कोरोना से लड़ाई: विटामिन, च्यवनप्राश, गिलोय जैसे इम्युनिटी बूस्टर की ओवरडोज भी सेहत के लिए घातक हो सकती है?

देश में कोरोना (Covid-19) की दूसरी लहर ने लोगों की नींद उड़ा रखी है। कई राज्यों में रोजाना सैकड़ों लोगों की मौत हो रही है। ऐसे में लोग एक बार फिर बचाव के तरीके खोज रहे हैं। इस चक्कर में ज्यादातर लोग गिलोय और दूसरे हर्बल काढ़ा, विटामिन टेबलेट की ओवरडोज ले रहे हैं, जो भारी नुकसान दायक है, जानिए क्यों

Deepak AcharyaDeepak Acharya   18 April 2021 9:12 AM GMT

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कोरोना से लड़ाई: विटामिन, च्यवनप्राश, गिलोय जैसे इम्युनिटी बूस्टर की ओवरडोज भी सेहत के लिए घातक हो सकती है?

कोरोना से बचने के लिए ज्यादा च्वनप्राश, गिलोय, विटामिन्स जैसे इम्युनिटी बूस्टर लेना भी सेहत के लिए खतरनाक हो सकता है?

हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता हमारी सेहत का बेहतर होना या ना होना तय करती है। रोग प्रतिरोधक (Immunity) क्षमता या रोगों से लड़ने की ताकत यानी इम्यूनिटी के बारे में पिछले 12-13 महीनों में आपने खूब सुना होगा। बाज़ार भी इम्युनिटी के नाम पर हरा-भरा हो गया था। हर्बल काढ़ों का अंधाधुंध सेवन किया गया, गिलोय, काली मिर्च, अदरक, सोंठ, तुलसी, मुलेठी, आंवला जैसी वनस्पतियों के नाम रट लिये गए थे।

दबा दबाकर सुबह-शाम काढ़ा पिया गया और फिर खुद को सुपर ह्यूमन बनाने की दौड़ शुरु हुई, आखिर लड़ाई भी तो कोरोना से हो रही थी, उसी कोरोना (COVID-19) से जिसने आधुनिक और पारंपरिक विज्ञान को उसकी औकात भी दिखा दी। आधा अधूरा ज्ञान लेना और बेहिचक उसे बाँटना हमारा तो नैतिक कर्तव्य टाइप का मामला है। कोरोना काल में कोरोना ने तो खूब तकलीफ दे रखी थी, बची-कुची तकलीफ गुड मॉर्निंग वाले, लाल गुलाबों वाले व्हाट्स्एप के मैसेज छीन ली थी, और फिर इन 12-13 महीनों में व्हाट्सएप्प, फेसबुक, टीवी पर भी नए-नए टाइप के काढ़ों और नुस्खों ने भी खूब सताया।

हालांकि हर्बल नुस्खों और बेहतर सेहत और इम्युनिटी के लिए मैंनें भी खूब सलाहे दीं और लेकिन हर बार ये कोशिश भी कि जनता को चेताया जाए और नुस्खों (home remedies) के लिमिटेशन्स भी बताए जाएं। हमारी जनता इन्नोसेंट है, जमकर के काढ़ा पीने लगी और फिर एक के बाद गैस्ट्रोइंटेस्टायनल रोगियों की बाढ़ सी आ गयी।


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मेरी मित्र हैं जयपुर में, डॉ सारिका माथुर, एक बहुत बड़े अस्पताल में कैंसररोग एक्स्पर्ट डॉक्टर हैं। एक दिन चर्चा के दौरान बता रहीं थी कि इस दौर में जितने पेप्टिक अल्सर, गैस्ट्रिक डिसऑर्डर और गैस्ट्रोइंटेस्टायनल के रोगी उस बड़े अस्पताल में आ रहे हैं, उतने एक साथ कभी नहीं देखे गए। मेरे हिसाब से तकलीफ सिर्फ यहाँ तक सीमित नहीं है, मुझे 'ऑटोइम्यून डिसऑर्डर्स' को लेकर ज्यादा डर है। वजह ये कि जब शरीर में हद्द से ज्यादा इम्यूनिटी बन जाए यानी खूब सारी एंटीबॉडीज़ तैयार हो जाएं तो ये शरीर के लिए मौज की बात नहीं बल्कि ऐसा होना खतरे की घंटी बज जाना है।

मुद्दे की बात ये है कि इम्यूनिटी का गुल्लक ठूंस ठूंसकर भर दिया गया हो तो खुद को खाली करने के लिए गुल्लक खुद ही के सिक्कों को चबाने लग जाता है। शरीर में इम्यूनिटी हद्द से ज्यादा हो जाए यानी शरीर के रोगों से लड़ने वाली फ़ौज ज्यादा बन जाए तो इम्यूनिटी आक्रमण के लिए बैचेन हो जाती हैं। जब कोई वायरस, कोई बैक्टिरिया या कोई खतरा आक्रमण करने के लिए नहीं मिलता है तो ये खुद अपने शरीर के भीतर ही हमला बोलने लगती हैं, ये एंटीबॉडीज़ अब ऑटोएंटिबॉडीज़ बन जाती हैं और खुद अपने शरीर पर आक्रमण बोलकर शरीर के खिलाफ हल्लाबोल कर देती हैं।

इन ऑटोएंटीबॉडीज़ द्वारा किसी एक अंग को टारगेट किया जाता है, जैसे पैनक्रियाज़, जो इंसुलिन का निर्माण करता है। ये ऑटोएंटीबॉडीज़ पैनक्रियाज़ की कार्य क्षमता को शून्य कर देते हैं और इस तरह इंसान को टाइप 1 डायबिटीज़ हो जाती है। कभी-कभी ये ऑटोएंटीबॉडीज़ एक साथ बहुत सारे अंगों पर आक्रमण करती हैं और फिर लूपस, रुमेटॉयड आर्थरायटिस जैसे रोग हो जाते हैं।

कुल मिलाकर कहना यह चाह रहा हूं कि इम्यूनिटी खूब बढ़ा लें लेकिन ये भी ध्यान रहे कि गुल्लक को समय-समय पर खाली भी करना पड़ेगा।

अब इम्यूनिटी को खाली कैसे करेंगे? ट्रेडमिल पर मत दौड़िये, मोबाइल-कंप्यूटर पर सेहत न बनाएं, ऑनलाइन कसरत से बचें, चार दिवारी के बाहर की दुनिया को एक्सप्लोर करने की कोशिश करें। पार्क में जाएं, दौड़ लगाएं, पैदल चलें, फूलों की खुश्बू को महसूस करें, धूल-मिट्टी की गंध का अनुभव लें।

छींक आ जाए तो मान लीजिए कि वायरस, बैक्टिरिया या कोई विदेशी पार्टिकल शरीर के भीतर घुसा और उसको भगाने के लिए इम्यूनिटी ने धावा बोला और छींक के साथ एक झटके में विदेशी मेहमान बाहर और इम्यूनिटी का इस्तेमाल भी हुआ।


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सूक्ष्मजीवी संक्रमण से सर्दी, खांसी, बुखार आते रहते हैं, इनका समाधान केमिस्ट के पास नहीं है, खुले आसमान के नीचे ही है, खोजिये। छींक आना, सर्दी होना, खांसी आना, स्किन पर रेडनेस आना, हल्की फुल्की खुजली होना ये सब यदाकदा होते रहें तो परेशान मत होईयेगा, समझ लीजिएगा कि इम्यूनिटी का गुल्लक खाली हो रहा है और आने वाले किसी ऑटोइम्यून डिसऑर्डर्स (बड़ी समस्या) से दूर रखने में मदद करेगा।

मिट्टी में खेलिये, धूल में सनना शुरु करें, बरसात में भीगना शुरु करें, रेत पर सो कर देखिये, खेत या मैदान में जाकर जमीन पर सटकर लेटिये, नंगे पांव 100 मीटर खुरदुरी मिट्टी या घास के मैदान में चलकर देखिये तो सही, छोटी मोटी चोट से घबराना छोड़िए, धूप को सहना शुरु कीजिये। गरमी में पसीने से तरबतर होना शुरु करें। याद करने की कोशिश करें कि आखरी बार आपकी गर्दन की पीछे से पसीने की एक बूंट पीठ से होती हुयी कमर तक कब गयी थी?

याद न आए तो समझ लीजिएगा कि बहुत दिनों से आपके शरीर ने मेहनत नहीं करी, सिर्फ आपकी आंखें थक रही या आपका दिमाग। शरीर को थकाकर आपको अपने गुल्लक को खाली करना पड़ेगा, खुद को थोड़ा थकाना शुरु करें। जितनी फिक्र अपने शरीर में इम्यूनिटी को बनाने को लेकर करते हैं, उससे ज्यादा फिक्र उसे उपयोग में लाने के लिए भी करें।

हर रोगों से बचाव के टीके लग जाएंगे, कहीं धूल नहीं होगी, खेत खलिहान आप जाएंगे नहीं, फूलों और पेड़ पौधों से दूरी बना लेंगे और मोबाइल, लैपटॉप पर उंगलियों से फुटबॉल, क्रिकेट में दौड़ लगाएंगे तो आप मानसिक रोगी ही बनेंगे। इसे इम्यूनिटी ठीक नहीं कर सकती। इम्यूनिटी का इस्तेमाल करना ही है तो मैदान में आओ, खेत खलिहान में जाओ, कीचड़ से सन जाओ, छींको, खाँसो, आंखे लाल हो जाने दो, थक जाने दो खुद को, मेहनत करके कुटे पिटे हुए सा महसूस करने लगो। यकीन मानिये, तबियत दुरुस्त हो जाएगी।

गांव देहातों में इम्यूनिटी की कौन फिक्र करता है? गांव देहातों में ऑटोइम्यून डिसऑर्डर्स के बारे में कोई जानता भी नहीं, ना किसी को ये सब टीमटाम कभी होता है। आबा-बाबाओं के चक्कर में, व्हाट्सएप्प और सोशल नेटवर्किंग प्लेटफॉर्म्स और गूगल चच्चा से मिली जानकारियों के आधार पर इम्यूनिटी बना तो लेंगे, आप तय करें, इस इम्यूनिटी को खर्च कहाँ करोगे?

किसी दिन आराम से "शनिच्चर की नाइट इज़ बैक" में इसपर चर्चा करेंगे। इम्यूनिटी भी अपना ही आंतरिक मामला है, और ऑटोइम्यूनिटी भी अपना आंतरिक मामला न बन जाए, ये ध्यान रहे बाय द वे,.. फिक्र करें थोड़ी सी। इस अंतिम लाइन तक आपने ईमानदारी से पूरा पढ़ लिया और एकाध सलाह भी मान लिये तो आपको पाप नहीं लगेगा, बाय गॉड की कसम।

लेखक डॉ. दीपक आचार्य हर्बल मेडिसिन और वनवासियों के पारंपरिक हर्बल ज्ञान के जानकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं।

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