गोयनका अवार्ड जीती कहानी: ओलंपिक का ख्वाब देखती गुड्डी

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गोयनका अवार्ड जीती कहानी: ओलंपिक का ख्वाब देखती गुड्डी

अनु सिंह

अकबरपुर (अलवर)। अपनी सहेलियों की भीड़ में पीछे की तरफ़ बैठी गुड्डी बानो अपने उम्र की लड़कियों की तरह ही है चुलबुली और उम्मीद से भरी हुई, बात-बात पर मुंह पर हाथ रखकर खिलखिलाने को तैयार। लेकिन गुड्डी अपनी सहेलियों की भीड़ से फि र भी अलग है। च्च्गुड्डी, अपने बारे में कुछ बताओज्ज् ये पूछने पर गुड्डी हैरान होकर दूसरों की ओर देखने लगती है। ऐसा नहीं कि उसके पास बताने को कोई बात नहीं। बात तो ये है कि इस प्रतिभाशाली लड़की की कहानी इतनी दिलचस्प है कि उसे सूझता ही नहीं कि वो शुरू कहां से करे। राष्ट्रीय स्तर के खेलों में राजस्थान का प्रतिनिधित्व कर चुकी तेरह साल की गुड्डी बानो का जीवन ना सिर्फ बच्चों के लिए, बल्कि वयस्कों के लिए भी उतना ही प्रेरणादायक है।    

गुड्डी सातवीं में पढ़ती है। अलवर के पास के एक गाँव अकबरपुर के कस्तूरबा गांधी विद्यालय की छात्रा है। पांच भाई-बहनों के परिवार का पालन-पोषण करने के लिए भेड़-बकरियां चराने के अलावा उसके मां-बाप के पास और कोई चारा नहीं। खेत है नहीं, इसलिए बच्चों को भी इसी काम में लगा दिया जाता है। परिवार की लड़कियां चूल्हा-चौका करते हुए उम्र से पहले की बड़ी कर दी जाती हैं। बारह-चौदह साल की उम्र में शादी इस इलाके का वो चलन है जिसके खिलाफ  बोलने वाला कोई नहीं, समाज और परिवारों में ये आम माना जाता है। परिवार नियोजन और महिला स्वास्थ्य जैसे मुद्दों से अनजान गांवों के लोग बेटों को तो मदरसे में भेज दिया करते हैंए बेटियों के लिए कोई रास्ता नहीं होता। 

गुड्डी भी अपने गाँव की बाकी लड़कियों की तरह भेड़-बकरियां चराते हुए, चूल्हा-चौका करते हुए एक दिन ब्याह दी जाती, अगर उसकी ख़ाला ने मां को उसे स्कूल भेजने के लिए समझाया न होता। कस्तूरबा में फीस नहीं लगती और किताब-कॉपी, खाने-पीने, रहने की भी सुविधा है। इसी लालच में मां-बाप ने गुड्डी को अपने गाँव से नौ किलोमीटर दूर कस्तूरबा गाँधी आवासीय विद्यालय, अकबरपुर भेज दिया। 

यहां भी गुड्डी साधारण तरीके से तीन साल की पढ़ाई किसी तरह पढ़कर निकल गई होती, लेकिन उसकी लंबाई और उसकी तीव्रता की पहचान गुड्डी के स्कूल की प्रिंसिपल श्रीमती रजनी शर्मा ने की। अपने स्कूल में खेलकूद और शारीरिक गतिविधियों पर ख़ासा ध्यान देने वाली श्रीमती शर्मा ने सबसे पहले गुड्डी का हुनर पहचाना। वो बाकी लड़कियों से बहुत तेज़ दौड़ती थी। वो बाकी लड़कियों से बहुत ऊंचा कूदती थी। 

पहले कक्षा के स्तर पर और फिर स्कूल के स्तर पर होने वाली प्रतियोगिताओं में गुड्डी अलग से नजऱ आती थी। उसका कोई मुक़ाबला नहीं था। श्रीमती शर्मा ने गुड्डी को प्रोत्साहित करने का फ़ै सला किया। जि़लास्तरीय प्रतियोगिताओं में कई गोल्ड मेडल हासिल करने के बाद जब राज्यस्तरीय प्रतियोगिता के लिए उसे जयपुर ले जाएगा तो गुड्डी के हाथ-पांव ठंडे होने लगे। इससे पहले गुड्डी ने कभी रेसिंग ट्रैक नहीं देखा थाए न कभी किसी स्टेडियम में बैठी थी। उसे दौड़ के नियमों की जानकारी नहीं थी। उसके पास ढंग के जूते नहीं थे, न किसी तरह का प्रशिक्षण हासिल किया था उसने। गुड्डी के पास दो ही चीज़ें थी, हुनर और जज्बा। उन दोनों ताक़तों के दम पर गुड्डी ने लंबी कूद में राज्य स्तर पर पहला स्थान हासिल कर लिया। इसके बाद सरकार की ओर से गुड्डी को राष्ट्रीय खेलों में हिस्सा लेने के लिए प्रशिक्षण की ख़ातिर दस दिनों के कैंप के लिए तिरुअनंतपुरम  भेजा गया। ये पहला मौका था कि जब गुड्डी ट्रेन में बैठी थी। अपने गाँव की पहली लड़की जो इतनी दूर जा रही थी। 

गुड्डी कैंप से लौट आई है। हर रोज़ नीम अंधेरे में उठकर अपनी दिनचर्या में प्रैक्टिस को शामिल कर लेना उसका रोज़ का काम है। बड़ी होकर क्या बनना चाहती हो, ये पूछने पर उसका जवाब स्पष्ट है। ओलंपिक में देश का नाम रौशन करना चाहती हूं। कैसे पहुंचोगी वहां तक? ये पूछने पर कहती है, मेहनत, अनुशासन और सब्र के दम पर। गुड़्डी बानो का जज्बा वाकई क़ाबिल-ए-तारीफ  है!  

 

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