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उत्तराखंड में पलायन: जिसने पहाड़ छोड़ दिया वापस नहीं आना चाहता

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बिलखेत, सतपुली (उत्तराखंड)। कमजोर शरीर, झुकी कमर, झुर्रीदार चेहरे से उनके अकेलेपन के दर्द साफ झलकता है, ये हैं नब्बे बरस की बिच्छा देवी जो पिछले कई साल से अपने एक कमरे के गिरते घर में अकेले रहती हैं। बिच्छा देवी की यह हालत पहाड़ी इलाकों में बढ़ रहे पलायन की स्थिति को बयां कर रही है।

बिच्छा देवी उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले के सतपुली ब्लॉक में चारों तरफ से पहाड़ों से घिरे नदी के किनारे घाटी में बसे गाँव बिलखेत में रहती हैं। इनके बेटा और बहु रोजगार की तलाश में कई साल पहले गाँव छोड़ कर गए, फिर बेटे की मौत के बाद बहु कभी वापस नहीं लौट कर आयी। बिलखेत के साठ फीसदी लोग रोजगार और बेहतर सुविधा की तलाश में गाँव छोड़कर जा चुके हैं।

बिच्छा देवी अपनी स्थानीय भाषा गढ़वाली में कहती हैं, “अब कोई नहीं आता, सब चले गए, घर गिर रहा कोई देखने वाला नहीं है, किसी तरह रह रही हूं।” 

अपने एक मकान के गिरते घर के सामने बैठी नब्बे बरस की बिच्छा देवी, जिसके सामने थोड़ी सी जगह में वो सब्जियां भी उगा लेती हैं।

अपने एक मकान के गिरते घर के सामने बैठी नब्बे बरस की बिच्छा देवी, जिसके सामने थोड़ी सी जगह में वो सब्जियां भी उगा लेती हैं।

उत्तराखंड सरकार के ग्राम्य विकास और पलायन आयोग की सितम्बर, 2019 में जारी रिपोर्ट के अनुसार पिछले 10 वर्षों में 6338 ग्राम पंचायतों से कुल मिलाकर 3,83,726 लोग पलायन कर गए, जो अभी भी कभी-कभी गाँव में आते हैं। इनमें से 3946 ग्राम पंचायतों के 1,18,981 ऐसे लोग हैं जो पूरी तरह से रोजगार की तलाश में पलायन कर गए और फिर वापस लौट कर नहीं आए।

गाँव में कुछ परिवारों में से एक महिमानंद का भी परिवार है, जो गाँव छोड़ना तो चाहते हैं लेकिन छोड़ नहीं पा रहे हैं। अपने टूटी छत को दिखाते हुए वो गुस्से में कहते हैं, “मेरा घर टूट रहा है, एक-दो बरसात में ये घर पूरी तरह गिर जाएगा अभी इसी में रह रहे हैं हम अगर ये टूट जाएगा तो कहां जाएंगे हम, हम भी जाने वाले हैं बहुत जल्द गाँव छोड़कर, हमारे थोड़ा पैसा हो जाए बस, तो हम भी यहां से फूट जाएंगे, उस जगह पर हमारे रहने का मतलब नहीं है, जहां पर शिक्षा नहीं है रोजगार भी नहीं है तो करना ही क्या है अब यहां।”

साल 2011 की जनगणना के अनुसार सबसे कम आबादी वाले गाँव पौड़ी जिले में ही हैं। पिछले दस वर्षों में पौड़ी जिले के 112 ऐसे गाँव हैं, जहां के 50 प्रतिशत लोग गाँव छोड़कर चले गए हैं, जबकि दूसरे नंबर पर अल्मोड़ा जिला है जहां के 80 गाँवों में 50 प्रतिशत से ज्यादा लोग गाँव छोड़कर चले गए हैं।

जिला

कुल गाँव/लोक/मजरा

उत्तरकाशी 63
चमोली 18
रुद्रप्रयाग 23
टिहरी गढ़वाल 71
देहरादून 42
पौड़ी गढ़वाल 112
पिथौरागढ़ 45
बागेश्वर 37
अल्मोड़ा 80

चम्पावत                    44                           
नैनीताल 14
उधम सिंह नगर 9
हरिद्वार 7

बिलखेत गाँव के जिस नीले रंग के दो मंजिला मकान में मनोरमा देवी का परिवार रहता है, कुछ साल पहले तक दो परिवार और रहा करते थे, आज मनोरमा देवी अपने पति, सास और दो बच्चों के साथ रहती हैं। शिक्षा सही व्यवस्था भी न होना लोगों के पलायन का एक कारण है। रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड के 15.21 लोग ऐसे हैं, जिन्होंने सिर्फ अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए पलायन किया और पीछे छोड़ गए खंडहर।

मनोरमा देवी जिस दो मंजिला मकान में रहती हैं, कुछ साल पहले तक इसमें तीन परिवार रहते थे, अब बस इन्हीं का परिवार बचा है।

मनोरमा देवी जिस दो मंजिला मकान में रहती हैं, कुछ साल पहले तक इसमें तीन परिवार रहते थे, अब बस इन्हीं का परिवार बचा है।

राज्य में पलायन करने वाले कुल लोगों में से, रोजगार की तलाश में सबसे अधिक 50.16 प्रतिशत लोग पलायन कर गए, इसके बाद 15.21 प्रतिशत लोगों ने शिक्षा के लिए पलायन किया।

मनोरमा देवी अपने गाँव के कुछ दूर के इंटर कॉलेज के बारे में कहती हैं, “यहां इंटर कॉलेज में टीचर नहीं हैं, तीन-चार साल पहले जो टीचर गए वो वापस लौटकर नहीं आए, यहां कोई टीचर आना ही नहीं चाहता हैं, जो आता है तीन-चार महीने में छोड़कर चला जाता है। जो पैसे वाले लोग थे वो तो अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए पलायन कर गए, अब जो गरीब लोग हैं वो कहां जाएंगे।”

रोजगार की तलाश में कई साल पहले गाँव छोड़कर गए विनोद पिछले बारह साल से नोएडा में रह रहे हैं। वो बताते हैं, “जब गाँव में कुछ करने को बचा नहीं तो हमें भी जाना पड़ा, यहां रहकर क्या करते, मेरी उम्र के जितने भी लोग हैं सब गाँव छोड़कर जा चुके हैं और जो हमारे बाद की पीढ़ी है उनमें से कई लोग ने तो गाँव और खेत ही नहीं देखा है।”

उत्तराखंड के उत्तरकाशी के जिले के नाथेर गाँव के जयदेव राणा बताते हैं, “आज भी गाँव जाने के लिए कोई सड़क नही है रोज पांच किलोमीटर पहाड़ चढ़ना-उतरना पड़ता है, पहाड़ी गांवो में पानी की भी बहुत ज्यादा दिक्कत आती है घोड़े-खच्चरों के माध्यम से पानी लाया जाता है या अब जिन गांवो तक सड़कें बन गयी है वहां पानी के टैंकर भी पहुंच जाते हैं।”

इस घर में भी पहले कई परिवार रहा करते थे, लेकिन अब बस खंडहर होते घर बचे हैं।

पलायन के मुद्दे पर जयदेव राणा आगे कहते हैं, “रोजगार के लिए पढ़ा-लिखा अधिकांश वर्ग गाँव से बाहर रहकर प्राइवेट नौकरी कर रहे है ये युवा या तो उत्तराखंड के शहरी क्षेत्र या उत्तराखंड के बाहर जहां काम मिल जाये काम की तलाश में निकल जाते है और कभी साल-छह महीने में गाँव पहुच पाते हैं। ऐसे करके अगर देखा जाए तो उत्तराखंड के गांवो से पचास से साठ फीसदी लोग बेहतर भविष्य की तलाश में पलायन कर चुके हैं।”

चारों तरफ से पहाड़ी से घिरे नदी के किनारे घाटी में बसा बिलखेत खेती के लिए जाना जाता था। यहां की उपजाऊ जमीन में आलू, धान, राजमा और गेहूं की खेती होती थी। लेकिन अब सारे खेत खाली हैं। जो गाँव छोड़कर गया उसकी खेत तो खाली हुए ही, उन्होंने घरों में ताला लगाकर अपने जानवरों को छोड़ दिया, जिससे बचे लोग भी अब खेती नहीं कर पा रहे।

अखिल भारतीय किसान महासभा के मुताबिक वर्ष 2016-17 में पर्वतीय क्षेत्रों में मात्र 20 फीसदी कृषि भूमि थी, बाकी या तो बंजर छोड़ दी गई या फिर कमर्शियल उद्देश्यों के चलते बेच दी गई। महासभा का मानना था कि जंगली जानवरों द्वारा फसलों को नुकसान पहुंचाना एक बड़ी समस्या है। राज्य में मात्र 7,84,117 हेक्टेयर क्षेत्र में कृषि उत्पादन होता है। जबकि राज्य की 90 फीसदी आबादी आजीविका के लिए खेती पर ही निर्भर करती है। इसमें भी सिर्फ 12 फीसदी ज़मीन पर सिंचाई की व्यवस्था है, बाकि वर्षा आधारित खेती करते हैं।”

महिमानंद आगे कहते हैं, “पहले हमारे यहां बहुत खेती होती थी, लेकिन जैसे जैसे लोग गाँव छोड़कर गए अपने गाय-बछड़ों को भी छोड़कर चले गए, जहां देखो गाय-बछड़े ही दिखते हैं। लोगों ने घरों में ताला लगाकर अपने जानवरों को छोड़कर चले गए।”

वहीं पौड़ी गढ़वाल जिले के दुगड्डा गाँव के किसान किसान मुकेश कहते हैं, “हम लोग यहां धान-गेहूं उगाते हैं, यहां पर आठ-दस साल से हाथी बहुत नुकसान पहुंचा रहे हैं और बंदर तो लगातार ही आ रहे हैं, अब खेती में कुछ हो नहीं रहा है तो लोग पलायन करेंगे ही।” 

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