पूरे भारत में आज उत्सव का माहौल है, क्योंकि आज रक्षा बंधन का त्योहार है, जिसमें बहनें अपने भाइयों की कलाई पर राखी का धागा बांधती हैं, उनके लंबे और स्वस्थ जीवन के लिए प्रार्थना करती हैं।
नक्सलियों के लिए बदनाम छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल बस्तर जिले में आदिवासी महिलाएं इस बार बहुत खुश हैं। ये महिलाएं रक्षा बंधन का त्योहार तो नहीं मनाती हैं, लेकिन पिछले एक महीने की उनकी कड़ी मेहनत कई कलाइयों में सजने और भाइयों और बहनों के बीच प्यार का प्रतीक बनने के लिए तैयार हैं।
“हमें राखी और ज्वेलरी बनाने की ट्रेनिंग दी गई है। हमें समूहों में काम करने और कुछ नया बनाना अच्छा लगता है। इसके साथ ही कमाई करके भी अच्छा लगता है,”रोटामा गाँव की रहने वाली चमेली नाग ने राखी के धागे में पत्थर बाँधते हुए गाँव कनेक्शन को बताया।
पिछले एक महीने से हर सुबह बस्तर जिले की आदिवासी महिलाएं घर का जरूरी काम निपटाकर अपने घरों से निकलकर दिनभर रंग-बिरंगी राखियां बना रही हैं। यहां की एक स्थानीय गैर-लाभकारी संस्था इन महिलाओं को आजीविका कमाने में मदद करने के लिए प्रशिक्षण दे रही है।
“ये महिलाएं राखी बनाने के लिए स्थानीय बांस का उपयोग करती हैं, जो पर्यावरण के अनुकूल हैं लेकिन आधुनिक डिजाइन हैं, “छत्तीसगढ़ में आदिवासी लोगों आजीविका के लिए काम करने वाली एक गैर-लाभकारी संस्था आर्य प्रेरणा समिति के संस्थापक मोहित आर्य ने गांव कनेक्शन को बताया।
“बस्तर में, कई तरह के बांस मिल जाते हैं। बस्तर का शिल्प मर रहा था। हम इस शिल्प को पुनर्जीवित करना चाहते थे और बस्तर के कारीगरों के को सम्मान और कुछ काम दिलाना चाहते थे, “आर्य ने कहा। उन्होंने कहा, “और बांस से राखी बनाने के कला ने इसे पूरा कर दिया।”
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उनके अनुसार आदिवासी महिलाओं को राखी बनाने की ट्रेनिंग देने की यह परियोजना भी बस्तर के केवल नक्सल प्रभावित जिले के रूढ़िवादिता को तोड़ने का मौका है। पिछले 21 वर्षों से आदिवासी समुदायों के साथ काम कर रहे आर्य ने कहा, “हम देश को बस्तर की सुंदरता दिखाना चाहते हैं।”
कभी खेतों में मजदूरी करने वाली महिलाएं आज उद्यमी हैं
जिला प्रशासन और गैर-लाभकारी संस्था के संयुक्त प्रयास ने इन आदिवासी महिलाओं को काम मिला। उन्हें बांस से राखी बनाने का प्रशिक्षण दिया गया।
इस पहल से जिले के रोटामा और नारायणपुर गांवों की कम से कम 30 आदिवासी महिलाएं फायदा हुआ। इन इको-फ्रेंडली राखियों को बनाकर हर महिला 6,000 रुपये से 10,000 रुपये हर महीने कमाने में कामयाब रही। हर एक महिला को एक दिन में कम से कम 20 राखी बनाने का लक्ष्य दिया गया था।
इन महिलाओं को हर दिन के टारगेट से ज्यादा काम करने पर और पैसा भी दिया। उदाहरण के लिए, उन्हें एक दिन में 20 राखियां बनाने के लिए 150 रुपये, अतिरिक्त 10 राखियों के लिए 75 रुपये (कुल 30) और 40 राखियों के लिए 300 रुपये मिलते हैं।
“हम लोग को इनकम मिल रहा है तो अच्छा लग रहा है” , एक आदिवासी महिला, जो राखी बनाने वाले समूह का हिस्सा है, ने गाँव कनेक्शन को बताया।
“पहले ये महिलाएं खेती करती थीं और खेतों में मेहनत-मजदूरी का काम करती थीं। अब इन्हें धूप में काम नहीं करना पड़ता और अपने पसंद का काम भी मिल गया है, “जगदलपुर निवासी उमा नेगी, जो आदिवासी महिलाओं को प्रशिक्षण देती हैं, ने गांव कनेक्शन को बताया।
40 वर्षीय ने बताया कि राखी बनाना एक कठिन काम है। “यह आसान काम नहीं है। महिलाओं को कच्चे बांस से महीन धागों को अलग करना पड़ता है। डिजाइन बनाने के लिए धैर्य और बहुत बढ़िया काम आना चाहिए। बांस के चारों ओर धागे लपेटने के बाद, इन्हें आधुनिक डिजाइन, रंगीन, सूखे और गाँठ वाले पत्थर दिए जाते हैं, “उन्होंने कहा।
राखी के अलावा, इन महिलाओं को ज्वेलरी बनाने के लिए ट्रेनिंग दी जाती है और हैंडीक्राफ्ट बनाने के लिए स्थानीय रूप से उपलब्ध बांस का उपयोग करने के क्रिएटिव आइडिया दिया जाता है।
ये आदिवासी महिलाएं बस्तर के उत्पादों और इसके हैंडीक्राफ्ट को नया आयाम दे रही हैं। जैसा कि बताया गया, इस पहल से नियमित कारीगरों को सशक्त बनाने में मदद मिल रही है, नहीं तों वो अपने परंपरिक काम को छोड़ रहे थे।
कैसे मिलता है बाजार
आदिवासी महिलाओं द्वारा बनाई गई इन इको-फ्रेंडली राखियों को जिले के जगदलपुर शहर के स्थानीय बाजार में स्टालों पर बेचा जा रहा है। यह जनजातीय उत्पादों जैसे हस्तशिल्प, हथकरघा और लघु वन उपज के लिए एक सामाजिक मंच जनजातीय टोकनी द्वारा समर्थित है।
“हम ट्राइबल टोकनी के सहयोग से काम कर रहे हैं, जो इन राखियों के विपणन पर काम कर रहा है। हमें कुछ ऑनलाइन ऑर्डर भी मिले, “आर्य ने कहा।
ग्रामीण आदिवासी महिलाओं द्वारा बनाए गए हस्तनिर्मित उत्पादों को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिए हाल ही में गैर-लाभकारी संस्था ने अमेज़ॅन और फ्लिपकार्ट के साथ पंजीकृत किया।
“हम उत्पादन स्तर बढ़ाने पर जोर दे रहे हैं। ये आदिवासी महिलाएं अच्छे प्रोडक्ट बनाती हैं, लेकिन उनको बेचना सबसे मुश्किल काम है।हमारा लक्ष्य आदिवासी दीदियों को एक बेहतर बाजार देना चाहते हैं, “उन्होंने कहा।
आर्या ने बताया कि पिछले साल धमतरी जिले में इको-फ्रेंडली राखियां बेचकर 16 लाख रुपये की रिकॉर्ड बिक्री की गई थी। इससे 60 स्वयं सहायता समूहों से जुड़ी महिलाओं को फायदा हुआ।
“बिक्री अच्छी है। लोग हमसे पूछ रहे हैं कि क्या राखी के बाद भी हमारा स्टॉल रहेगा। ग्राहक पत्थरों और मोतियों से बनी राखी खरीदकर ऊब चुके हैं, जिसकी कीमत चालीस रुपये प्रति पीस से ज्यादा है। हमने उन्हें एक नई तरह की राखी दी है और हमारी बांस की राखियों की कीमत केवल बीस रुपये है, “नेगी ने कहा, जो स्थानीय बाजार में ड्यूटी पर थी, जब वह फोन पर गांव कनेक्शन से बात कर रही थी।
इन आदिवासी महिलाओं की कोशिशें सिर्फ रक्षा बंधन से ‘बंधी’ नहीं हैं। आगे वो बांस के लैम्प और ज्वेलरी बनाने वाली हैं।
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— SlowBazaar (@SlowBazaar) August 11, 2021