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कुपोषण से जूझते राजस्थान में क्यों उम्मीद की किरण है सुपोषण वाटिका?

कुपोषण से जूझ रहे राजस्थान में सुपोषण वाटिका से नई उम्मीद जगी है। उदयपुर से शुरू हुई इस योजना को राज्य के दूसरे जिलों में भी लागू किया जा सकता है। क्या है सुपोषण वाटिका, कुपोषण से लड़ाई में कैसे यह कारगर साबित होगा? पढ़िये राजस्थान से माधव शर्मा की यह रिपोर्ट
#Malnutrition

जयपुर (राजस्थान)। कुपोषण राजस्थान ही नहीं पूरे देश के लिए गंभीर समस्या है। इस मामले में राजस्थान असम और बिहार के बाद तीसरे नंबर पर है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4 के अनुसार प्रदेश में 38.4% बच्चों का वजन औसत से कम है। 23.4 फीसदी बच्चे शारीरिक रूप से कमजोर, 8.7% बच्चे अति कमजोर और 40.8 फीसदी बच्चे अविकसित हैं। 2011 जनगणना के अनुसार प्रदेश में एक करोड़ से ज्यादा बच्चे 0-6 साल की उम्र के हैं।

राजस्थान में पोषण की कमी से जूझते हजारों बच्चों का ये दर्द को सिर्फ आंकड़ों से महसूस नहीं किया जा सकता। ये वो पीड़ा और एक ऐसा कुचक्र है जिसमें वे पीढ़ियों से पिस रहे हैं। कुपोषण से पीड़ित लाखों नौनिहालों के इलाज के लिए भारत सरकार ने 2011 में जिला अस्पताल और मेडिकल कॉलेज स्तर पर कुपोषण निवारण केन्द्र (एमटीसी) स्थापित किए। बाद में इन एमटीसी को सीएचसी (सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र) स्तर तक ले जाया गया। ऐसे बच्चों को गांवों से सीएचसी तक लाने की जिम्मेदारी आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को दी गई, लेकिन इस काम में ये कार्यकर्ता उम्मीद की मुताबिक प्रदर्शन नहीं कर पाईं। नतीजा यह हुआ कि छोटे-छोटे गांवों के कुपोषित बच्चे इन एमटीसी तक नहीं पहुंच पा रहे।

इसके अलावा एक समस्या और सामने आई कि जो बच्चे अपना इलाज करा वापस आते हैं उन्हें अपने घरों में लगातार संतुलित आहार नहीं मिल पाता। इसीलिए वे वापस कुपोषण की चपेट में आ जाते हैं। इस तरह गरीबी के कारण कुपोषण और कुपोषण के कारण गरीबी का कुचक्र चलता रहता है।

इस कुचक्र को तोड़ने की एक कोशिश राजस्थान के उदयपुर जिले ने बीते साल नवंबर महीने से की है। उदयपुर जिला प्रशासन ने एमटीसी को ब्लॉक (सीएचसी) से हटाकर ग्राम पंचायत स्तर पर खोलने की योजना बनाई और गांवों में विशेष कैंप लगाए। उदयपुर ऐसा करने वाला राजस्थान का पहला जिला है।

उदयपुर की तत्कालीन कलेक्टर आनंदी बताती हैं, “एमटीसी को पंचायत स्तर पर इसीलिए लाया गया क्योंकि ब्लॉक और जिला लेवल पर बेहद कम संख्या में बच्चे पहुंच पा रहे थे। उदयपुर जिला अस्पताल के एमटीसी में 2014-15 से 2019-20 तक कुल 5976 बच्चे भर्ती हुए। इनमें से सिर्फ 152 बच्चे (2.74%) आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं द्वारा लाए गए थे। बाकी बच्चे अन्य बीमारियों के कारण अस्पताल तक पहुंचे थे।

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वे आगे बताती हैं, “आंकड़ों से स्पष्ट हो गया कि कुपोषण निवारण केन्द्र (एमटीसी) अपने लक्ष्यों को पूरा नहीं कर पा रहे हैं। साथ ही आंगनबाड़ी और आशा कार्यकर्ता भी अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा पाई हैं। किसी अन्य बीमारी के लिए जिला अस्पताल या सीएचसी आ रहे बच्चों में मेडिकल टेस्ट के दौरान पोषण की कमी के लक्षण सामने आते हैं। इसके बाद डॉक्टर ऐसे बच्चों के कुपोषण का इलाज पहले करते हैं ताकि वे जिस बीमारी के लिए भर्ती हुए हैं, वो ठीक की जा सके। जबकि मुख्य समस्या बच्चे का कुपोषित होना ही है।”

कुपोषण की चपेट में आ चुके बच्चे के साथ माता-पिता

“अस्पतालों तक कुपोषित बच्चे नहीं पहुंचने के कई आर्थिक और सामाजिक कारण भी हैं। इन्हीं कारणों के चलते अल्पपोषित बच्चों के माता-पिता इस स्थिति में नहीं होते कि वे इलाज के लिए लगातार 15 दिन (कुपोषण का इलाज इतने दिन चलता है) उन्हें लेकर घर से बाहर रह सकें। इससे उनकी पारिवारिक स्थिति बिगड़ जाती है। इसीलिए हमने एमटीसी को पंचायत स्तर पर खोलने की शुरूआत की। इसमें आसपास के गांवों से लोग आने लगे और इसके अच्छे परिणाम सामने आए। हमने नवंबर से मार्च 2020 तक113 कैंप लगाकर 2968 कुपोषित बच्चों का इलाज पंचायत स्तर की एमटीसी मेंकिया। सभी का इलाज दिन में किया ताकि परिजनों को रात में नहीं रूकना पड़े। इलाज के बाद फॉलोअप के लिए बीमार बच्चों के परिवारों को समाजसेवी संस्थाओं के जरिए तीन महीने का राशन दिया, लेकिन फिर भी हमें लग रहा था कि कुपोषण का ये स्थायी समाधान नहीं है। इसीलिए बच्चों को फिर से कुपोषण के कुचक्र में फंसने से बचाने के लिए सुपोषण वाटिका विकसित करने का विचार आया।” आनंदी बताती हैं।

बता दें कि उदयपुर में करीब 12 हजार कुपोषित बच्चे हैं, जिनमें से अधिकतर आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। एनएफएचएस-4 के अनुसार कुपोषण के मामले में उदयपुर जिले की देश में 475वीं रैंक है।

क्या है सुपोषण वाटिका?

सुपोषण वाटिका कुपोषण का इलाज कर लौटे बच्चों को पौष्टिक आहार देने का स्थायी समाधान देने की एक कोशिश है। प्रायोगिक तौर पर उदयपुर जिले की 16 पंचायत समितियों की 112 ग्राम पंचायतों में इसे फरवरी में शुरू किया गया, लेकिन लॉकडाउन के कारण योजना आगे नहीं बढ़ सकी। अब इसे फिर से शुरू किया गया है।

उदयपुर लोक सेवा में सहायक निदेशक दीपक मेहता सुपोषण वाटिका से संबंधित जानकारी गांव कनेक्शन से साझा करते हैं। वे बताते हैं, “योजना के तहत जिन 2968 कुपोषित बच्चों का इलाज एमटीसी कैम्प में हुआ है, उनके घरों पर सुपोषण वाटिका लगाई जा रही है। जिला प्रशासन कृषि विभाग के माध्यम से 8 से 12 फीट के घेरे में मौसम के अनुसार 16 तरह की सब्जी और पांच फलदार पौधों की बुआई कर रहा है। वाटिका तैयार करने के लिए मनरेगा के जरिए मजदूर भी उपलब्ध कराए जा रहे हैं।”

“वाटिका में अलग-अलग स्टेप बनाकर क्यारियां बनाई जा रही हैं। पहले सब्जी और अंदर फलों के पेड़ लगाए जा रहे हैं। साथ ही क्यारी के अंदर जाने के लिए रास्ता भी बनाया जा रहा है। बेकार बहने वाले पानी का उपयोग हो सके इसके लिए क्यारी के बीच में नहाने की जगह भी बनाई गई है। एक साल तक वाटिका से संबंधित सभी खर्चे उदयपुर जिला प्रशासन वहन करेगा। बाद में इन वाटिकाओं को इन्हीं परिवारों को सौंप दिया जाएगा। इन वाटिकाओं में भिंडी, लौकी, तुरई, बैंगन, टमाटर, मिर्च, कद्दू, मटर, मूली, गाजर, गोभी, मेथी और धनिया की सब्जी मौसम के अनुसार उगाई जाएंगी। फलों में पपीता, सहजना, नींबू, अमरूद और आम के पेड़ लगाए जा रहे हैं। अब तक 2968 परिवारों में से 40% को कृषि विभाग बीज वितरित कर चुका है।” वे आगे बताते हैं।

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उदयपुर के बिलवन ग्राम पंचायत का 3 वर्षीय राज (बदला हुआ नाम) उन बच्चों में से है जिसका कुपोषण का इलाज चला है। रामू की मां बिजणी देवी (बदला नाम) उन परिवारों में शामिल है जिनके घर सुपोषण वाटिका विकसित की गई है। वे बताती हैं, ‘राज कमजोरी के कारण पहले चल भी नहीं पाता था। हमेशा बैठा ही रहता था। फिर इसे कोटड़ा में एक कैम्प में डॉक्टरों को दिखाया। उन्होंने खून की कमी बताई और इलाज शुरू किया। इलाज के बाद मेरा बेटा चल पा रहा है। अब सरकार ने ये बाड़ी (वाटिका) लगाई है, जिसमें सब्जी और फल के पौधे भी लगाए हैं।इससे हमें कुछ दिनों बाद हरी सब्जी मिलेंगी।’

सुपोषण वाटिका जहां फल, सब्जी लगाये जा रहे हैं।

ऐसा ही कुछ गोगरूद गांव की काली बाई (बदला नाम) कहती हैं। वे बताती हैं कि उनकी ढाई साल की बच्ची शशि (बदला नाम) हमेशा बीमार रहती थी। हाथ-पैर एकदम पतले थे। पेट और सिर जरूरत से ज्यादा भारी दिखते थे। कुछ महीनों पहले ही गांव में कैम्प लगा। मैं 15 दिन तक बच्ची के साथ कैंप में रही और उसका इलाज कराया। शशि अब ठीक है और चल-फिर पाती है। पोषाहार के लिए सरकार ने मेरे घर में सब्जी और फलों के पौधे लगाए हैं। ये हमारे लिए फायदेमंद होगा क्योंकि परिवार को इस बाड़ी से लगातार ताजी-हरी सब्जी मिलेंगी। बच्चों की सेहत भी अच्छी रहेगी।

क्यों जरूरी हैं सुपोषण वाटिका?

देश में 58.6% बच्चे एनीमिया पीड़ित हैं जबकि 38 फीसदी बच्चे कुपोषण के कारण कम हाइट के हैं, 36% बच्चों का वजन उनकी उम्र से कम है। उदयपुर के आंकड़े बताते हैं कि जिला स्तर पर बने एमटीसी में ग्रामीण क्षेत्रों के गरीब परिवार खुद बच्चों को लेकर नहीं जाते हैं। दरअसल, ग्रामीण क्षेत्रों के लिए कुपोषण कोई बीमारी है नहीं।

उदयपुर जिले में आदिवासी विकास मंच संस्था चला रहे सामाजिक कार्यकर्ता सरफराज़ शेख गांव कनेक्शन से कहते हैं, “आदिवासी इलाकों में काम करना काफी चुनौतीपूर्ण होता है। आदिवासियों में शहरी समाज के प्रति अविश्वास होता है। साथ ही उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं होती कि वे लगातार 15 दिन इलाज के लिए जिला अस्पताल में रह सकें। इसके अलावा कुपोषण जैसे मुद्दे पर प्रशासन का नजरिया भी सकारात्मक नहीं होता। इस बार हमें और अन्य संस्थाओं को प्रशासन का सहयोग मिला है तो जो जो काम हुआ है उसके सकारात्मक नतीजे आ रहे हैं।”

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“कपोषण से लड़ाई कोई एक विभाग अकेले नहीं लड़ सकता। कुपोषण निवारण अभियान और सुपोषण वाटिका में जिला प्रशासन, कृषि विभाग, आईसीडीएस और कई सामाजिक संस्थाओं ने मिलकर काम किया है इसीलिए 2968 बच्चे कुपोषण से बाहर लाए जा सके हैं। अब उन्हें सालभर पौष्टिक आहार देने के लिए सुपोषण वाटिका लगाई गई हैं, हालांकि इसके नतीजे पूरी तरह आने अभी बाकी हैं, लेकिन अभी तक के प्लान के अनुसार अच्छे परिणाम मिले हैं। इस आधार पर मैं कह सकता हूं कि इस मॉडल को पहले पूरे राजस्थान और बाद में देशभर में लागू किया जाना चाहिए ताकि कुपोषण से जूझते देश को इसके खात्मे के लिए एक टिकाऊ उपाय मिल पाए।” सरफराज़ आगे कहते हैं।

नोट- (Vulnerable Community के होने कारण हम कुपोषित बच्चों और परिवार की पहचान उजागर नहीं कर सकते)

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