गर्मी में न हो पानी की किल्लत, इसलिए 300 साल पुरानी बावड़ी को किया पुनर्जीवित

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मनीष वैद्य

देवास। मध्यप्रदेश के देवास शहर की पहचान पूरे देश में भयावह जल संकट वाले शहर के रूप में रही है। अस्सी के दशक से लेकर अब तक बीते चालीस सालों में यहां हर साल पानी की जबर्दस्त किल्लत बनी रहती है। कभी ट्रेन से तो कभी सवा सौ किमी दूर नर्मदा नदी से और कभी 65 किमी दूर गंभीर नदी से यहाँ के लोगों की प्यास बुझाने की कोशिशें की जाती रही है। जल संकट से परेशान हो चुके यहाँ के लोगों को अब बूँद-बूँद पानी की कीमत समझ आने लगी है। शहर में एक मोहल्ले के लोगों ने इस हफ़्ते करीब तीन सौ साल पुरानी एक बावड़ी को पुनर्जीवित कर दिया। बीते पचास-साठ सालों से इस बावड़ी में पूरे मोहल्ले का कचरा फेंका जाता रहा और इसके आसपास इतने झाड-झंखाड़ उग आए थे कि बावड़ी की पहचान ही खत्म हो गई थी।

अपनी कॉलोनी की बावड़ी को बचाने के लिए यहाँ के रहवासी एकजुट हुए और उन्होंने श्रमदान कर इसकी गंदगी साफ़ की और अब इसे सहेजकर सजाया संवारा जा रहा है। इस काम में स्थानीय नगर निगम ने भी संसाधन उपलब्ध कराने में मदद की। नगर निगम आयुक्त ने खुद आगे बढ़कर अपने अमले के साथ श्रमदान भी किया तथा लोगों को अपने पारम्परिक जल स्रोत को सहेजने के काम की तारीफ़ करते हुए इसे अनुकरणीय बताया। जहाँ कुछ दिनों पहले तक नाक पर रुमाल रखकर आना पड़ता था, आज वहाँ बदले हुए हालात में कालोनी ही नहीं शहर के दूसरे हिस्सों से भी लोग शाम के समय घूमने आ रहे हैं। बावड़ी को साफ़ सुथरा कर अब लोग बारिश का इंतज़ार कर रहे हैं। उन्होंने नगर निगम के सहयोग से बावड़ी के आसपास एक बगीचा भी बनाया है और अब इसमें पौधरोपण किया जा रहा है। शाम के समय रंग-बिरंगी रोशनी से यह जगह रौनक हो उठती है। बावड़ी की दीवारों पर सुंदर कला कृतियाँ बनाई जा रही हैं। शाम के समय बिजली की चमक दमक में इसे देखना अपनी तरह का अलग अनुभव है।


1734 में तत्कालीन देवास जूनियर रियासत के समय राजखर्च से इसका निर्माण किया गया था। यह ऐतिहासिक महत्त्व की है और करीब ढाई सौ सालों तक यह बावड़ी लोगों के लिए पानी का खजाना सहेजती रही।

उन्नीस सौ सत्तर के दशक में देवास शहर के विस्तार के साथ परम्परागत जल स्रोतों की जगह घर-घर पाइपलाइन के जरिये नल जल योजना शुरू की गई. जब लोगों को घर के दरवाज़े पर ही पानी मिलने लगा तो उन्होंने पानी का मोल समझा ही नहीं, पुराने जल स्रोत लगातार उपेक्षित होते चले गए. धीरे-धीरे ये इतने हाशिए पर चले गए कि समाज ने इन्हें भूला दिया और इनमें पानी की नीली लहरों की जगह गंदगी और कूड़ा करकट समाने लगा। इस बावड़ी के साथ भी ऐसा ही हुआ।

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बुजुर्ग बताते हैं कि कभी देवास की पहचान यहाँ की रियासतकालीन समृद्ध बावडियों से होती थी। यहाँ करीब सौ से ज़्यादा बावड़ियाँ हुआ करती थी और सब एक से बढ़कर एक। इनमें पूरे साल पानी भरा रहता था और लोग इनका उपयोग पेयजल तथा खेती के काम में किया करते थे। पुराने पीढ़ी की आँखों में आज भी उन वैभवशाली बावडियों का पानी हिलोरें मारता है। देवास रियासत के रिकार्ड के मुताबिक दो सौ से तीन सौ साल पहले माता टेकरी से बहकर आने वाले बरसाती पानी के उपयोग के लिए कुछ बड़े तालाब और बड़ी संख्या में कुँए-बावड़ियाँ तत्कालीन रियासतदारों ने बनवाए थे। यही वजह थी कि उन दिनों बुरे से बुरे हालात में भी लोगों को पीने के पानी की कभी कमी महसूस नहीं हुई. दो-ढाई सौ सालों तक इन कुँए बावडियों का खूब सम्मान रहा और इन्होने भी पानी के खजाने को दिल खोलकर लोगों को बाँटा।

देवास को कभी बावड़ियों का शहर कहा जाता था

शहर में बीते तीस सालों में स्थिति बद से बदतर हुई है। अस्सी के दशक में तो हमारी प्यास बुझाने के लिए प्रदेश की सरकार ने ट्रेन की बोगियों में पानी लाकर वितरित करवाया। यहाँ के उद्योगों के लिए बीओटी योजना में सवा सौ किमी दूर नेमावर के तट से नर्मदा नदी का पानी देवास लाना पड़ा। इसी तरह शाजापुर जिले के गंभीर डेम से 65 किमी पाइपलाइन डालकर शहर के पूर्वी भाग की प्यास बुझाई गई. क्षिप्रा जल आवर्धन योजना से भी क्षिप्रा नदी का पानी कई दिनों तक लाना पड़ा।

क्षिप्रा नदी के सूखने के साथ नर्मदा-क्षिप्रा लिंक योजना से नर्मदा का बेशकीमती पानी भी फिलहाल देवास शहर को पेयजल के लिए दिया जा रहा है। इसी दौरान इंदौर में नर्मदा के तृतीय चरण से मिलने वाले पानी का भी एक बड़ा हिस्सा पाइपलाइन से देवास पहुँचाया जाता रहा है। अरबों रूपये की इन योजनाओं से देवास के जल संकट का कोई स्थाई समाधान नहीं हो सका। इन तमाम प्रयासों का कोई बड़ा फायदा लोगों को नहीं मिला और आज भी स्थिति वही ढांक के तीन पाट की तरह से बनी हुई है। अभी जनवरी महीने से ही शहर में पानी की किल्लत की गूँज सुनाई देने लगी है।

हैरत की बात यह है कि इन तमाम श्रमसाध्य और खर्चीले उपायों पर तो सरकारों ने बहुत ध्यान दिया लेकिन कभी किसी ने इस बात पर गौर नहीं किया कि शहर के परम्परागत जल स्रोतों की भी सुध ली जाए. पानी की कमी से उबरने का एकमेव सहारा नर्मदा या दूसरी नदियों को मान लिया गया, जबकि शहर के कई कुँए और दर्जनों बावड़ियाँ अपनी दुर्दशा पर आँसू बहाती रही।

बाद के सालों में लोगों ने अपने पानी की चिंता सरकार के भरोसे छोड़ दी और सरकारों ने सिर्फ़ जमीनी पानी के अधिक से अधिक उलीचने और नदियों से पाइपलाइन में भरकर लाने की रिवायत को बढ़ावा दिया। जल संकट से निबटने की ये तकनीक सरल थी लेकिन इसके दूरगामी परिणामों की अनदेखी की गई. इससे एक तरफ हमारे परम्परागत जल स्रोत पिछड़ कर समाज से करीब-करीब उपेक्षित हो गए, वहीं हजारों सालों से धरती की नसों में धीरे-धीरे इकट्ठा हुआ पानी का संग्रह तेज़ी से खत्म होने लगा तथा जल स्तर लगातार कम होता चला गया। इसी कारण नदियाँ भी सिकुड़ गई और पहले की तरह वे सदानीरा नहीं रह पाई. हमारा समाज भी नलों से आने वाले पानी पर ही निर्भर हो गया।

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जल संकट का लगातार कई सालों से सामना कर रहे देवास शहर के लोगों की यह पहल भले ही छोटी हो लेकिन समस्या के स्थाई निदान की दिशा में ऐसे छोटे-छोटे कदम बड़े साबित हो सकते हैं। एक मोहल्ले के लोगों की जल चेतना को पूरे समाज को अंगीकार करने की ज़रूरत है। प्राकृतिक और परम्परागत जल स्रोतों की उपेक्षा ने हमारे आसपास पानी की किल्लत को बढ़ा दिया है। यदि हम इनका सम्मान करना सीख जाएँगे तो काफी हद तक बारिश के पानी को इनमें सहेज सकेंगे। यह बाकी समाज के लिए एक बड़ी प्रेरणा भी हो सकती है।

   

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