लखनऊ। एक समय था जब कठपुतली कलाकारों को देखते ही सड़क पर, चौराहे पर भीड़ इकट्ठा हो जाती थी, लेकिन समय के साथ इन कठपुतली कलाकारों के सामने मुश्किलें बढ़ती गईं। इन्हीं में से कलाकार पुराने लखनऊ के रईस अहमद भी हैं।
पुराने लखनऊ के खदरा में रहने वाले रईस अहमद के यहां तीन पीढ़ियों से कठपुतली का खेल दिखाया जा रहा, वो खुद तीस साल से गुलाबो-सिताबो को लेकर लखनऊ की गलियों में खेल दिखा रहे हैं। अपने पुराने दिन को याद करते हुए उनके चेहरे की रौनक बढ़ जाती है, वो कहते हैं, “जब मैं मोहल्ले की गलियों में एक बार आवाज़ लगा के गुलाबों और सिताबो वाला खेल तमाशा दिखाता था, फिर क्या बच्चे, क्या औरतें और बूढ़े सभी भीड़ लगा के खड़े हो जाते थे, क्या उत्साह और उमंग के साथ लोग इसका मजे लेते थे।”
वो बहुत जोश के साथ आगे कहते हैं, “साहेब जी क्या बताएं इस काम ने हमें इज्ज़त और शोहरत दोनों बख्सी थी। बड़े घरों में बुलाया जाता था, हजारों रुपए की सौगात मिलती थी। लोग जी ज़नाब से बुलाते थे और महीने के दस दिन दूसरे शहरों और प्रांतो में कटते थे।”
रईस बहुत गर्व से कहते हैं, “अरे ये खेल रजवाड़ों और नवाबों के शौक का था”, इतना कहते-कहते उनकी आंखे थोड़ी सी नम और गला भर जाता है, थोड़ा सोचकर आगे बोलते है, “टीवी, सिनेमा और मोबाइल ने सब छीन लिया जब कि बाइस्कोप और सिनेमा इसी को देख कर बने। आज के बच्चे और जवान मोबाइल की दुनिया में ही रहते हैं।”
अभी हाल ही में आयी अमिताभ बच्चन और आयुष्मान खुराना की फिल्म में भी लखनऊ के कई कठपुतली कलाकार भी दिखाई दिए। गुलाबो सिताबो फिल्म का टाइटल भी कठपुतलियों के नाम पर है।
गुलाबो सिताबो की कहानी के बारे में रईस बताते हैं, “गुलाबो और सिताबो कि कहानी दो औरतों की है, जिनकी एक ही आदमी से शादी हुई रहती है, वो आपस मे हमेशा लड़ती रहती हैं और इसी को हास्य और नाटकीय ढंग से हम गाकर सुनाते हैं कठपुतलियों के साथ।”
पहले से ही परेशान इन कलाकारों को लॉकडाउन ने और परेशान कर दिया। वो कहते हैं, “जमाने की मार से अभी हम जूझ ही रहे थे कि ये लॉकडाउन ने हमें दर दर भटकने पर मजबूर कर दिया
ऐसे तो हम थोड़ा बहुत कमा भी लेते थे और किसी तरह घर का ख़र्चा चला लेते थे। कभी किसी फिल्मों की शूटिंग में या फिर कभी की आर्ट और कल्चर के प्रोग्राम से थोड़ा बहुत कमाई का ज़रिया निकल जाता था। लेकिन पिछले दो महीने से तो हम दूसरों के सामने हाथ फैलाने को मजबूर हो गए। पुराने क़दर दान लोगों ने अगर सहारा न दिया होता तो न जाने जिंदगी कैसे काटती।”
“परिवार के बच्चे इस काम में बिल्कुल रुझान नहीं दिखाते वे सब्जी का ढेला लगाने लगे हैं लेकिन मैं तो वो भी नहीं कर सकता क्योंकि मेरी उम्र हो चुकी है, “रईस ने आगे कहा।
एक छोटी सी दुकान चलाने वाली सावित्री देवी बताती हैं, “मैं रईस को 20 साल से जानती हूं, इनका खेल काफी समय से देखते आ रही हूं, लेकिन लॉक डाउन में कोई बाहर निकलता ही नहीं था तो वो कैसे कमाते।” उनकी हालात को देख कर सावित्री अक्सर उनकी मदद कर देती हैं कभी कुछ पैसे से तो कभी कुछ अनाज गल्ला देकर।
घंटा घर के एक बुज़ुर्ग शख्स जो गार्ड का काम करते हैं, कहते हैं कि कठपुतली का खेल देखने वो कितनी दूर तक चले जाते थे बहुत मज़ा आता था और लोग उमड़ जाते थे इसको देखने को। आज कल की पीढी बस मोबाइल में ही लगे रहती है।
रईस अहमद अपने कठपुतलियों को देखते हुए बोलते हैं, “ये मेरे बच्चों से बढ़कर हैं, हमारे पूरे परिवार का पालनहार रही है।” इतना कहते-कहते वो चुप हो जाते हैं, फिर कहते हैं, “आप से पहले भी लोगों ने मेरी फोटोज ली और स्टोरी बनाई बहुत से वादे किए लेकिन हमारे हालात नहीं बदले सरकार की नज़रे इनायत पढ़ने का इंतज़ार है शायद कुछ बदल जाये।”