कांकेर/बस्तर(छत्तीसगढ़)। बस्तर के अंदरूनी इलाकों में आदिवासी समुदाय आज भी अपने पुरानी परम्परा के तहत पैसा बैंक में न रख कर नगदी रकम अपने घर में मौजूद लौकी के बने तुम्बा या बांस के बने होल में रखते हैं।
कांकेर जिले के अंतागढ़ तहसील, नारायणपुर जिले के अबूझमाड़, ओरछा दंतेवाड़ा जिला, बीजापुर के दूरस्थ ग्रामीण अंचलों में आज भी देखने को मिलता है जहां पर आधुनिक मुद्रा को परंपरागत तरीके से रखने की व्यवस्था कायम है। जहां वो तेंदूपत्ता का बोनस, धान बोनस या मजदूरी में मिले पैसे को न किसी तिजौरी-पेटी में रख के साधारण घर के कोनों में रखते हैं।
ताड़ावायली की सगनी बाई कहती हैं, “यह से बैंक 30 किमी दूर है न कोई आवागमन की सुविधा है और बैंक गए भी तो दिन भर समय लग जाता है, अब ऐसे में कहा रखेंगे पैसा ऐसे ही रख देते हैं। गाँव में बैंक की सुविधा नहीं है बैंक है भी तो वो भी कोसो दूर जहां जाने के लिए कई किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है।”
मुद्रा उनके लिए सिर्फ नमक मिर्ची व अन्य आवश्यकताओं तक की ही महत्वपूर्ण है। बाकी उनके जीवन के लिए आधुनिक कागजी मुद्रा का कोई ज्यादा महत्वपूर्ण स्थान नहीं है। 20 साल पहले किसी भी घर मकान झोपड़ी में ताले नहीं लगाए जाते थे, सिर्फ जंगली जानवरों से सुरक्षा के लिए परंपरागत दरवाजा लगाया जाता था।
पारंपरिक पैसा रखने का यह नजारा कांकेर जिला मुख्यालय से लगभग 200 किलोमीटर की दूरी पर स्थित ताडावायली गांव का है। जहां करीबन दर्जनों ऐसे वन ग्राम हैं जहां के लोग अपना साल भर की गाढ़ी कमाई को इकट्ठा कर घर के किसी कोने में या सूखी लौकी जिसे तुम्बा कहा जाता है उसमें रख देते हैं। ऐसे में तुम्बा में रखे हुए पैसे में कभी-कभी दीमक भी लग जाते हैं और वो खराब हो जाते हैं।
जहा देश में आज सरकार डिजिटल इंडिया के तहत लोगो को कैश लेस के लिए जगह जगह बैंक खुलवाकर लोगो को कैश लेस की दिशा में प्रेरित कर लोगो को कैश लेस के लिए लोगो को जागरूक कर रहे है। वहीं आदिवासियों का यह पारंपरिक मुद्रा रखने का नजारा सरकार के लिए एक चुनौती है।
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