बिहार से दिल्ली, उत्तर प्रदेश और विदेशों तक जाता है यहाँ का सरौता

मधुबनी जिले में आनेवाला गाँव सरसब पाही, सरौतों के लिए राज्य ही नहीं, देश भर में विख्यात है। पान और सुपाड़ी का शौक रखने वालों के एक बेहद पसंदीदा चीज़ होते हैं यहाँ के सरौते।
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सरसब पाही (बिहार)। अपनी सुन्दर लोक-कलाओं और व्यंजनों के लिए जाना जानेवाला बिहार तमाम तरह के कारीगरों का घर भी है। बिहार में ‘माछ’ या मछली को पारपम्परिक तौर पर काफ़ी शुभ माना जाता है। चाहे मछली खाने की बात करें या उनके चित्रण की या फ़िर सरौतों पर मछलियों की डिज़ाइन उभारने की, हर क्षेत्र में मिथिला की यह परंपरा झलकती है।

Sarauta (Photo by Jigyasa Mishra)

मधुबनी जिले में आनेवाला गाँव, सरसब पाही भी इस तरह के सरौतों के लिए राज्य ही नहीं, देश भर में विख्यात है। पान और सुपाड़ी का शौक रखने वालों की एक बेहद पसंदीदा चीज़ होते हैं यहाँ के सरौते।

कई पीढ़ियों से गांव में सरौता बनाने का काम कारने वाले घूरन ठाकुर ने बताया, “हमारा सरौता तो बहुत फेमस है और यहाँ से बन कर बहुत जगह गया है। जैसे दरभंगा, पटना, बनारस, दिल्ली, बॉम्बे…विदेशों तक जा चुके हैं हमारे सरौते। अब इस से ज़्यादा क्या कहूँ मैं!”

Making of Sarauta (Photo by Jigyasa Mishra)

“पहले तो इसका साँचा बनाते हैं। एलुमिनियम को पीट कर, रेती वगैरह से साँचा बनाते हैं। उसके बाद मिटटी से दो भागों में उसको ढँक कर उसका फिर एक साँचा तैयार करे हैं जो बाद में खाली हो जाए। फिर उसको सूखा कर…. धूप में सूखाते हैं जिस हिसाब से धूप हुई उस हिसाब से। तेज़ धूप हुई तो… टेम्पेरेचर अगर सही रहा तो दो-तीन घंटे,” घूरन ने बताया और अगला सरौता बनाने के लिए धातु गलाने लगा।

घूरन ने आगे बताया, “उसके बाद पीतल को गलाते हैं, खारिया में। खारिया को पत्थत कोयला के आग में डालकर, ताव देकर गलाते हैं। उसके बाद जो साँचा बना है उसको भी गरम करते हैं और जो मटेरियल पिघलाया है वो डाल देते हैं सांचे के आदर, ढालने के लिए। आधे-एक घंटे ठंडा होने के बाद उसको खोल दते हैं, सांचे को। वो निकलता है फॉर मिशिनिंग करते हैं। कई तरह के सरौते बनाते हैं। प्लेन और माछ (मछली) वाला।”


गांव में कई डिज़ाइन और आकार के सरौते बनते हैं लेकिन मछली वाले ज़रा हैट कर होते हैं और सबके दामों में ही फ़र्क होता है।

“प्लेन वाला एक दिन में एक तैयार हो जाता है जिसमे 150 लागत होती है और हमने दाम 600 रुपया रखा है। मछली वाला दो दिन में एक बनता है जो 1100 का होता है और करीब डेढ़-दो सौ का होता है। और एक बड़ा बनाते हैं, करीब 400 ग्राम का उसका दाम हमने 2200 रुपया रखा है। हम तो खुश हैं अपने काम से क्यों कि कहीं भी काम करेंगे तो ही पैसा मिलेगा। यह सब चीज़ीं सैलून चलती हैं। यह माछ जो है अपने मिथिला का चिन्ह है, शुभ मानी जाती है इसलिए ही उसमे पूरा फोकस देते हैं हम मछली का,” घूरन ने बताया।


मधुबनी के रहने वाले साहित्यकार डॉक्टर अजय मिश्र बताते हैं, “सरसब पाही की विशेष शैली है ये। शुरुआत में तो यह रजत और स्वर्ण या ताम्ब्र और स्वर्ण के मेल से बनता था (सरौता)। द्विधातु की परंपरा है जो शोधन करती है। इन धातुओं को आयुर्वेद परख बनाकर इनके जो हानिकारक तत्व है वो स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं। समय के साथ रजत और स्वर्ण या ताम्ब्र और स्वर्ण का स्थान लोहे और पीतल ने ले लिया जिनका उपयोग ही मुख्यतः होता है अब। ये शैली काफ़ी पहले से यहाँ है जिसपर माछ अंकित करना सबसे विशिष्ट है।”


 

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