कुनौरा (उत्तर प्रदेश)। शिक्षक दिवस पर आज आपको गांव के एक बहुत खास स्कूल के बारे में बता रहे हैं, वो स्कूल जिसने ग्रामीण इलाके के हजारों छात्र-छात्राओं की जिंदगियां बदलीं। वो स्कूल जिसके खुलने के बाद इस इलाके की लड़कियों ने सपने देखने शुरु किए। छप्पर में शुरु हुआ वो स्कूल जिसके लिए एक भू वैज्ञानिक ने कनाडा की अपनी डॉलर में मिलने वाली सैलरी और सुख सुविधा वाली जिंदगी छोड़ी थी।
उत्तर प्रदेश की राजनधानी लखनऊ से 35 किमी दूर अपने गाँव कुनौरा में स्कूल खोलने के लिए एक भू-वैज्ञानिक ने कनाडा में अपनी सुख सुविधा की ज़िंदगी छोड़ दी।
आज से 47 साल पहले वर्ष 1972 में भूवैज्ञानिक डॉ. एसबी मिश्र ने अपनी विदेशी की नौकरी छोड़कर अपने गाँव में एक स्कूल खोला। गाँव में एक छप्पर के नीचे लकड़ी के ब्लैक बोर्ड से शुरू हुई इस स्कूल की यात्रा आज ऑनलाइन क्लास तक पहुंच गई है। यहां हर साल करीब छह से सात सौ बच्चे एक साथ पढ़ाई करते हैं।
भू-वैज्ञानिक डॉ. एसबी मिश्र व निर्मला मिश्रा के भगीरथ प्रयासों से शुरू हुए भारतीय ग्रामीण विद्यालय में सबसे अधिक गरीब बच्चों और लड़कियों को सुविधाएं मिलीं। जो लड़कियां कभी घर की दहलीज पार नहीं कर पाती थीं, वो स्कूल में दाखिला लेने लगी थीं।
“हमारी कोशिश है कि बच्चों को हम गुणवत्तापरक शिक्षा दे पाएं और अभिभावकों पर ज्यादा बोझ भी न आए,” डॉ. मिश्रा ने अपने स्कूल खोलने के प्रयासों के बारे में बताया, “जब मैं अपने गाँव से 12 किमी दूर पैदल पढ़ने के लिए जाता था तो मेरे मन में यह विचार हमेशा रहता कि हमारे गाँव में स्कूल क्यूं नहीं है? यही विचार कनाडा में पढ़ाई के दौरान भी रहा, और एक दिन मैं सब कुछ छोड़कर वापस आ गया।”
भारतीय ग्रामीण विद्यालय की यात्रा में हमेशा साक्षी रहीं डॉ. एसबी मिश्र की धर्मपत्नी निर्मला मिश्रा के लिए यह किसी अजूबे से कम नहीं था, कि विदेश में पढ़ के आए जिस विलक्षण प्रतिभा के धनी व्यक्तित्व से उनकी शादी हुई, उनकी आंखों में गाँव में स्कूल खोलने का सपना पल रहा है।
अपने संघर्षों की यात्रा को याद करते हए सह संस्थापिका एवं पूर्व प्रधानाध्यापिका निर्मला मिश्रा ने बताया, “एक दिन ये (डॉ. मिश्रा) हमारे मायके में बैठे हुए थे तो बोले स्कूल अब नहीं चल पाएगा, तो मुझे ये शब्द बहुत चुभ गया। मैंने कहा कि जब तक हम ज़िंदा हैं ये स्कूल चलेगा आप बाहर नौकरी करें, हम स्कूल चलाएंगे।”
वहीं, भारतीय ग्रामीण विद्यालय चलाने में निर्मला मिश्रा के समर्पण को याद करते हुए डॉ. एसबी मिश्र कहते हैं, “बच्चों को हमने पाला, स्कूल को निर्मला मिश्रा जी ने पाला है।”
जब भारतीय ग्रामीण विद्यालय की नींव पड़ी तो आसपास 12 किमी तक कोई हाईस्कूल और इंटर कॉलेज नहीं था। छात्र-छात्राएं मजबूरी में पढ़ाई छोड़ देते।
“पास में स्कूल न होने से मैं हाईस्कूल के बाद पढ़ाई छोड़ कर एकदम बैठ जाने वाला था, फिर पता चला कि डॉ. मिश्रा कनाडा से आए हैं और स्कूल खोलने वाले हैं तो मैंने सबसे पहले दाखिला लिया,” भारतीय ग्रामीण विद्यालय के पहले बैच के छात्र और पास के गाँव में सुलेमाबाद में रहने वाले तजम्मुल हुसैन (65 वर्ष) ने बताया।
तजम्मुल हुसैन के घर की तीन पीढ़ियां इस स्कूल में पढ़ चुकी हैं, और बच्चे शहर में नौकरी कर रहे हैं। तजम्मुल के घर के युवा फराज पेशे से ग्राफिक डिजाइनर हैं, उन्होंने पहली बार कम्यूटर भारतीय ग्रामीण विद्यालय में ही देखा।
“जब हमने अपने स्कूल में कम्प्यूटर देखा तो मैं सोचता था कि कम्प्यूटर से क्या-क्या कर सकते होंगे। आज जब मैं कम्प्यूटर पर ग्राफिक्स डिजाइनिंग करता हूं सब यहीं की बदौलत है,” फराज बताते हैं।
इसी स्कूल में पढ़ाई करने के बाद यहीं अध्यापक के तौर पर अपनी सेवाएं दे रहे रामचंद्र बाजपेई के मानस पटल पर छात्र जीवन की यादें बिल्कुल ताजा हैं। “जब हम यहां आए तो कच्ची कोठरी बनी हुई थी, बाकी जंगल था, पानी के बीच से होकर आते थे, और छप्पर के नीचे हमारी क्लास चलती थी, “आगे कहते हैं, “हमने यहीं पढ़ाते-पढ़ाते पोस्ट ग्रेजुएशन किया है।”
भारतीय ग्रामीण विद्यालय के प्रति लोगों में विश्वास बनाना शुरू के दिनों में काफी मुश्किल काम था। उन रुढ़िवादी परंपराओं को तोड़ने के लिए श्रीमती निर्मला मिश्रा को काफी मेहनत करनी पड़ी।
“जब शुरु में हम गाँवों में लोगों के घरों में जाते थे तो लोग सोचते थे कि हम उनकी बेटियों या बहुओं को भड़काने आते हैं, लेकिन बाद में सभी का साथ मिला, “निर्मला ने बताया।
आज कम्यूटर क्लास से लेकर सौर ऊर्जा से जगमगाने वाले भारतीय ग्रामीण विद्यालय में बच्चों को हर वो सुविधा देने की कोशिश होती है, जैसे किसी शहर के स्कूल में होती है।
कक्षा नौ में पढ़ने वाली प्राची को अपने स्कूल के प्रति लगाव कुछ खास है, वो कहती है, “मेरे पापा और भइया भी यहीं से पढ़े हैं और हमारे यहां ऑनलाइन क्लास भी चलती है।”
स्कूल के एक चबूतरे पर पेड़ की छाया में बैठे डॉ. एसबी मिश्रा पूरे कैंपस को देखने के बाद एक लंबी सांस लेते हुए कहते हैं, “मुझे कोई अफसोस नहीं है कि मैंने विदेश में रहने और ऐशोआराम की ज़िंदगी छोड़ी है। जितना मैंने खोया उससे कहीं अधिक पाया है।”