तिब्बत के गांव: अभावग्रस्त और दुर्गम मगर जहां मेहनतकश लोग रहते हैं

मनीषा कुलश्रेष्ठ हिंदी की लोकप्रिय कथाकार हैं। गांव कनेक्शन में उनका यह कॉलम अपनी जड़ों से दोबारा जुड़ने की उनकी कोशिश है। अपने इस कॉलम में वह गांवों की बातें, उत्सवधर्मिता, पर्यावरण, महिलाओं के अधिकार और सुरक्षा जैसे मुद्दों पर चर्चा करेंगी।

Manisha KulshreshthaManisha Kulshreshtha   5 Feb 2019 6:30 AM GMT

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तिब्बत के गांव: अभावग्रस्त और दुर्गम मगर जहां मेहनतकश लोग रहते हैं

हर देश का चेहरा भले शहर होते हों, मगर देश की रीढ़ तो गांव ही होते हैं। गांव ही हैं जहां कृषि, पशुपालन, नदियां, तालाब और बांध होते हैं। बिजली भी दूरस्थ इलाकों में बनती है। देश की अर्थव्यवस्था में भी गांव महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

तिब्बती गांव आमतौर पर 10-12 घरों वाले होते हैं। सभी फोटो: मनीषा कुलश्रेष्ठ

ऐसा ही तिब्बत में भी है। तिब्बत चीन का एक हिस्सा है आजकल। कहते हैं स्वायत्त है, मगर सच्चाई यह है कि चीन का हस्तक्षेप पूरा है वहां। तिब्बत को संसार की छत कहा जाता है। ये बहुत ऊंचे, ठंडे, रेगिस्तानी हिमालयी पठार बहुत दुर्गम हैं। यहां जीवन कतई आसान नहीं है। पर यहां गांव हैं। चाहे वे तीन चार मकानों वाले गांव हों कि कई आधुनिक घरों, बाज़ारों वाले गांव। यह निर्भर करता है कि वे किस मार्ग से चीन से जुड़े हैं। कैलाश–मानसरोवर की यात्रा में पड़ने वाले गांव अब क़स्बों में तब्दील हो गए हैं। क्योंकि धार्मिक पर्यटन से वे आर्थिक लाभ उठा लेते हैं। हर साल के चार महीने मई से सितम्बर तक नेपाल के रास्ते हजारों कैलाश और मानसरोवर यात्री यहां से गुज़रते हैं। यहां के व्यापार को सशक्त करते हैं। मड गेस्ट हाऊस, यानि पुराने ढंग के मिट्टी–लकड़ी के बने कच्चे घरों में आज से पांच–सात साल पहले तक यात्री ठहरा करते थे। साफ बिस्तर, गर्म कमरे और खाना इन्हें मिल जाता था। अब कहीं–कहीं सागा, दारचेन, झांगमू जैसी जगहों में आलीशान होटल भी मिलने लगे हैं।

मगर ये होटल चीनियों के हाथ हैं। निचले तबके के आम तिब्बती अब भी घोड़ों पर यात्रियों और याकों पर सामान ढोने का काम करते हैं। मड गेस्ट हाऊसेज़ चलाते हैं।

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तिब्बत के दूरस्थ पहाड़ी गांव अभाव वाले, दुर्गम गांव हैं, मगर वहां के लोग मेहनतकश हैं। वे जब मौसम अनुकूल होता है थोड़ी खेती करते हैं। फल उगाते हैं। याक पालन, भेड़ पालन से गुज़ारा करते हैं। वे भेड़ की ऊन का काम खूब जानते हैं। हथकरघों पर बहुत सुंदर वस्त्र भी बुनते हैं।

अमूमन तिब्बती छोटे कस्बों और 10-12 घरों के पर्वतों की वादियों वाले गांवों में ही रहते हैं। ऐसे गांव जहां से मुख्य सड़क पर पहुंचनें में 2–3 या कई बार 6-7 घंटे लगते हों। कई ऐसे तिब्बती गांव भी हैं जहां के लोगों ने टीवी, हवाईजहाज़, बाहरी दूसरे देश ही नहीं, चीन के लोगों तक को नहीं देखा है। खूब नदियां होने, कई जगह पनबिजली योजनाओं के चलते और सौर ऊर्जा के बहुतायत में प्रयोग के बावजूद बर्फीले मौसमों में बिजली की किल्लत तिब्बत झेलता है।

तिब्बती महिलाएं बहुत मेहनती होती हैं।

तिब्बत में ऐसी जगहें भी हैं जहां, कुछ पैदा नहीं होता। केवल बर्फ, रेत, चट्टानें, पठार और ज़मीनी झाड़ियां। वहां घुमंतु प्रजातियां रहती हैं। वे टैंट लेकर याक, घोड़ों, भेड़ों और झबरीले तिब्बती कुत्तों के साथ घूमते रहते हैं। जहां अनुकूल लगा वहीं डेरा डाल लिया।

तिब्बती भिक्षु मॉनेस्ट्रीज़ में रहते हैं।

तिब्बती मकान हमेशा दक्षिण की ओर मुख वाले होते हैं। वह भी पहाड़ की ढलान पर जो फ़ेंगशुई नहीं, हवाओं की दिशा की वजह से तय किया गया है। जब तिब्बती नया मकान बनाते हैं, लामा इसकी पूजा करते हैं, ठीक हिंदुओं की तरह चावलों के दाने चारों ओर छिड़क कर।

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बर्फ़ीले मौसमों में तिब्बती ज़्यादातर घरों में बंद रहते हैं। घर में दिन रात आग जली रहती है। साल के अच्छे मौसमों में जमा किया धान, मकई, सुखाया मांस, सूखी सब्जियां और पशुओं से भरा बाड़ा बर्फ़ीली सर्दियों में काम आता है। वे इन दिनों घरों में रह कर ढेर सारे कंबल, ऊनी कपड़ा बुनते हैं। खाते– नमकवाली चाय पीकर आराम करते हैं।

नदियों पर पुल बनाना, टूटे रास्ते बनाना आदि वे मिलजुल कर करते हैं। मॉनेस्ट्रीज़ के भिक्षुओं के भोजन का ख्याल भी गांव वाले रखते हैं, बदले में वे धार्मिक आयोजन करवाते हैं।

तिब्बत अब तेज़ी से विकसित हो रहा है, ल्हासा एकदम आधुनिक रूप ले चुका है। छोटे शहर शिगासे, सागा, दारचेन, खैरूंग वगैरह भी अब विकसित होने लगे हैं। सड़क मार्ग तो ठीक-ठाक है तिब्बत का, अब रेलमार्ग का भी प्रावधान होने को है।

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किंतु चीन के दूसरे हिस्सों के मामले में देखें तो तिब्बत सौतेला बच्चा है चीन का। तिब्बत में आजादी को लेकर विद्रोह प्रदर्शन होते रहते हैं।

(मनीषा कुलश्रेष्ठ हिंदी की लोकप्रिय कथाकार हैं। इनका जन्म और शिक्षा राजस्थान में हुई। फौजी परिवेश ने इन्हें यायावरी दी और यायावरी ने विशद अनुभव। अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों, सम्मानों, फैलोशिप्स से सम्मानित मनीषा के सात कहानी कहानी संग्रह और चार उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। मनीषा आज कल संस्कृति विभाग की सीनियर फैलो हैं और ' मेघदूत की राह पर' यात्रावृत्तांत लिख रही हैं। उनकी कहानियां और उपन्यास रूसी, डच, अंग्रेज़ी में अनूदित हो चुके हैं।)

       

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