झारखण्ड। लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र झारखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन गाँव कनेक्शन से बातचीत में बताते हैं, साल 2000 में नया प्रदेश बनने के बाद ऐसा नहीं कहा जा सकता कि ये आगे नहीं बढ़ा। यहां सरकारे बनीं, बिगड़ीं, एक समय पर तेज़ी से बदलाव का एक संकेत भी आता दिख रहा था। साल 2014 तक चाहे जीडीपी में बढ़ोत्तरी हो, किसान हों, पढ़ाई, स्वास्थ्य जो कुछ हो एक पटरी पर आ रहे थे।
पिछले चार-पांच सालों में सबकुछ बिगड़ने लगा है। किसानों की आत्महत्या होने लगी हैं, लोग भूख से मर रहे हैं। हमने तो यहां तक सुना है कि जिन लोगों के कागज़ वगैरह सब बने हैं पर उन्हें राशन नहीं मिल रहा और उनके घर में किसी की मौत हो जाए तो रात में घर पर अनाज फेंक के भाग जाते हैं।
सोरेन बताते हैं कि यहां बेरोज़गारी की वजह से लड़के आत्महत्या कर रहे हैं। ट्रेन के सामने कूद जाते हैं। ये हालत प्रदेश को पीछे धकेल रही है।
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पूर्व मुख्यमंत्री कहते हैं कि चुनाव के मुद्दों की बात की जाए तो कुछ मुद्दे तो स्वतंत्रता से भी पहले के हैं यहां। जल, जंगल, ज़मीन का मुद्दा तो यहां हमेशा से चला आ रहा है। झारखण्ड के लगभग 50 प्रतिशत लोग जंगलों में रहते हैं। यहां लगभग 11-12 आरक्षित वन (Reserve Forest) हैं, इनकी वजह से आदिवासियों को बाहर निकालने की कोशिश की जा रही है।
“आदिवासी लोग तेंदु पत्ते, आंवला, महुआ जैसी जंगल की चीज़ों को बेच कर अपना काम चलाते हैं। बीच में सरकार ने ऐसा कानून बनाया कि जंगल की चीज़ों को बेचने वालों को सज़ा होगी, हालांकि, बाद में उसे बदल लिया गया। अब देखिए, सरकार कहीं फेल होती है तभी प्राइवेट कंपनी आती है। हर जगह निजीकरण हो रहा है क्योंकि सरकार बुनियादी ज़रूरत की चीज़ें ही मुहैया नहीं करवा पा रही है,” – सोरेन आगे कहते हैं।
सोरेन बताते हैं, “यहां लगभग हर क्षेत्र के सरकारी कर्मचारी आंदोलन कर रहे हैं। सारी योजनाएं विफल हैं। यहां के कई लोग पलायन कर रहे हैं। आप यहां आकर चुनाव प्रचार कर रहे हैं, जो लोग खाने को तरस रहे हों उन्हें बाकी चीज़ें कहां समझ आएंगी। अब देखिए क्या होता है…”