ग्रामीण महिला खिलाड़ियों के सामने कई चुनौतियां

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ग्रामीण महिला खिलाड़ियों के सामने कई चुनौतियांgaoconnection

लखनऊ। बनारस के छोटे से गाँव भद्रासी से आई अंजू पटेल 19वर्ष की बचपन से ही रूचि खेल में थी । इसी खेल को अपना करियर बनाने के लिए वो लखनऊ तक आईं हैं और कम सुविधाओं में भी पूरी कोशिश जारी है। लखनऊ जिला मुख्यालय से लगभग 14 किलोमीटर दूर दक्षिण दिशा में गुरू गोविन्द सिंह स्पोर्ट कॉलेज में जहां एक ओर लगभग 50 लड़के अपने-अपने खेल के लिए अभ्यास कर रहे हैं, तो वहीं दूसरी छोर पर 15 ग्रामीण लड़कियां भी कोच के आदेश पर अपनी-अपनी प्रैक्टिस में व्यस्त हैं।

ये लड़कियां किसी बड़े शहरों से नहीं बल्कि छोटे छोटे गाँवों से आई हैं, जिनको अपने इस शौक के लिए कई तरह के विरोध का सामना भी करना पड़ा है। ये लोग यहां के हॉस्टल में रहकर नियमित अभ्यास करती हैं। हालांकि कॉलेज सिर्फ लड़कों का है, लड़कियों के लिए गर्ल्स हॉस्टल है, जिसमें रहकर वो अभ्यास कर सकती हैं। 

पिछले पांच सालों से हॉस्टल में रह रही एथलीट अंजू पटेल (18) एक साधारण परिवार की रहने वाली हैं और यहां जैबलिंग थ्रो का अभ्यास कर रही हैं। खेल को करियर के रूप में चुनते समय अंजू को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। वो बताती हैं, ‘’ गाँव में जहां लड़कियों को सिर्फ पढ़ाई के साथ सिलाई कढ़ाई सीखने की सलाह दी जाती है ऐसे में खेलने की इजाजत मिलना बहुत ही मुश्किल था। मैं अपने गाँव के ही स्कूल में रोज दौड़ने जाती थी इस पर भी लोग तरह तरह की बातें करते थे। ”अंजू आगे बताती हैं, “ कोई ट्रेनर तक नहीं था जो सिखाए हां लोग ये जरूर कहते थे कि ये लड़की तो हाथ से गई गाँव भर में दौड़ भाग न जाने कौन सा झण्डा गाड़ेगी।”

अंजू ने इन सब पर ध्यान न देकर अपनी कोशिश जारी रखी। परिवार वालों को इसके लिए मनाया और लखनऊ आकर अपनी प्रैक्टिस शुरू की। अब तक कई राष्ट्रीय स्तर के खेलों में अंजू मेडल जीत चुकी हैं। अंजू की तरह कई ऐसी एथलीट लड़कियां हैं, जो इलाहाबाद, मिर्जापुर, प्रतापगढ़ जैसे जगहों के गाँवों से लखनऊ आई हैं और हॉस्टल में रहकर अभ्यास कर रही हैं। खेल में रूचि होने के बाद भी ऐसी कई लड़कियां हैं, जिन्हें आर्थिक सहायता नहीं मिल पाती और योग्य होने के बाद भी आगे नहीं बढ़ पातीं।

महिला खिलाडिय़ों को प्रोत्साहन उतना नहीं मिल पाता कि वो पुरूषों के बराबर आगे आए फिर भी वो बेहतर कर रही हैं। भारतीय खेल प्राधिकरण के एथेलेटिक्स जोन शैलेन्द्र सिंह कहते हैं, ‘’खिलाडिय़ों का आधार मजबूत होना चाहिए, जो नहीं हो पाता क्योंकि शुरूआती समय में कोई ट्रेनर नहीं मिलता। खेलों को बढ़ावा देने के लिए कई योजनाएं चलाई जा रही हैं लेकिन उनका फायदा खिलाड़ी उठा नहीं पाते।” वो आगे बताते हैं, “खुशी की बात ये है कि फिर भी लड़कियां आगे आ रही हैं वो भी गाँवों से निकलकर तो उन्हें प्रोत्साहन की जरूरत है।”

ब्रिटिश जर्नल ऑफ स्पोर्टस मेडिसिन द्वारा ग्रामीण भारत के एथलीटों पर किया गया शोध बताता है कि ग्रामीण परिवेश में पली बढ़ी महिला एथलीटों में क्षमता बहुत होती है लेकिन अपर्याप्त शारीरिक क्षमताओं का पूरा प्रयोग नहीं कर पाती। तीस ग्रामीण महिला एथलीटों पर किये गये शोध में यह भी सामने आया कि 57 प्रतिशत महिलाएं क्रोनिक एनर्जी डिफिशियंसी से प्रभावित थीं। यह बीमारी शरीर के कम वजन और पोषक तत्वों की कमी से होती है।

महिला खिलाड़ियों के खाने पीने की व्यवस्था उतनी अच्छी नहीं है कि उन्हें पूरा पोषण मिल सके। मिर्जापुर से लगभग 15 किलोमटर दूर रसूलपुर गाँव की रहने वाली पूजा गुप्ता डिस्कस थ्रो की खिलाड़ी हैं। वो बताती हैं, ‘’यहां हॉस्टल में रहने का कोई खर्चा नहीं है लेकिन खाने-पीने का खर्चा हमें ही उठाना पड़ता है। घर से भी इतना पैसा नहीं आता। यहां नाश्ते में सिर्फ चाय बिस्कुट मिलता है। खाने में रोटी, सब्जी, दाल और चावल । मेन्यू बदलता रहता है। 

भारतीय खेल प्राधिकरण के एथेलेटिक्स जोन कमल कुमार सिंह बताते हैं, “खिलाड़ियों को जितनी जरूरत अथ्यास की होती है उतनी ही आहार की भी। लेकिन और देशों की अपेक्षा हमारे यहां इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता। यही कारण है कि कुछ प्रतिभाएं सामने नहीं आ पातीं और कुछ आकर पीछे चली जाती हैं। �” 

वो आगे बताते हैं, “एक लड़की को अभ्यास करने के बाद दो गिलास जूस चाहिए होता है लेकिन उसे यहां एक कप चाय मिल रही है तो वह कैसे आगे बढ़ पायेगी। प्रति खिलाड़ी सरकार एक दिन का सौ रुपये आहार पर देती है, जो अभी कुछ समय पहले बढ़ाकर 130 रूपए कर दिया गया है, लेकिन ये भी बहुत कम है।”

 

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