इंसानियत पर हैवानियत का हमला कैसे रुकेगा?
डॉ. शिव बालक मिश्र 22 Nov 2015 5:30 AM GMT

फ्रांस पर आतंकी हमले के सन्दर्भ में अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा, मुस्लिम देशों और लोगों ने उतनी मुखर आलोचना नहीं की जितनी करनी चाहिए थी। वह चाहें तो भारत आकर देखें किस तरह यहां का मुस्लिम समाज सड़कों पर उतर कर आतंकवाद की भर्त्सना कर रहा है। मुस्लिम धर्मगुरु नहीं मानते कि इस्लाम की रक्षा के लिए बगदादी जैसे लोगों की जरूरत है। मौलाना मदनी ने आतंकवाद के खिलाफ आन्दोलन का आवाह्न किया है और वह मानते हैं कि मुसलमानों के लिए दुनिया में हिन्दुस्तान से बेहतर कोई जगह नहीं। यही बात मौलाना अबुल कलाम आजाद ने इस देश को 'दारुल अमन' बताकर कही थी।
रूस-फ्रांस के राष्ट्रपतियों ने आइसिस को नेस्तनाबूद करने का संकल्प लिया है।
लेकिन आइसिस ही क्यों दुनिया में हर देश में आतंकवादी संगठन हैं जिनमें अलकायदा, अलबद्र, हरकतुल मुजाहिदीन, हिज़बुल मुजाहिदीन, इंस्लामिक मुजाहिदीन, जैसे मुहम्मद, लश्करे तैयबा, सिमी, इंडियन मुजाहिदीन जैसे ना जाने कितने संगठन शामिल हैं। इनसे दुनिया का कल्याण हो रहा है क्या?
कहने की जरूरत नहीं कि ओसामा बिन लादेन, मुल्ला उमर, हाफिज़ सईद जैसे लोगों की मदद की थी अमेरिका ने अफगानिस्तान में अपने स्वार्थ के लिए। पाकिस्तान तो मोहरा है, असली गुनहगार तो अमेरिका है, जिसने अफगानिस्तान में इन सबको ट्रेनिंग दी, हथियार मुहैया कराए, पैसे देकर इनका इस्तेमाल किया। जब ये भस्मासुर बन गए तो चिन्ता बढ़ी और हाय-तौबा मचा रहे हैं। पुतिन ने ठीक ही कहा, आतंकवादियों को 40 देशों से पैसा मिलता है जिनमें कुछ तो जी-20 के सदस्य है।
आतंकवादियों को मार डालने से आतंकवाद समाप्त नहीं होगा, ओसामा के बाद भी जवाहिरी ने कमान संभाली अब कोई और संभाल रहा होगा। आतंकवादी भूखे-नंगे नहीं हैं, उन पर जुल्म भी नहीं ढाया जा रहा है, और उनका मज़हब यदि है कोई तो वह भी खतरे में नहीं है इसलिए आतंकवाद से वह ''सैडिस्टिक प्लेज़र" यानी दूसरों के दर्द से आनन्द के अलावा क्या हासिल करते हैं। पता लगना चाहिए कि आतंकवाद की जड़ कहां है। यह विद्वानों की रिसर्च का विषय है।
कठिनाई यह है कि रूस और अमेरिका दोनों ही बगदादी को समाप्त करने पर लगे हैं परन्तु वे मिलकर नहीं लड़ रहे हैं, उनके स्वार्थ अलग-अलग हैं। बेहतर होगा अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय मिलकर दुनिया से आतंकवाद समाप्त करने की बात सोचे, केवल वहीं कांटा जो अमेरिका या रूस को चुभ रहा है उसी को निकालने से काम नहीं चलेगा।
धरती पर हैवानियत तभी तक है जब तक उसे शह देने और शरण देने वाले मौजूद हैं। भले ही आतंकवादी इस्लाम के नाम पर तबाही मचाते हैं और ''अल्लाह ओ अकबर" का नारा लगाकर फ्रांस में बम फेंकते हैं परन्तु ये ''शैतान" के बन्दे हैं। इस्लाम के जानने और मानने वाले कहते हैं कि ऐसी हरकतें करने वाले इस्लाम के अनुयायी यानीं मुसलमान नहीं हैं।
फ्रांस के पहले चेचन्या, न्यूयार्क और भारत में हमले हो चुके हैं, जिनमें भी तमाम जानें गई थीं। पहले ऐसी घटनाएं इक्का-दुक्का हुआ करती थीं। जब दो बार विश्व युद्ध हुआ तब भी यह नहीं लगा था कि क़यामत आने वाली है। तब लड़ाई स्वार्थ और हिटलर जैसों के अहंकार के कारण होती थी। आतंकवादी तो ''सैडिस्टिक प्लज़र" यानी दर्द देकर आनन्द पाते हैं।
आतंकवादी चाहे जितना कहेंं कि वे पैगम्बरे इस्लाम को मानते हैं और कुरान शरीफ के बताए रास्ते पर चलकर इस्लामिक स्टेट बनाना चाहते हैं परन्तु कोई नहीं मानेगा। यह मुस्लिम नौजवानों को बरगलाने का तरीका भर है। हैवानियत के साथ इंसानियत की लड़ाइयां पहले भी हुई हैं और हमेशा इंसानियत की जीत हुई है। यदि हैवानियत जीत गई तो कयामत का दरवाजा खुल जाएगा। दुनिया के हुक्मरानों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। हमारे देश में देवासुर संग्राम का वर्णन आता है जब बुद्धिबल से राक्षसों का विनाश किया गया था। फ्रांस ने अपने घाव ठीक होने का इन्तजार न करके हैवानियत को मिटाने का सिलसिला आरंभ कर दिया। लेकिन यह संग्राम केवल अपने देशहित के लिए न होकर निष्पक्ष भाव से इंसानियत को बचाने के लिए होना चाहिए।
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