यूपी चुनाव 2022: घाघरा और उसके तटबंध के बीच फंसे ग्रामीणों को कौन पार लगाएगा?

हर साल घाघरा नदी की बाढ़ बाराबंकी के गांवों को पानी में बहा ले जाती है। फसल बर्बाद हो जाती और लाखों ग्रामीणों को अपने गाँवों को छोड़ अस्थायी झोपड़ियों और तिरपाल में आसरा लेना पड़ता है। उनमें से कितने तो ऐसे हैं जो बार-बार आने वाली इस बाढ़ की वजह से गरीबी की दलदल में फंसते चले जा रहे हैं। इससे वो कभी बाहर आ पाएंगे इसकी उम्मीद उन्हें कम ही है। इस साल उत्तर प्रदेश में हो रहे चुनावों को लेकर इन लोगों की क्या प्रतिक्रिया है? क्या कहता है गाँव सीरीज की ग्राउंड रिपोर्ट।

Virendra SinghVirendra Singh   22 Feb 2022 7:04 AM GMT

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सिरौली गौसपुर (बाराबंकी), उत्तर प्रदेश। उदास मन से फूलमती एक ऐसी जगह तलाश रही हैं जहां वो और उनके बच्चे सुरक्षित रह सकें। वह इशारा करते हुए कहती हैं, "यही वह जगह है जहां मेरा गांव हुआ करता था।" वह उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले में सिरौली गौसपुर तहसील के टेपरा नामक गांव में रहा करती थीं। लेकिन तीन साल पहले उनका ये गांव घाघरा नदी के बाढ़ के पानी में गायब हो चुका है।

फूलमती ने गांव कनेक्शन को बताया,"नदी मेरे गांव को तेजी से रौंदते हुए आगे निकल गई और हमारी ज़मीन, हमारा घर सब बर्बाद हो गया। ये सब तीन साल पहले हुआ था। तब से हम बांध (तटबंध) पर बनी इस छोटी सी झोपड़ी में रह रहे हैं।" वह आगे कहती हैं, "नदी में अपना घर खोने के बाद मुझे कोई मुआवजा नहीं मिला है।"

फूलमती अकेली नहीं हैं जो किसी चमत्कार का इंतजार कर रही हैं। तेपरा गांव के 50 परिवार पिछले तीन सालों से स्थायी रूप से विस्थापित हैं और पुनर्वास का सपना देख रहे हैं। घर से बेघर हुए 120 से ज्यादा लोग एल्गिन ब्रिज चारसारी तटबंध के ऊपर बनाए गए अपने अस्थाई घरों में रहने के लिए मजबूर हैं।

फूलमती एक ऐसी जगह तलाश रही हैं जहां वो और उनके बच्चे सुरक्षित रह सकें।

विस्थापित ग्रामीण इस जगह को छोड़कर नहीं जा सकते हैं क्योंकि उनके पास घर बनाने के लिए पैसे नहीं हैं। जमीन तो पहले ही पानी में डूब चुकी है। फिलहाल तिरपाल और मटमैली प्लास्टिक की चादरें ही उनके घर की छत है। उनकी शिकायत है कि कोई भी राजनीतिक दल उनकी समस्याओं के समाधान में दिलचस्पी नहीं ले रहा है। ये बाढ़ पीड़ित राजनितिक दलों से खासा नाराज हैं।

बाराबंकी की रामनगर तहसील के बाबरी सरसंडा गांव के रहने वाले 58 साल के विद्या सागर पांडेय ने गुस्से में गांव कनेक्शन से कहा, ''हम इस सरकार को दोबारा नहीं लाएंगे।'' घाघरा में बाढ़ से पांडे की करीब आठ हेक्टेयर जमीन का नुकसान हुआ है। परेशान किसान ने कहा, "जब हम दुख-तकलीफ में होते हैं तो ये चुने हुए प्रतिनिधि हमारी ओर मुड़कर भी नहीं देखते।"

साल दर साल, घाघरा में बाढ़ के कारण सैकड़ों परिवार और हजारों लोग अपना घर और जमीन खो रहे हैं। ये विस्थापितों की जिंदगी जीने के लिए मजबूर हैं। उत्तर प्रदेश राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के आंकड़ों के अनुसार, बाराबंकी जिले में लगभग एक लाख ग्रामीणों की अनुमानित आबादी की स्थिति दयनीय है क्योंकि उनके घर और जमीन नदी के किनारे और बाढ़ को नियंत्रित करने के लिए बने 52.4 किलोमीटर लंबे तटबंध के बीच फंस गए हैं।

हर साल, जुलाई से सितंबर के मानसून के महीनों के दौरान, जैसे ही नदी का पानी इनके गांवों में भरने लगता है, लाखों लोगों को अक्सर तटबंधों के ऊपर सुरक्षित क्षेत्रों में पलायन करने के लिए मजबूर किया जाता है। इनमें से ज्यादातर लोग अपने गांवों की तरफ वापस नहीं जा पाते क्योंकि फिर से घर बनाना उनके बस से बाहर है।



रामनगर तहसील के कोधरी गांव के दीपक प्रकाश पांडेय ने गांव कनेक्शन को बताया, "मानसून के दौरान, हम नदी और बांध के बीच फंस कर रह जाते हैं। हमारे पास बांध पर लगभग तीन महीने बिताने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है। इन दिनों गांव में हमारे घरों में छाती तक पानी भर जाता है।"

58 साल के दीपक वर्षीय गुहार लगाते हैं, "काश! सरकार हमें सुरक्षित इलाकों में पुनर्वासित कर दे, इसकी बेहद जरूरत है। हमें हर साल होने वाली तकलीफों से छुटकारा मिल जाएगा।" उनके अनुसार, बाराबंकी की तीन तहसीलों (रामसानेहीघाट, रामनगर और सिरौली गौसपुर) में लगभग 100 गांव नदी और तटबंध के बीच फंसे हुए इलाकों में आते हैं।

उत्तर प्रदेश में चल रहे विधानसभा चुनाव में बाराबंकी में पांचवें चरण में 27 फरवरी को मतदान होना है। जाहिर है, चुनावी मौसम में, राजनेता वादे करने में कोई कसर नहीं छोड़ने वाले हैं।

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता शरद अवस्थी ने गांव कनेक्शन को बताया, 'मैं मौजूदा विधानसभा चुनाव में इस सीट से चुनाव लड़ रहा हूं। चुनाव जीतने के बाद मेरी सबसे पहली प्राथमिकता उन बाढ़ पीड़ितों के पुनर्वास के लिए जमीन की पहचान करने के लिए अधिकारियों को निर्देश देने की होगी जो वर्तमान में तटबंध पर रह रहे हैं।"

ऐसा ही वादा बाराबंकी के पूर्व विधायक और समाजवादी पार्टी के नेता फरीद महफूज किदवई करते नजर आए। उन्होंने कहा, 'अगर हम सत्ता में आए, तो मैं उन लोगों को पुनर्वास मुहैया कराऊंगा, जिन्होंने कटाव के कारण अपनी जमीन गंवाई है। सबसे बड़ी चुनौती गांव वालों को भूमि आवंटित करने के लिए भूमि की पहचान करना है। लेकिन मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि यह व्यवस्थित तरीके से किया जाएगा। साथ ही, तटबंध को कंक्रीट से बनाया जाएगा। फिलहाल यह सिर्फ मिट्टी से बना है और इसके टूटने का खतरा है।"

बांध और नदी के बीच फंसी जिंदगी

1,080 किलोमीटर लंबा घाघरा नदी, तिब्बत में हिमालय के पहाड़ों में निकलती है और भारत में उत्तरी मैदानों तक पहुंचने से पहले नेपाल से होकर गुजरती है। हर साल इस नदी के उफान से होने वाले कहर के चलते दोनों तरफ के लोग इससे डरे रहते हैं और इसकी पूजा करते हैं।

नदी कैलाश पर्वत के पास तिब्बती पठार से निकलती है और नेपाल से गुजरते हुए उत्तरी मैदान में बहती है। उत्तर प्रदेश में, यह अंबेडकर नगर, फैजाबाद, अयोध्या, आजमगढ़, बाराबंकी, बस्ती, बलिया, बहराइच, देवरिया, गोंडा, गोरखपुर, संत कबीर नगर, लखीमपुर खीरी, मऊ और सीतापुर से होकर बहती है।

ये नदी हर साल आने वाली भयंकर बाढ़ और सैकड़ों हजारों लोगों को विस्थापित करने के लिए बदनाम है।


बाराबंकी जिले में घाघरा नदी की लंबाई लगभग 77 किलोमीटर है। बाढ़ को नियंत्रित करने के लिए नदी के किनारे पर इस उम्मीद के साथ 52.4 किलोमीटर लंबा तटबंध (स्थानीय लोग इसे बांध कहते हैं) बनाया गया था कि यह बाढ़ के पानी के प्रसार को रोकने में मदद करेगा।

नदी से प्रभावित गांवों औऱ खेती की जमीन को बाढ़ से बचाने के लिए बांध का निर्माण किया गया था। अधिकारियों का दावा है कि इससे लगभग एक लाख हेक्टेयर भूमि को जलमग्न होने से बचा लिया गया है, लेकिन इससे उन लोगों को कोई मदद नहीं मिली है जो नदी के किनारे पर रहते हैं और इसके तटबंधों के बीच फंस गए हैं।

टेपरा गांव की एक पूर्व निवासी बड़का ने गांव कनेक्शन को बताया, "मेरे परिवार में मेरे बेटे के अलावा और कोई नहीं है। कुछ साल पहले एक दुर्घटना में उसने अपना एक पैर गवां दिया था। तीन साल पहले गांव में बाढ़ आई और हमारा घर डूब गया। लेकिन मुझे कोई मौवजा (मुआवजा) नहीं मिला।" बड़का ने बताया कि उसके पास खाने के लिए भी कुछ नहीं था। वह पूरी तरह से सरकारी अनाज (सरकार द्वारा प्रदान किया जाने वाला सूखा राशन) पर निर्भर थी।

बड़का का घर गाँव सब नदी के साथ बह गया।

बाराबंकी के तीन तहसील (एक जिला उप-मंडल), रामसनेहीघाट, रामनगर और सिरौली गौसपुर, घाघरा नदी से आने वाली बाढ़ से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। उत्तर प्रदेश राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के आंकड़ों के अनुसार, 2020 में बाराबंकी जिले में बाढ़ से कुल 62,725 ग्रामीणों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और साथ ही 2,633 हेक्टेयर भूमि पर खड़ी फसलें बर्बाद हो गईं।

सरौली गौसपुर तहसील के सरायसुरजन गांव के 48 साल के अकबल सिंह गांव कनेक्शन से पूछते हैं, ''बाढ़ पर नियंत्रण तो ठीक है, लेकिन उन लोगों का क्या जो नदी के किनारे रहते हैं।'' जबकि बांध यह सुनिश्चित करता है कि नदी ओवरफ्लो न हो और तटबंधों के बाहर के गांवों को पानी से नुकसान न पहुंचे। इसने नदी के फैलाव क्षेत्र में रह रहे लोगों के जीवन में तूफान ला दिया है।

अकबर सिंह अपने खेतों को पानी में डूबने और हर मानसून में गांव छोड़ने की अपनी मजबूरी के लिए बांध को जिम्मेदार ठहराते हैं।

इन परिवारों की बदहाली से अधिकारी भी अनजान नहीं हैं। सिरौली गौसापुर तहसील के सब-डिविजनल मजिस्ट्रेट (SDM) ने गांव कनेक्शन को बताया कि उन जमीनों की पहचान करने का प्रयास किया जा रहा है, जहां विस्थापित ग्रामीणों का पुनर्वास किया जाएगा।

एसडीएम सुरेंद्र पाल विश्वकर्मा ने गांव कनेक्शन से कहा,"मुझे पता है कि ये लोग तटबंध पर रह रहे हैं। प्रशासन उन जमीनों की पहचान करने के लिए काम कर रहा है जो उन्हें आवंटित की जा सकती हैं। इसके साथ-साथ उन लोगों तक राशन पहुंचाने का भी काम किया गया है। बाढ़ से उनकी आजीविका प्रभावित हुई है।"


बाराबंकी के पूर्व विधायक फरीद महफूज किदवई ने कहा कि जिले के एक विधायक के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान, इस तरह के पुनर्वास कार्यक्रम चलाए गए थे और बाढ़ पीड़ितों को जमीन उपलब्ध कराई गई थी।

कुछ भी नहीं बचा- न घर, न पता और न कमाई का जरिया

बाढ़ से होने वाले नुकसान का दुख इस बात से और भी बढ़ जाता है कि उनके आधिकारिक पहचान पत्र, मतदाता पहचान पत्र और आधार कार्ड में उल्लिखित पते अब मौजूद नहीं हैं।

एल्गिन ब्रिज चारसारी तटबंध पर रहने वाले पांच बच्चों की मां गीता देवी ने गांव कनेक्शन को बताया, "कोई भी, कभी भी हमारी सुध लेने के लिए नहीं आता है। अधिकारी आसपास के गांवों का दौरा करते हैं लेकिन यहां बांध पर रहने वाले परिवारों पर किसी का ध्यान नहीं जाता है। ऐसा लगता है मानो हमारा कोई वजूद ही नहीं है।"

40 साल की गीता आगे कहती हैं, "यहां रहने वाले गांव के सबसे गरीब लोग हैं। जो अपना घर बनाने का खर्च उठा सकते थे, वो सभी वापस गांव लौट गए। जो लोग यहां रह रहे हैं, उनके पास आमदनी का कोई जरिया नहीं है। हम ज्यादातर खेतिहर मजदूरों के रूप में काम करते हैं।"

उन्होंने कहा, "मैं बस यही चाहती हूं कि मेरे बच्चों को इससे बेहतर जीवन मिले। हम तीन साल से यहां रह रहे हैं। सरकार को हमारे बारे में सोचना चाहिए और हमारे पुनर्वास के लिए आगे आना चाहिए।"


बाढ़ प्रभावित अधिकांश लोगों का मानना है कि किसी भी तरह के पुनर्वास या मुआवजे के कोई आसार नहीं हैं। उनका दावा है कि जब भी बाढ़ आती है, अधिकारी आते हैं, शोर भी खूब मचता है, आधे-अधूरे वादे भी किए जाते हैं। लेकिन फिर सब गायब हो जाते हैं। जमीनी तौर पर अब तक कुछ नहीं हुआ है।

हालांकि, उत्तर प्रदेश राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने साल 2021-22 के लिए प्रकाशित आधिकारिक आंकड़ों में उल्लेख किया है कि वर्ष 2017-2020 के बीच रामसनेहीघाट में झोपड़ियों को हुए नुकसान के मुआवजे के रूप में बाढ़ पीड़ितों को कुल 1,396,100 रुपये आवंटित किए गए थे। वहीं, रामनगर में झोपड़ियों के नुकसान के मुआवजे के रूप में कुल 1,135,700 रुपये दिए गए थे। सबसे बुरी तरह प्रभावित तहसील सिरौली गौसपुर में 2017-2020 के दौरान क्षतिग्रस्त झोपड़ियों के मुआवजे के रूप में कुल 12,213,900 रुपये प्रदान किए गए थे। इस इलाके के 50 परिवार, पिछले तीन सालों से तटबंध पर रह रहे हैं।

कुछ लोगों का मानना है कि बाढ़ का पानी कम होने के बाद ये लोग चाहते तो अपने जीवन में वापस लौट सकते थे। इनका पुनर्वास और मुआवजा सिर्फ एक चुनावी मुद्दा है। तटबंध पर रहने वाले इन लोगों को राज्य में चल रहे विधानसभा चुनावों कोई दिलचस्पी नहीं है।

लेकिन गीता देवी, जो अपने चार बच्चों के साथ तटबंध पर तिरपाल से बने एक छोटे से आशियाने में रह रही हैं, उसके लिए राजनेताओं या उनके वादों का कोई मतलब नहीं है।

"चुनाव तो आते-जाते रहेंगे लेकिन हमारी दुख-तकलीफ कभी खत्म नहीं होगी।" उसने थककर कहा और दूर चली गईं।

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