गुलाबजामुन की राजधानी में स्वागत है

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गुलाबजामुन की राजधानी में स्वागत है

भास्कर त्रिपाठी

 

मैगलगंज (लखीमपुर खीरी)। लखनऊ से लगभग 150 किलोमीटर दूर लखीमपुर खीरी के रास्ते दिल्ली जाते समय अगर आपको अचानक एक छोटे से बाज़ार से गुजरते हुए तेज़ मीठी सी खुशबू आये तो रुक जाईएगा। आस-पास की दुकानों पर लगे बोर्डों को देखिएगा यही लिखा मिलेगा, मैगलगंज में आपका स्वागत है गुलाबजामुन खाकर जाईएगा।

 

अगल-बगल नजऱ घुमाएंगे तो पाएंगे की बोर्डों पर लिखी लाइनें पढऩे वाले आप अकेले नहीं हैं। हाईवे पर बसे इस छोटे से कस्बे में सड़क के किनारे कतार में खड़ी ढेरों गाडिय़ां और अगल-बगल से गुलाबजामुन मुंह में डालते ही निकलने वाली सहसा तारीफें आपको विश्वास दिला देंगी कि कुछ तो खास है ही यहां के गुलाबजामुन में।

 

एक तरफ पूर्वी भारत के दो राज्यों, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में रसगुल्ले को अपना बताने को लेकर खींचतान इतनी बढ़ गयी है कि ओडिशा को रसगुल्ला अपना साबित करने के लिए कमेटी गठित करनी पड़ी है| वहीँ दूसरी ओर मैगलगंज गुलाबजामुन का निर्विवाद गढ़ बना हुआ है|

किसी भी दुकान पर खड़े हो जाइये यहां आपको अपने आस-पास भाषाई विविधता देखने को मिल जाएगी। कुछ लोग गंवई अंदाज़ में खेत-खलिहान की बातें बतलाते मिल जाएंगे तो कुछ फटाफटा अंग्रेजी में अपनी अगली रोड ट्रिप यानि हिंदी में कहें तो सड़क यात्रा प्लान करते दिख जाएंगे। एक तबका खुद को धरती पुत्र कहता है और धोती पहनता हैए दूसरा वो जिसने जीन्स-टीशर्ट चढ़ा रखी है और कहलाता है मॉर्डन। लेकिन भाषाए पहनाव और विचारों के सालों के सफर के बाद ये जो दो ध्रुव बन गये हैं उन्हें हांडी में पड़ा गर्म, मीठा और नटखट सा गुलाबजामुन एक कौर भर में जोड़ देता है। एक पीस मुंह के अंदर जाते ही दोनों ही वर्ग एक ही बात बोलते हैं, बढिय़ा गुलाबजामुन है।

 

विचारों तक में मिलावट वाले इस दौर में यह गुलाबजामुन भी पीछे नहीं हैं फर्क बस इतना है कि इसे बनाने में होने वाली मिलावट भी दो शुद्ध चीज़ों की ही होती है एक गाय के दूध से बना खोया और दूसरा भैंस के दूध से बना खोया। इन दोनों अलग-अलग प्रकृति के खोया का मिक्सचर ही मैगलगंज के गुलाबजामुन की खासियत भी है। इसीलिए इनमें मुंह में डालते ही आईस्क्रीम की तरह घुल जाने का गुण भी आ पाता है जो इन्हें और कहीं मिलने वाले गुलाबजामुन से अलग बनाता है। यहां के गुलाबजामुन की एक और खास बात हैए मैगलगंज में इन्हें मिट्टी को पकाकर बनाई गई हांडियों में भरकर दिया जाता है। मतलब यह कि एक तो पहले ही गज़ब के स्वादिष्ट हैं दूसरा उसमें मिट्टी का सौंधापन मिलाकर उन्हें स्वाद की कातिल फैक्ट्री बना दिया।

पप्पू के गुलाबजामुन, गुप्ता मिष्ठान, धनपाल मिष्ठान और भी कई अलग-अलग नामों से चलने वाली यहां की सभी दुकानें बड़ा गौरवान्वित होकर लिखती हैं, ‘हमारी खासियत है शुद्ध खोये से बने गुलाबजामुन। यह बताने वाली आधा किलोमीटर की बाज़ार में कम से 25 दुकानें हैं जिनमें से सबसे पुरानी और मशहूर है धनपाल मिष्ठान। इसका पता आपको दुकान के बाहर लगी भीड़ देखकर लग जाएगा। भइय्या 10 पीस गुलाब जामुन डाल दो”, “25 पीस गुलाब जामुन ले जाने हैं”, “यार दिल्ली तक खराब तो नहीं होंगेयही आवाज़ें दुकान के काउंटर पर गूंजती रहती हैं। जिनके जवाब में काउंटर के दूसरी तरफ  यानि दुकान के अंदर से राहुल गुप्ता कहते हैं, “बस दो मिनट में पैक हो जाएगा।राहुल गुप्ता धनपाल मिष्ठान प्रबंधक हैं। काले-सफेद चेक की शर्ट पहने राहुल के हाथ हांडी में गुलाबजामुन डालकर सिल्वर फॉयल लपेटने में किसी मशीन की तरह काम करते हैं। पांच पीस हों या पचास पलक झपकते ही गुलाबजामुन पैक।

 

वर्ष 1941 में हमारे दादा धनपाल गुप्ता जी ने यह दुकान खोली थी। काफी समय बीत गया लेकिन हमारे यहां वैसे ही गुलाबजामुन मिलते हैं जैसे पहले मिला करते थे” 32 साल के राहुल गुप्ता हांडी पर फॉयल बांधते हुए बताते हैं।

 

राहुल के दादा धनपाल खादी कुर्ता और टोपी पहना करते थे और दुकान का सारा हिसाब कागज़-कलम से होता था। वहीं राहुल सारा लेखा-जोखा अपने छह इंच के टेबलेट कम्प्यूटर में रखते हैं।

सात दशक में बहुत कुछ बदल गया दुकान के बाहर जहां पहले बैलगाडिय़ां रुका करती थीं वहां अब लग्जऱी कारें खड़ी होने लगी हैं। कॉपी-रजिस्टरों की जगह अत्याधुनिक टेबलेटों ने ले ली पर जो नहीं बदला वो है धनपाल मिष्ठान के गुलाबजामुन का स्वाद।

 

मैगलगंज के गुलाबजामुन आपको परम आनंद तो प्राप्त नहीं करा सकते पर ये आपकी यादों के एक मीठे से हिस्से पर कब्ज़ा ज़रूर कर लेते हैं।

 

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