ग्राम पंचायत हो प्राथमिक शिक्षा की स्वायत्त इकाई

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ग्राम पंचायत हो प्राथमिक शिक्षा की स्वायत्त इकाईगाँव कनेक्शन

प्राथमिक शिक्षा में गुणवत्ता एक चिन्ता का विषय है। माननीय उच्च न्यायालय ने  राय दी थी कि सरकारी अधिकारियों के बच्चे सरकारी स्कूलों में ही पढ़ें। यह तो बड़े स्कूल कालेजों की बड़ी बात है, ग्राम प्रधान, पंचायत सचिव, क्षेत्र पंचायत सदस्य, पंच या फिर सरकारी स्कूलों के अध्यापक भी अपने बच्चे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं। यह सरकारी अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों द्वारा वर्तमान सरकारी स्कूलों को दिया गया निकम्मेपन का प्रमाण पत्र है। 

सर्व शिक्षा अभियान के अन्तर्गत 6 से 14 साल के बच्चों को अनिवार्य रूप से विद्यालय पहुंचाना है। इस योजना में बच्चों से फीस नहीं ली जाती, किताबें निशुल्क दी जाती है, साल में दो बार स्कूल ड्रेस मिलती है, दोपहर को गरम खाना जिसे मिड डे

मील कहते हैं मिलता है, लेकिन गाँव का गरीब भी मजबूरी में ही अपने बच्चे सरकारी स्कूल भेजता है। इसका कारण है कि स्कूल का उद्देश्य ज्ञान देना है परन्तु वे ज्ञान के अलावा सब देते हैं।

ऐसी परिस्थितियों में जब शिक्षा विभाग प्राइवेट स्कूलों पर अंकुश लगाता है तो गाँव की भद्दी कहावत याद आती है कि बूढ़े बैल की तरह ''ना बर्दिहैं न बर्दै द्याहैं", जिसे सभ्य भाषा में कहा जा सकता है न पढ़ाएंगे और न पढ़ाने देंगे। शिक्षा विभाग ने प्राइवेट स्कूलों को मान्यता के लिए भवन, भूमि, पुस्तकायल और अध्यापकों की जो शर्ते लगा रखी हैं उन्हें तो स्वयं सरकारी स्कूल भी पूरा नहीं कर पाते। सच कहूं तो ज्ञान और बिल्डिंग का कोई सम्बन्ध ही नहीं है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने तो पेड़ों के नीचे संस्था आरम्भ की थी जिसे आज शान्ति निकेतन के नाम से दुनियाभर में जाना जाता है। ज्ञान तो गुरु से मिलेगा और हमारे देश में गुरु यानी अध्यापकों का स्थान भगवान से भी बढ़कर माना जाता था। 

आज के समय में सरकारी स्कूलों के अध्यापकों ने मजदूरों की तरह हड़तालें करना आरम्भ कर दिया है तो उन्हें भी मजदूरों वाला सम्मान मिल रहा है। सच कहूं तो अध्यापकों का जैसे जैसे वेतन बढ़ता गया उसी अनुपात में शिक्षा का स्तर गिरता गया। अब तो हम मैकाले की तरह क्लर्क भी नहीं पैदा कर रहे हैं जो शुद्ध हिन्दी और अंग्रेजी लिख सकें। 

ग्रामीण स्कूलों के अध्यापक जब अच्छा वेतन पाने लगे तो शहर में जमीन खरीद कर मकान वहीं बनाया और रोज शहर से गाँव पढ़ाने आते हैं, देर से पहुंचते हैं, जल्दी चले जाते हैं। सर्व शिक्षा के लिए बड़ी संख्या में अध्यापकों की नियुक्तियां हुई और तमाम नए स्कूल खुले परन्तु शिक्षा में गुणवत्ता की जो चिन्ता होनी चाहिए थी वह नहीं हुई।  

गुणवत्ता के लिए प्रत्येक पंचायत में कम से कम एक सरकारी प्राइमरी स्कूल ऐसा हो, जिसमें प्रत्येक कक्षा के लिए एक अध्यापक हो। इसके लिए बिना कुछ खर्चा किए उसी पंचायत के दूसरे स्कूलों के अध्यापकों को नियोजित किया जा सकता है। कम से कम एक आदर्श सरकारी प्राइमरी स्कूल बन जाएगा। सरकारी अध्यापकों की नई नियुक्तियां केवल पांच साल के लिए हों और इस बीच कोई स्थानान्तरण न हो। सेवा विस्तार तभी हो जब अध्यापक के खिलाफ ग्राम समाज या ग्रामवासियों को कोई शिकायत न हो। 

हर पंचायत में पांच अध्यापकों वाले आदर्श स्कूल बनने के बाद कुछ स्कूल ऐसे भी बच जाएंगे जहां कोई अध्यापक नहीं होगा। लेकिन गाँवों में शिक्षित बेरोजबगारों की कमी नहीं है जिन्हें रजिस्टर्ड सोसाइटी बनाने को कहा जा सकता है। बिना अध्यापक के जो स्कूल बचे हों उन्हें इन सोसाइटीज़ को सौंपा जा सकता है। सोसाइटियों से संचालित ऐसे प्राइवेट स्कूलों में फीस लेने की अनुमति हो और ये स्ववित्तपोषित हों। सरकारी सम्पत्ति की सुरक्षा प्रधान को दी जाए। सरकारी और सोसाइटी से संचालित सभी स्कूलों के शिक्षा स्तर की निगरानी शिक्षा विभाग की रहे। कक्षा 5 की  तहसील  स्तर पर, कक्षा 8 की जिला स्तर  पर और कक्षा 10 की कमिश्नरी स्तर पर एक साथ बोर्ड परीक्षा हो। पता चल जाएगा कौन कितना पढ़ाता है। इसके बाद भी स्कूलों की कमी रहेगी। यदि कोई नागरिक ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूल खोलना चाहे उसे बिना रोकटोक मान्यता दी जाए जिसके मानक ग्रामीण क्षेत्रों के लिए सरल हों। 

बोर्ड का परीक्षा फल लगातार खराब  हो तो मान्यता चली जाए। मैं समझता हूं सर्व शिक्षा के साथ ही गुणवत्ता भी बनी रहेगी।

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