकर्ताओं के मामले में ग्रामीण भारत शहरी इलाकों से कहीं आगे है। फोटो: गाँव कनेक्शन

यूपी जुवेनाइल जस्टिस के असेसमेंट पैनल की सदस्य और मनोवैज्ञानिक डॉ नेहा आनंद गाँव कनेक्शन से बताती हैं, "मोबाइल एडिक्शन की तीन स्टेज होती हैं, पहली स्टेज होती है जहां हमें सिर्फ मोबाइल का अट्रैक्शन होता है, धीरे-धीरे हम मोबाइल इस्तेमाल करना शुरू करते हैं उसके फीचर जानना शुरू करते हैं। इसके बाद और आगे बढ़ते जाते हैं।"

परिवार जहां माता पिता और उनके बच्चे एक साथ रहते है ऐसे में अगर माता पिता दोनों काम पर जाते है और बच्चे अकेले घर पर रहते है ऐसे परिवार के बच्चों में मोबाइल का आदी बन जाने की सम्भावना ज़्यादा बढ़ जाती है, बजाए उन बच्चों के जो संयुक्त परिवार में रहते है जहां माता पिता के साथ-साथ दादा- दादी, चाचा -चाची, जैसे परिवार के अन्य लोग भी एक साथ रहते हैं।

नीलसन द्वारा किए गए अध्ययन में देश भर में सक्रिय इंटरनेट उपयोगकर्ताओं के बीच इंटरनेट के उपयोग और उनके ब्राउजिंग रूझान की भी जानकारी दी गई। रिपोर्ट से पता चलता है कि दिसंबर 2021 में देश भर में 2 साल से अधिक उम्र के सक्रिय इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या 64.6 करोड़ थी। सक्रिय इंटरनेट उपयोगकर्ताओं के मामले में ग्रामीण भारत शहरी इलाकों से कहीं आगे है।

ग्रामीण इलाकों में 35.2 करोड़ इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं जिनकी संख्या शहरी भारत की तुलना में करीब 20 फीसदी अधिक है। अध्ययन से यह भी पता चला है कि करीब 60 फीसदी ग्रामीण आबादी अब भी इंटरनेट का सक्रिय उपयोग नहीं कर रही है, जिससे इस क्षेत्र में विस्तार की काफी संभावना है। इधर शहरी इलाकों में सक्रिय इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या 29.4 करोड़ है।

मोबाइल एडिक्शन की तीन स्टेज होती है, पहली स्टेज होती है जहां हमें सिर्फ मोबाइल का अट्रैक्शन होता है धीरे-धीरे हम मोबाइल इस्तेमाल करना शुरू करते हैं उसके फीचर जानना शुरू करते हैं। फोटो: गाँव कनेक्शन

72 वर्षीय विजय भान सिंह अपने नाती और पोती को याद करते हुए कहते हैं, "हमारे भी नाती पोता है जो हमेशा मोबाइल के चक्कर में ही रहते हैं, उन्हें अगर पूरा दिन मोबाइल दिखाते रहो वो देखते रहेंगे खाना-पीना सब छोड़ देते हैं।"

विजय भान सिंह कानपुर देहात के कछगाँव के रहने वाले हैं और उनके बेटे-बहु अपने बच्चों के साथ लखनऊ में रहते हैं।

ऑनलाइन क्लासेज से मोबाइल की लत तक

कोरोना काल में जब स्कूल सिमट कर मोबाइल पर आ गये थे तब माता पिता के पास दूसरा कोई विकल्प नहीं था। बात अगर मोबाइल से पढाई करने की होती तो ठीक था लेकिन जल्द ही बच्चों ने पढाई को ढाल बना कर उसकी आड़ में मोबाइल पर गेम खेलना शुरू कर दिया। गाँवों में अभी भी माता-पिता मोबाइल की तकनीक से वाकिफ नहीं होते हैं, उनका ये जान पाना बहुत मुश्किल हो जाता है की उनका बच्चा पढाई कर रहा या मोबाइल पर गेम खेल रहा।

इसी सिलसिले में पुखरायां के सरकारी स्कूल में अंग्रेजी के अध्यापक ज्ञानेंद्र सिंह से बात की उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया, "कोरोना के समय पर में जिस पब्लिक स्कूल में पढ़ाता था वहां माता-पिता की एक ही शिकायत हमेशा रहती थी की उनका बच्चा पढ़ता नहीं और दिन भर मोबाइल फ़ोन पर लगा रहता है।"

वो आगे कहते हैं, "बच्चे मोबाइल पर पढ़ाई छोड़ कर बाकी सब करते हैं जैसे गेम खेलना, रील्स बनान। आज कल तकनीक का ज़माना है मोबाइल से बच्चे पढाई करते हैं गूगल पर सर्च करते हैं और इसमें कोई दिक्कत भी नहीं लेकिन माता पिता का ये फ़र्ज़ बनता है कि वो अपने बच्चों पर नज़र रखे की वो मोबाइल पर क्या कर रहे हैं और कितनी देर मोबाइल चला रहे है, बच्चों को बाहर खेलने के लिए प्रोत्साहित करें और उनके साथ समय भी बिताएं।"

क्या आपके बच्चा नोमोफिबिक तो नहीं?

मोबाइल फ़ोन एक ऐसी चीज़ है जो आज कल हम सबके पास होती है और बिना मोबाइल के हमारा दिन पूरा नहीं होता है, लेकिन ये समझना ज़रूरी है की मोबाइल फ़ोन के जहां कई फायदे हैं वहीं इसके ज़्यादा इस्तेमाल से आपको बहुत घातक परिणाम झेलने पड़ सकते हैं जैसा की लखनऊ के केस में देखा गया जहां मोबाइल की आदत इस हद तक बढ़ गयी की एक नाबालिक ने अपनी माँ की हत्या कर दी।

मनोवैज्ञानिक डॉ नेहा आनंद ने मोबाइल एडिक्शन पर बताया कि मोबाइल एडिक्शन कई चरणों के बारे में होता है और एक नई बीमारी जिसका नाम नोमोफोबिया है।

डॉ नेहा बताती हैं, "मोबाइल एडिक्शन की तीन स्टेज होती है, पहली स्टेज होती है जहां हमें सिर्फ मोबाइल का अट्रैक्शन होता है धीरे-धीरे हम मोबाइल इस्तेमाल करना शुरू करते हैं उसके फीचर जानना शुरू करते हैं।"

"वो धीरे-धीरे हमें इसका आदी बना रही होती है और हमें इसके बारे में पता ही नहीं होता है, हम शायद आधे घंटे से शुरुआत करते हैं जो कई बार घंटों में तब्दील हो जाती है, ये शुरुआती स्टेज होती है। इस स्टेज पर कोई ऐसी समस्या नहीं आएगी जैसे नींद न आना या मोबाइल के न होने पर गुस्सा आना ऐसा कुछ भी नहीं होता, "नेहा आनंद ने आगे बताया।,

नोमोफोबिया एक ऐसा डर है जो मोबाइल न होने के कारण होता है यानि की मोबाइल से हम दूर हो गए तो क्या होगा। फोटो: मानवेंद्र सिंह

दूसरे स्टेज के बारे में डॉ नेहा कहती हैं, "दूसरी स्टेज वो स्टेज होती है, जहां आप इसमें घुस चुके होते हैं और इस चीज़ को और ज़्यादा जानना चाहते हैं, पहले क्या था रील्स वगैरह का इतना चलन नहीं था आगे ये सब चीज़े एक आनंद, लालच, प्रलोभन ये तीन चीज़े एक ज़हरीला सर्किल बन जाता है।

इसके बाद आती है तीसरी स्टेज जहां हम कब मोबाइल के आदी बन जाते हैं, हमें पता भी नहीं चलता। इस स्टेज पर लेवल्स आ जाते है जहां लोग उन्हें पार करने में लग जाते है जैसे रील्स पर ज़्यादा व्यूज, PUBG के लेवल पार करना या फिर किसी भी वॉयलेंट गेम को पार करना और ये आनंद अब तीसरी स्टेज पर घातक हो जाता है।

नोमोफोबिया एक नया मेन्टल डिसऑर्डर आया है, नोमोफोबिया इस स्टेज तक आ जाता है, अब ये फोबिया क्या है? नोमोफोबिया एक ऐसा डर है जो मोबाइल न होने के कारण होता है यानि की मोबाइल से हम दूर हो गए तो क्या होगा। या मोबाइल न मिलने पर व्यवहार में बदलाव आना चिड़चिड़ापन होना, टेम्पर खो देना इस हद तक गुस्सा आना की चीज़े तोड़ फोड़ देना, मार पीट कर लेना, ये सब एडिक्शन के लक्षण हो जाते हैं, जिसके बाद हमारा खान पान, हमारे दोस्त, हमारी नींद सब कुछ पीछे रह जाता है।

कैसे बच्चों को मोबाइल फोन से दूर रखें

बच्चों को मोबाइल से दूर रखने पर डॉ नेहा आनंद सलाह देती हैं, "देखिये एक वक़्त पर जियो फ्री हो गया था जब इंटरनेट फ्री हो गया तो गाँव तक भी इंटरनेट पहुंच गया और कोई चीज़ अगर फ्री में मिलती है तो उसका गलत इस्तेमाल शुरू हो जाता है। कोई नयी चीज़ जब हिंदुस्तान में क्रांति कि तरह आती है तो कहीं न कहीं ये सरकार की ज़िम्मेद्दारी बनती है वो उसके बारे में जागरूकता फैलाए।"

वो आगे कहती हैं, "गाँव में जहां माता पिता खेतों में काम करने चले जाते हैं और उनके पीछे उनके बच्चे मोबाइल चला रहे हैं और जागरूक न होने के कारण ऐसे माता पिता इस बात से अनजान रहते है की मोबाइल कैसे उनके बच्चों के मानसिक और शारीरिक विकास पर असर डाल रहा है।

छोटी उम्र के बच्चों को मोबाइल न दिया जाए और अगर आप उन्हें फ़ोन दे भी रहे हैं तो ज़रूर देखे की वो फ़ोन में क्या देख रहे हैं। फोटो: मानवेंद्र सिंह

डॉ नेहा आनंद के अनुसार सबसे पहली बात माता पिता को फ़ोन थोड़ा बहुत सीखना पड़ेगा, क्योंकि फ़ोन बस वीडियो देखने के लिए, गेम खेलने या मनोरंजन का साधन नहीं है वो एक मशीन है जो बहुत खतरनाक हो सकती है। माता पिता को मोबाइल फ़ोन पर कुछ फीचर जैसे पैरेंटल लॉक या चाइल्ड लॉक इनको सीखना पड़ेगा जोकि मोबाइल फ़ोन्स में दिया रहता है।

वो आगे कहती हैं, "गाँव में जहां डॉक्टर्स और अच्छे मनोविज्ञानिक नहीं उपलब्ध रहते हैं, ऐसे में गाँव में सरपंच या गाँव के जो पढ़े लिखे लोग हैं वो जागरूकता अभियान चलाए कि छोटी उम्र के बच्चों को मोबाइल न दिया जाए और अगर आप उन्हें फ़ोन दे भी रहे हैं तो ज़रूर देखे की वो फ़ोन में क्या देख रहे हैं कितनी देर फ़ोन चला रहे हैं ये कुछ देख रेख तो माता पिता को करनी ही पड़ेगी।"

ऐसे जानिए कहीं आपका बच्चा बीमार तो नहीं हो रहा

लखनऊ के मानसिक रोग चिकित्सक डॉ देवाशीष शुक्ला अभिभावकों को सलाह देते हुए कहते हैं, "सबसे पहला काम है बच्चों पर नज़र रखें, बच्चा किस गेम में इंट्रेस्ट ले रहे हैं उसके बारे में पता करें और बच्चे का टाइम निश्चित कर दें कि बच्चा गेमिंग या अन्य मोबाइल संबंधित चीज़ो पर इन्वॉल्व नहीं होगा।"

"दूसरा अगर गेम खेलने से बच्चे के व्यवहार में कोई बदलाव आ रहा तो बहुत सक्रिय होने की ज़रुरत है, परिवार और घर के लोग बता ही देंगे की इसका व्यवहार बदल रहा है, "डॉ शुक्ला ने आगे कहा।

मोबाइल एडिक्शन के बारे में डॉ देवाशीष बताते है, "मोबाइल एडिक्शन के संकेत बड़े कॉमन से हैं जैसे बच्चे की याददाश्त में कमी होने लगती है, बच्चे के व्यवहार में चिड़चिड़ापन आने लगता है, उलझन, घबराहट बढ़ने लगती है, लोगो से बातचीत बच्चे की कम होने लगती है, बच्चा अकेले रहने की कोशिश करने लगता है, सब घुमा फिरा के एंजायटी, डिप्रेशन के जो लक्षण होते हैं सब होना शुरू हो जाते हैं।"

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