"दिन में एक सिगरेट पीने से उम्र छह साल कम हो जाती है, हम तो 24 घंटे धूल में सांस लेते हैं"

चाहे अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो या वाराणसी में विश्वनाथ कॉरिडोर का, या फिर लखनऊ में राजनीतिक नेताओं को समर्पित स्मारक, प्रतिष्ठित गुलाबी बलुआ पत्थर में मिर्जापुर के योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। लेकिन मुश्किल ये है कि इस पत्थर की कीमत जिले के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों को चुकानी पड़ रही है। ग्रामीण टीबी और सांस की कई तरह की बीमारियों से पीड़ित हैं। पत्थर खनन के चलते ये पूरा इलाका एक जहरीले धूल के कटोरे में बदल गया है। पढ़िए 'क्या कहता है गाँव' सीरीज की ग्राउंड रिपोर्ट।

Brijendra DubeyBrijendra Dubey   4 March 2022 8:09 AM GMT

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मड़िहान/अहरौरा (मिर्जापुर), उत्तर प्रदेश। जहां तक नजर जाएगी धूल ही धूल नजर आएगी। आंखों में मचती जलन और त्वचा पर जमी धूल की परत इस इलाके की पूरी कहानी बयां कर देती है। हवा में तैरते पत्थरों के बारीक कणों के साथ घने भूरे धूल के बादल हर सांस के साथ फेफड़ों में अंदर तक चले जाते हैं। कहने को तो उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले का ये इलाका पहाड़ियों से ढका हुआ है लेकिन यहां दूर-दूर तक हरियाली नजर नहीं आएगी। सालों से पत्थरों की तलाश में किए जा रहे विस्फोटों ने इन्हें बंजर बना दिया है। कुछ पहाड़ियां तो ऐसे गायब हो गई हैं जैसे वहां कोई एक उल्कापिंड गिरा हो। रह गया है तो बस नीले और हरे पानी से भरा गड्ढा।

दूर से देखने पर जमीन पर कुछ पीले धब्बे दिखाई देंगे जो दरअसल जेसीबी मशीनें हैं। राज्य की राजधानी लखनऊ से लगभग 300 किलोमीटर दूर मिर्जापुर की मरिहान तहसील में पहाड़ियों पर जो कुछ बचा है, उसे जेसीबी मशीनें तेजी से खोदती और खनन करती रहती हैं। चेहरे को गमछा की दोहरी परत से ढकने के बावजूद नाक और गले में लगातार खुजली और जलन पैदा करने वाली इस जहरीली धूल में सांस लेना बड़ा ही मुश्किल है।

"वे कहते हैं कि रोजाना एक सिगरेट पीने से किसी की उम्र छह साल कम हो जाती है। हमारा क्या? हम तो दिन के चौबीसों घंटे धूल में सांस लेते हैं।" मरिहान तहसील के सोनपुर गांव के रहने वाले 26 साल के जटाशंकर पांडे शिकायती लहजे में कहते हैं। उन्होंने कहा कि यहां पैदा होने वाले बच्चों के भविष्य के बारे में सोचें, जो जन्म के तुरंत बाद से प्रदूषित हवा में सांस लेने लगते हैं।

चाहे वह अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो, वाराणसी में विश्वनाथ कॉरिडोर, या लखनऊ में राजनीतिक नेताओं को समर्पित स्मारकों का समूह, इन्हें बनाने के लिए जिस प्रतिष्ठित गुलाबी बलुआ पत्थर का इस्तेमाल किया जाता है, उसका एक बड़ा हिस्सा मिर्जापुर की खदानों से आता है।

वाराणसी में विश्वनाथ कॉरिडोर और लखनऊ में स्थित अंबेडकर मेमोरियल पार्क में गुलाबी बलुआ पत्थर लगाए गए हैं। फोटो: पीएमओ-ट्विटर/वीकिपीडिया कॉमन्स

जिले के मड़िहान (Marihan मरिहान) और अहरौरा तहसीलों की खदानों से बलुआ पत्थर का खनन और आपूर्ति दूर-दूर तक की जाती है। शहरों और स्मारकों को खूबसूरत बनाने वाले इस पत्थर की खादानों ने ग्रामीणों को अस्थमा, सिलिकोसिस, तपेदिक और सांस संबंधी ढेरों बीमारियों के मुहाने पर ला खड़ा किया है।

इन दोनों तहसीलों में 50,000 से ज्यादा ग्रामीणों की आबादी रोजाना धूल भरी हवा में सांस लेती है। शायद ही कोई ऐसा घर हो, जिसके परिवार का कोई सदस्य सांस की बीमारी से पीड़ित न हो। पांडे के माता-पिता दोनों सिलिकोसिस के मरीज हैं। ये फेफड़ों की एक बीमारी है जो सांस के साथ सिलिका के बारीक टुकड़ों के फेफड़ों में जाने से होती है। सिलिका रेत, क्वार्ट्ज और अन्य कई प्रकार की चट्टानों में पाया जाने वाला एक सामान्य खनिज है।

उत्तर प्रदेश में सात चरणों में हो रहे चुनावों में, मिर्जापुर जिले में अंतिम चरण यानी सात मार्च को मतदान होना है। जिले में खनन गतिविधियों को लेकर नेता एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने में लगे हैं।

समाजवादी पार्टी के जिला प्रभारी अभय यादव ने गांव कनेक्शन को बताया, "सरकार खनन माफियाओं का बचाव कर रही है। खनन गांवों के इतने नजदीक हो रहा है कि स्थानीय लोग सिलिकोसिस और टीबी जैसी बीमारियों से मर रहे हैं।" उनके अनुसार, मिर्जापुर में अवैध खनन की अनुमति देने के लिए सत्तारूढ़ दल (भारतीय जनता पार्टी) जिम्मेदार था। उन्होंने आश्वासन देते हुए कहा, " अगर हम सत्ता में आएं, तो पार्टी पट्टे के लिए अनुमत क्षेत्र से आगे खनन को रोकने के लिए आवश्यक कदम उठाएगी।"

इस बारे में बात करने के लिए जब हमनें मिर्जापुर की मड़िहान विधानसभा सीट से भाजपा विधायक और ऊर्जा राज्य मंत्री रमा शंंकर पटेल सेे संपर्क किया जो उन्होंने से इनकार कर दिया।

मडिहान और अहरौरा तहसील के निवासियों के अनुसार चुनावों से उनकी स्थिति में कभी कोई बदलाव नहीं आया है।


सोनपुर गांव के रहने वाले 28 साल के बुधराम बिंद ने गांव कनेक्शन को बताया, "आप देख सकते हैं, खदानों से निकलने वाली धूल हमारे पूरे घर में अटी पड़ी है। हम जो कुछ भी छूते हैं, खाते हैं और सांस लेते हैं, वह धूल से भरा होता है। " वह आगे कहते हैं, "खदान हमारे इतने करीब हैं कि कई बार जब चट्टानों में विस्फोट किया जाता है, तो इनके टुकड़े हमारी हमारी छतों पर आकर गिर जाते हैं।"

पांडे ने कहा कि अब गांव वालों ने नेताओं के चुनाव के समय किए गए वादों और आश्वासनों पर विश्वास करना बंद कर दिया है," राजनेताओं की दिलचस्पी सिर्फ वोट मांगने तक होती है। चुनाव होने के बाद कुछ नहीं होता है।"

जहां कभी जंगल होते थे, अब हैं बंजर पहाड़ियां

मिर्जापुर की अहरौरा और मरिहान तहसीलें विंध्य पर्वत श्रंखला से ढ़की हुई हैं। विंध्याचल पर्वत श्रेणी पहाडियों की टूटी-फूटी श्रंखला है, जो गुजरात के पूर्वी भाग, राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के दक्षिणी क्षेत्र को कवर करते हुए देश के मध्य भागों में फैली हुई है।

लाल बलुआ पत्थर के लिए उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर और सोनभद्र जिलों में इन पहाड़ियों का बड़े पैमाने पर खनन किया जाता है।

क्षेत्र में पर्यावरण संरक्षण के लिए संघर्ष कर रहे अहरौरा निवासी पारस यादव ने गांव कनेक्शन को बताया कि खनन ने इन इलाकों के जंगलों और वन्य जीवों को खत्म कर दिया है। उन्होंने कहा, "यह सब 1960 के दशक में शुरू हुआ था। जंगलों को खनन के लिए काटा गया और उसका नतीजा यह हुआ कि अब हम केवल धूल और प्रदूषण के साथ रह गए हैं।"

विंध्य बचाओ आंदोलन से जुड़े पर्यावरण कार्यकर्ता देवदत्य सिन्हा, ग्रामीणों से पूरी तरह सहमत हैं। उन्होंने कहा, "इन दो तहसीलों में कभी हरे-भरे जंगल हुआ करते थे, जो पड़ोसी चंदौली जिले में स्थित चंद्रप्रभा वन्यजीव अभयारण्य से जुड़े थे। लेकिन खनन गतिविधियों ने इन सभी जंगलों को तबाह कर दिया।"


सिन्हा ने गांव कनेक्शन को बताया, "इन जंगलों में कभी तेंदुए और भालू जैसे जानवर पाए जाते थे लेकिन खनन शुरू होने के बाद वे गायब हो गए। ये इलाका अब एक बंजर जमीन है। अहरौरा में खनन ने क्षेत्र में वन्यजीवों को बुरी तरह प्रभावित किया है। "

2018 में प्रकाशित उत्तर प्रदेश भूविज्ञान एवं खनन विभाग की जिला सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2017-18 में मिर्जापुर में बलुआ पत्थर निकालने के लिए खनन गतिविधियों के लिए 674.37 हेक्टेयर क्षेत्र का इस्तेमाल किया जा रहा था।

मिर्जापुर में राज्य के खान एवं भूविज्ञान विभाग के पर्यावरण अधिकारी केके रे ने गांव कनेक्शन को बताया कि जिले में लगभग 250 खदानें लीज पर दी गई हैं। जब उनसे जिले में अवैध खदानों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा, "मैं फिलहाल चुनाव ड्यूटी में व्यस्त हूं। आपके साथ और जानकारी साझा नहीं कर पाऊंगा। ज्यादा जानकारी के लिए आप एक आरटीआई (सूचना का अधिकार) दायर कर सकते हैं।"

अवैध खनन, एक बड़ी समस्या

स्थानीय ग्रामीणों का कहना है कि ये संख्या तो काफी कम है। जिले में 250 से ज्यादा खदानें हैं। उनके अनुसार, खादानों का एक बड़ा हिस्सा अवैध रूप से संचालित किया जाता है।

पर्यावरण कार्यकर्ता सिन्हा ने बताया कि यहां खदान ठेकेदार ग्रामीणों को अपनी जमीन बेचने का लालच देते हैं और फिर उस जमीन पर अवैध रूप से खनन गतिविधि की जाती है। कार्यकर्ता ने कहा, " यही वजह है कि जिले में खनन क्षेत्र सरकार द्वारा आवंटित कानूनी पट्टे से अधिक हैं।"

सोनपुर पहाड़ी पर रहने वाली पुष्पा देवी कहती हैं, " यहां चलने वाली सभी खनन गतिविधियां हमारे लिए बहुत खतरनाक है। लेकिन पूरी व्यवस्था रिश्वत पर चलती है। ग्रामीणों की सुरक्षा की सुध लेने वाला कोई नहीं है।" पहाड़ियों पर विस्फोट और खनन के कारण बने पानी के एक बड़े पूल की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा, "अधिकारी आते हैं और चले जाते हैं। लेकिन खनन कभी नहीं रुकता। जहां पर खदान खोदी गई है, आप जरा उसकी गहराई को देखिए ! बच्चे अकसर यहां खेलते हैं और इसके अंदर गिरकर मर सकते हैं। यह हमारे बच्चों के लिए कितनी असुरक्षित है।"

गांव में रहने वाले 26 साल के पांडे बताते हैं, "पर्यावरण का कोई भी हिस्सा ऐसा नहीं है जो खदानों से प्रभावित नहीं हुआ हो। हम जिस पानी को पीते हैं, जिस हवा में सांस लेते हैं, सब कुछ तो धूल भरा है। चट्टानों को तोड़ने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले बारूद के लगातार विस्फोट से यहां रहना बहुत मुश्किल हो रहा है।"


उन्होंने शिकायत करते हुए कहा, "खदान में चल रही भारी मशीनरी का लगातार शोर भी परेशान कर रहा है। जल, वायु और ध्वनि प्रदूषण हर जगह है। "

खान सुरक्षा महानिदेशालय के अनुसार, खदानों और खानों में सभी ब्लास्टिंग गतिविधियों को बस्ती से कम से कम 300 मीटर की दूरी पर किया जाना है। लेकिन बिंद और पांडे की सोनपुर गांव में बनी उनकी झोपड़ियां खदानों से 100 मीटर से भी कम दूरी पर है। उन्हें डर है कि एक दिन खदानें उनके घरों को भी अपनी चपेट में ले लेंगी।

बिंद ने बताया, "दिन-रात खनन गतिविधियां चलती रहती हैं। दिन में किए जाने वाले तेज़ विस्फोट हवा को चीरते हुए उनके कानों तक पहुंचते हैं, तो वहीं रात में भारी मशीनें विस्फोटित चट्टानों के टुकड़ें करने में लगी रहती हैं। हम सो नहीं पाते हैं।"

जिंदगी बनाम कमाई का जरिया

2017 की 'उत्तर प्रदेश के विंध्य क्षेत्र में स्थानीय आबादी की आजीविका पर खनन और खनन नीतियों के सामाजिक आर्थिक प्रभाव अध्ययन' नामक एक रिपोर्ट के अनुसार, मिर्जापुर में 23 प्रतिशत कार्यबल खदानों में मजदूरों के रूप में काम कर रहा है।

नीति (नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया) आयोग द्वारा प्रदान किए गए शोध अनुदान पर देहरादून स्थित भारतीय वानिकी अनुसंधान और शिक्षा परिषद ने अध्ययन प्रकाशित किया था। इसमें कहा गया है कि लगभग सभी खदानों में जहां खुदाई की गई है, जिसमें गड्ढों की खुदाई और पहाड़ी की खुदाई शामिल है, वे इन इलाकों को एक बेहद खतरनाक लैंडस्केप में बदलने के लिए जिम्मेदार हैं।

अध्ययन में आगे कहा गया है, "इससे बड़े पैमाने पर मिट्टी की बर्बादी होती है। इस तरह की खदानों से काफी क्षेत्र में जमीन की सतह नष्ट हो जाती है, और जो कुछ पीछे रह जाता है वो है खोखली जमीन, जो भूस्खलन, कटाव, गाद और प्रदूषित पानी का कारण बनती है।"

अध्ययन के अनुसार, "खदानों/गड्ढों का निर्माण और खनन कार्यों के दौरान बनाई गई कृत्रिम पहाड़ियां यानी जरूरत से ज्यादा तलछट का जमाव क्षेत्र में एक बड़ी समस्या है।" अध्ययन में कहा गया है कि खनन गतिविधि बंद होने के बाद आमतौर पर ऐसी जमीन बेकार हो जाती है और इससे आगे भी पर्यावरणीय समस्याएं पैदा हो सकती हैं।

अध्ययन में यह भी पाया गया कि लगभग 65 प्रतिशत लोग अपनी आजीविका के लिए खनन पर निर्भर थे जबकि 35 प्रतिशत अपनी आजीविका के लिए अन्य स्रोतों पर निर्भर थे।

अध्ययन बताता है "जहां तक ​​खनन पर निर्भरता का सवाल है, इसमें से लगभग 65 प्रतिशत लोग मजदूर के रूप में, 18 प्रतिशत ट्रांसपोर्टर के रूप में, 4 प्रतिशत खदान के मालिक के रूप में और 21 प्रतिशत बिचौलिए या विक्रेता के रूप में खनन गतिविधियों में शामिल रहे थे।"

खनन से सेहत पर पड़ता असर

सोनपुर गांव में पांडे के घर से कुछ मीटर की दूरी पर धर्मजीत रहते हैं। वह पास की एक खदान में मजदूर हैं और तपेदिक जैसी बीमारी से जूझ रहे हैं। अपने परिवार में वही अकेले कमाने वाले हैं। धर्मजीत ने बताया कि उन्होंने राजगढ़ सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (CHC) में अपनी बीमारी का कुछ समय तक तो इलाज कराया था, लेकिन वह काम छोड़कर बार-बार स्वास्थ्य केंद्र का चक्कर नहीं लगा सकते थे इसलिए वह इलाज पूरा नहीं करा पाए।

उन्होंने कहा, "मेरा परिवार मेरी कमाई पर निर्भर है। मुझे एक दिन की दो सौ रुपये मजदूरी मिलती है। मैं ज्यादा दिन की छुट्टी नहीं लेना चाहता। दवाओं से मुझे थोड़ी राहत तो मिलती है, लेकिन मैं अपना पूरा इलाज नहीं करवा पा रहा हूं।'

राजगढ़ सीएचसी के प्रभारी डीके सिंह ने माना कि इन इलाकों में रहने वाले लोगों में सांस की बीमारियां बढ़ रही हैं।

सिंह कहते हैं, "सिलिकोसिस जैसी बीमारियों का इलाज वाराणसी के बड़े अस्पतालों में किया जाता है। हम तपेदिक और अस्थमा जैसी सांस की अन्य बीमारियों के मरीजों की देख-रेख करते हैं। यहां मरिहान और राजगढ़ के कुल 218 मरीज टीबी का इलाज करा रहे हैं।

मरीजों की संख्या को ये आकलन पूरी तरह से सही नहीं है। ग्रामीणों और स्थानीय कार्यकर्ताओं दोनों का दावा है कि सांस की बीमारियों से पीड़ित मरीजों की वास्तविक संख्या बहुत ज्यादा है। पैसों की तंगी के चलते गांव के अधिकांश लोग अपना इलाज कराने नहीं जा पाते हैं। डॉक्टर के पास न जाने का एक बड़ा कारण इस बीमारी को ठीक होने में लगने वाला समय भी है।


गांव के लोग जिन हैंडपंपों का इस्तेमाल करते हैं, खुदाई और खनन कार्यों के कारण उसका पानी भी दूषित हो गया है। सोनपुर गांव की रहने वाली 60 वर्षीय मंजू ने कहा, " लगभग 15 साल पहले साफ पानी पीने को मिला करता था। आज जो पानी हम पानी पी रहे हैं वह अक्सर गंदा होता है।"

मंजू ने गांव कनेक्शन को बताया कि सिर्फ पानी ही नहीं, सोनपुर पहाड़ी, जहां वह रहती है, वहां बिजली भी नहीं है।

वह कहती है, "बिजली के बल्ब की रोशनी में मेरा घर कैसा दिखता है, मैंने आज तक नहीं देखा। हम रात में डीजल से डिबिया जलाते हैं।"

मंजू के लिए यह चुनाव भी बाकी चुनावों की तरह ही हैं। वह कहती हैं, "कोई भी राजनेता कभी हमसे मिलने नहीं आता। यह ऐसा है जैसे हमारे लिए कोई सरकार ही नहीं है। मुझे नहीं लगता कि यह चुनाव कुछ भी बदलने वाला है।"

खदान से उठने वाले धूल के गुबार को फैलने से रोकने के लिए किए गए उपायों के बारे में जब पूछा गया तो, खनन के एक प्लांट मैनेजर अभय सिंह ने गांव कनेक्शन को बताया कि खनन के समय खदान में लगे छोटे फव्वारे समय-समय पर धूल को दबाने के लिए पानी का छिड़काव करते रहते हैं। हालांकि, उन्होंने खदान कर्मियों के लिए किए गए सुरक्षा उपायों पर कोई टिप्पणी नहीं की।

इस बीच, पर्यावरण शोधकर्ताओं ने बेपरवाही से हो रहीं इस तरह के खनन गतिविधियों के कारण एक पर्यावरणीय आपदा की चेतावनी दी है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के इंस्टीट्यूट ऑफ एनवायरनमेंट एंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट में प्रोफेसर विजय कृष्ण ने गांव कनेक्शन को बताया, "खानों से निकलने वाले अवशेषों का अगर सही तरीके से निबटारा नहीं किया जाता, तो वे बहकर नदियों में चले जाते हैं और तलछट बन जाते हैं। इससे नदियों का स्तर बढ़ जाता है। ऐसे में बाढ़ और भी ज्यादा भीषण और विनाशकारी हो जाती है।"

उन्होंने कहा, " नदियों में अशुद्धियों की मौजूदगी, नदियों में रहने वाले सभी जीवों के लिए घातक है।"

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