गोदावरी दत्त: जिन्हें मिथिला कला की साधना के लिए मिला PadamShree सम्मान

"पद्मश्री को लेकर मुझे कोई आशा नहीं थी, मैं तो बस अपनी लोककला को जीवंत रखना चाहती थी। ये मेरे लिए एक साधना है, "गोदावती दत्त, मधुबनी शिल्प गुरु।

Jigyasa MishraJigyasa Mishra   16 March 2019 11:46 AM GMT

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गोदावरी दत्त को मिथिला पेंटिंग में लगातार उत्कृष्ट काम के लिए १६ मार्च को भारत के राष्ट्रपति रामनाथ गोविंद ने पद्मश्री अवार्ड से सम्मानित किया गया।

रांटी (बिहार)। बिहार के मधुबनी जिले में शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा जो गोदावरी दत्त को न जानता हो। रांटी गाँव में पक्के घरों के बीच बिछी संकरी गलियों से होते हुए पोखर के ठीक सामने वाले घर पर राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता गोदावरी दत्त की नेम प्लेट दिखाई पड़ती है।

गोदावरी दत्त को मिथिला पेंटिंग में लगातार उत्कृष्ट काम के लिए देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कारों में शामिल पद्मश्री से सम्मानित किया। बिहार और राष्ट्र स्तर पर कई सम्मानों से नवाजी जा चुकी गोदावरी देवी आज भी अपने पैतक गांव में रहती हैं। बिहार की राजधानी पटना से करीब 200 किलोमीटर दूर मधुबनी जिले के राजनगर प्रखंड ब्लॉक का रांटी गांव गोदावरी दत्त के गांव के नाम से भी जाना जाता है।

मिथिला कलाकार गोदावरी दत्त को देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कारों में से एक Padamshree से सम्मानित करते राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद। फोटो साभार

गोदावती दत्त के एक मंज़िला घर में प्रवेश करते ही लिविंग रूम की मिथिला पेंटिंग से सजी दीवार उनकी कलात्मकता का रंग-बिरंगा नमूना देती हैं। कमरे की चारों दीवारें दत्त की पेंटिंग्स और प्रमाण पत्रों से भरी हुई हैं। शायद ही कोई कोना खाली हो।

"यह कोहबर तो मैंने बीस साल पहले बनाया था। मेरी पोतियों ने भी इनमे कहीं कहीं रंग भरा है। वैसे तो कोहबर विवाहिता के कमरे में बनता है, लेकिन ये बैठक कमरे में, बड़े आकर में बनाया है मैंने," चटकीले नीले, लाल, पीले और हरे रंग से सजी दीवार बनी पेंटिंग दिखते हुए दत्त ने बताया।

90 वर्ष की गोदावरी, पाँच वर्ष की उम्र से मिथिला पेंटिंग बना रही हैं और अपनी माँ को ही अपना गुरु बताती हैं। "मैं पांच साल की रही होउंगी जब से मैंने होश संभाला और देखा की मेरी माँ और दादी दोनों यह चित्र उकेरा करती थीं। दोनों बहुत ही अच्छी कलाकार थीं। गाँव में किसी के भी यहाँ शादी विवाह हो या अन्य शुभ अवसर, लोग हमारे यहां पेंटिंग बनवाने आते थे। हमारे यहाँ कोई भी शुभ काम हो, मिथिला पेंटिंग ज़रूर बनती है," गोदावरी बताती हैं।

घर की तमाम चीजों को निहारते और कुछ पेटिंग्स को देखकर वो मुस्कुराते हुए अपने कलाकार बनने की कहानी बताती हैं, "जब चित्र बनाते हुए, बीच में किसी काम से माँ को उठ कर इधर-उधर जाना पड़ता था तो मैं उनकी गैर-मौजूदगी का फायदा उठा कर उनके चित्रों में रंग भरने लगती थी। एक बार उन्होंने मुझे यह करते देख लिया तो मैं डर कर छुप गयी कि कहीं अब मार न लगे। लेकिन माँ तो उल्टा खुश हो गयी थीं। कहने लगी की मुझे अगर चित्र बनाना और रंग भरना पसंद है तो मैं बना सकती हूँ और रंग फैलने पर भी कोई दिक्कत नहीं, वो संभाल लेंगी। वो दिन था और आज का दिन है, उन्होंने ही मुझे सब सिखाया और यहाँ तक पहुँचाया।"

दत्त शादी के पहले दरभंगा जिले के लहेरियासराय में रहती थी। शादी के बाद वो मधुबनी आ गयी और यहाँ कई लोगों को अपनी शिल्प सिखाया। अभी वह अपने बेटे और बहु के साथ रहती हैं और बढ़ते उम्र की वजह से कम ही पेंटिंग बना पाती हैं। दत्त बताती हैं कि मिथिला या मधुबनी पेंटिंग बिहार के मिथिलांचल क्षेत्र की पारम्परिक लोक कला है जो हर अवसर के हिसाब से बनाई जाती है। जैसे विवाह में कोहबर, दीपावली में अष्टभुज आदि।

गोदावरी दत्त की पेंटिंग समुद्र मंथन, त्रिशूल, कोहबर, वासुकीनाग आदि काफी प्रसिद्ध हैं। 90 वसंत देख चुकी शिल्प गुरु गोदावरी 1964-65 से ही वह इस क्षेत्र में काम कर रहीं हैं और कई बार कला अकादमियों द्वारा बुलाये जाने पर अलग-अलग देशों के दौरे भी कर चुकी हैं। बिहार म्यूजियम में एक विशाल मिथिला पेंटिंग बनाने के साथ ही साथ इनकी पेंटिंग्स ने जापान के मिथिला म्यूजियम में भी अपनी जगह संजोयी हैं।

मिथिला पेंटिंग की प्रारंभिक तकनीकों को बताते हुए गोदावरी कहती हैं, "हमारी दादी, माँ तो बहुत परिश्रमी थीं। उन दिनों काफी समय होता था। वो झरोखों पर डिबिया (एक प्रकार का दिया) जला कर रख देती थी ताकि दीवार पर कार्बन (करिखा) जमा हो सके, उस से वो कला रंग बनती थीं। सेम की पत्तियों से हरा और गेरू से लाल रंग बनाया करती थीं। ब्रश तो काफी बाद में आया, तब सिर्फ बांस की सिक्की से ही चित बनाये और उनमे रंग भरे जाते थे। अब प्राकृतिक रंग तो क्या लोग मिह्तिला पेंटिंग के नाम पर चित्रों को फ्लेक्स प्रिंट करवा लेते हैं।"

पद्मश्री के लिए नाम घोषित होने पर गोदावरी दत्त कहती हैं, "नहीं, मुझे कोई आशा नहीं थी पद्मश्री की। मैं तो बस अपनी लोक-कला को जीवंत रखना चाहती थी, उसे और लोगों तक पहुंचना चाहती थी। ये मेरे लिए एक साधना है, हमने कभी पैसों के लिए काम नहीं किया, बस साधना की।"

    

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