चुनावी मौसम में मंदिर दर्शन आस्था या दिखावा ?

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अमल श्रीवास्तव, कम्युनिटी जर्नलिस्ट

वाराणसी। धर्म और आस्था की नगरी काशी तो अपने आप में ही भोले की नगरी कही जाती है और माना जाता है कि जीवन का अंतिम समय यहां व्यतीत करने और यहीं प्राण त्यागने से लोगों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। यहां एक और खास चीज है कि कोई भी शुभ काम करने से पूर्व लोग दर्शन पूजन करते हैं जिससे उनके कार्य मे कोई बाधा उत्पन्न न हो सके और उन्हें उनके कार्य में सफलता हासिल हो। यह प्रचलन अब देश की राजनीति का केंद्र बिंदु वाराणसी बनने के बाद राजनीत में भी देखने को मिल रहा है।

2014 के लोकसभा के बाद अब 2019 में वैसे तो सभी राजनैतिक दल अपने चुनाव प्रचार को बल देते दिखाई पड़े, लेकिन इस बार एक चीज जो खासतौर पर देखने को मिली वह यह कि कुछ बड़े राजनैतिक दल के नेता यहां काशी में दर्शन पूजन कर बाबा विश्वनाथ और काशी के कोतवाल बाबा कालभैरव से जीत का आशीर्वाद लेते दिखाई पड़े। आमतौर पर तो यह दर्शन पूजन आस्था की बात है, लेकिन चुनावी दंगल में इसमें कुछ और भी चीजे दिखाई पड़ती हैं कि कहीं यह एक वर्ग, जाति या समूह को राजनेताओं द्वारा साधने का प्रयास तो नहीं। इन्हीं सब बातों को लेकर हम आज यहां राजनीतिक विश्लेषकों व राजनीति शास्त्र के शिक्षकों से यहां बात कर यह जानने का प्रयास किया।

महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ विश्वविद्यालय के सामाजिक विज्ञान संस्थान के डीन प्रोफेसर नंदलाल ने बातचीत में बताया कि चुनाव के पहले या बाद में यह पहले भी देखा गया है कि तमाम राजनेता देवी-देवताओं का दर्शन इत्यादि किया करते थे और उनसे आशीर्वाद प्राप्त करते थे। लेकिन अब जो हो रहा है उसमें एक चीज समझ मे आती है कि यह पांच साल जब उन्होंने कुछ नहीं किया और लोगों को बेवकूफ बनाया तो उसकी क्षमा याचना करने ये भगवान के पास जाते हैं।

प्रोफेसर नंदलाल आगे कहते हैं कि इसमे किसी मास को अपनी ओर कन्वर्ट करने जैसी चीज नहीं दिखाई पड़ती। अपने कार्य को सफल बनाने के लिए यह राजनेता ईश्वर को मनाने का प्रयास करते हैं, लेकिन शायद उनको यह पता नहीं है कि इस लोकतांत्रिक जगत में सिर्फ ईश्वरीय आशीर्वाद से कुछ नहीं होता है, यहां जनता ही ईश्वर है और जब तक जनता का आशीर्वाद प्राप्त नहीं होगा तब तक वह सफल नहीं हो सकते। इसके लिए उन्हें जनता के समस्याओं का निदान करना पड़ेगा। हालांकि मुझे ऐसा लगता है कि ये राजनेता ईश्वर से प्रार्थना कर अपने काम को सफल बनाना चाहते हैं, लेकिन मुझे इसमें कोई तार्किकता नजर नहीं आती है। मुझे ऐसा महसूस नहीं होता कि यह एक खास समूह को अपनी ओर करने का प्रयास है बल्कि यह एक परंपरागत समाज का एक पार्ट है। शायद वह अपने पापी मन को ईश्वर से प्रार्थना कर सांत्वना देते हो कि जो गलतिया हुईं उसके लिए वह उन्हें क्षमा कर दें।

वहीं एक अन्य प्रोफेसर डॉ केसरीनंदन का विचार इससे परे है। उनका मानना है कि अगर यह दर्शन पूजन चुनावी माहौल से पहले होता तो यह एक सामान्य प्रक्रिया होती। वह किसी मास को फ़ोकस करने के लिए नहीं होता,बल्कि एक धार्मिक भावना होती तो उस संतुष्टि के लिए होती,लेकिन अभी जो यह हो रहा है।इससे एक मतलब निकाला जा सकता है कि वह एक मास को अट्रैक्ट करने के लिए ऐसा कर रहे हैं।निश्चित रूप से मैं यह मानता हूं कि चुनाव के दौरान यह जो हुआ इसका एक पोलिटिकल लाभ लेने का प्रयास हुआ है।


 

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