इंटरनेट बंद करना उपाय नहीं, सही उपयोग ज़रूरी

रवीश कुमाररवीश कुमार   20 April 2016 5:30 AM GMT

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इंटरनेट बंद करना उपाय नहीं, सही उपयोग ज़रूरीEditorial, internet

प्रशासन और सरकारों को अब सोशल मीडिया से घबराहट होने लगी है। फिर से कश्मीर और गुजरात में कई ज़िलों में इंटरनेट सेवा बंद की गई है। कश्मीर के कुपवाड़ा, बारामुला, बांदीपुरा, गांदरबल में नेट सेवाएं बंद करने की ख़बर है। गुजरात में पिछले साल अगस्त के महीने की तरह इस बार भी पटेल आंदोलन को लेकर इंटरनेट सेवा बंद कर दी गई है। इंटरनेट सेवा बंद करना धड़ से धारा 144 लगा देने जैसा हो गया है। अब तो परीक्षाओं में चोरी रोकने के लिए भी उस दौरान शहर में इंटरनेट सेवा बंद कर दी जाती है। फरवरी महीने में गुजरात में ही राजस्व लेखपाल की परीक्षा के दौरान सुबह नौ बजे से एक बजे तक के लिए इंटरनेट सेवा बंद कर दी गई ताकि नकल न हो सके। ये फैसले बता रहे हैं कि इंटरनेट अब मुक्त आकाश नहीं रहा।

द वायर नाम की न्यूज़ साइट ने लिखा है कि कश्मीर में पिछले चार साल में 18 से 25 दिनों के लिए इंटरनेट सेवा बंद की गई है। पिछले साल हफिंगटन पोस्ट की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2013 से 2015 के बीच चार राज्यों में नौ बार इंटरनेट सेवाएं बंद की गईं हैं। गुजरात, कश्मीर के अलावा नागालैंड और मणिपुर में इंटरनेट बंद हुआ है। 2011 में ओईसीडी (ऑर्गनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलेपमेंट) ने एक अनुमान लगाया था कि मिस्र में पांच दिनों के लिए इंटरनेट बंद कर देने से नौ करोड़ डॉलर का नुकसान हो गया था। 2015 में जर्मनी की एक संस्था ने पाकिस्तान में इंटरनेट बंद किए जाने को लेकर एक अध्ययन कर बताया था कि कैसे न सिर्फ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला होता है बल्कि राष्ट्रीय या व्यक्तिगत सुरक्षा या बिजनेस को भी नुकसान पहुंच सकता है। भारत में भी टाइम्स ऑफ इंडिया से लेकर इंडियन एक्सप्रेस ने लिखा है कि गुजरात में पटेल आंदोलन के पहले चरण के दौरान इंटरनेट बंद करने से 30 करोड़ से लेकर 7000 करोड़ तक का नुकसान हुआ है।

हम सबका जीवन अब इंटरनेट से जुड़ा हुआ है। सरकार भी अपने कई काम ऐप के ज़रिए करती है। ई-कामर्स, होटल, पर्यटन से लेकर तमाम तरह बिजनेस इंटरनेट के ज़रिए होते हैं। आम लोग भी अब स्मार्टफोन पर उपलब्ध नेट के ज़रिए जीते हैं। मीडिया में रिपोर्ट कम ही होती है कि इंटरनेट बंद होने से लोगों को किस तरह से परेशानी हुई। इंटरनेट हवा-पानी की तरह है। क्या प्रशासन हिंसक स्थिति में पानी की सप्लाई बंद कर देता है? अगर ऐसा है तो सरकार को बताना चाहिए कि जब किसी कारण से इंटरनेट बंद होगा तब आप ऐप के अलावा कहां जाकर उसकी सुविधाएं ले सकते हैं।

प्रशासन को डर रहता है कि सोशल मीडिया के ज़रिए अफ़वाहें फैलने से स्थिति नियंत्रण से बाहर हो सकती है। पटेल आंदोलन के दौरान पटेल लोगों ने शिकायत की थी कि पुलिस ने उनके घरों में घुसकर मारा है। कारें तोड़ी हैं। उनके पास वीडियो हैं मगर इंटरनेट बंद होने के कारण किसी को भेज नहीं सकते। तो यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इंटरनेट बंद करने का मक़सद हिंसा रोकना ही नहीं आंदोलन को कुचलना भी होता है। लोकतंत्र में पुलिस का काम आंदोलन होने देना भी है। 

सोशल मीडिया का उभार एक ऐसे स्पेस के रूप में हुआ था जहां सिर्फ लोग थे, जो मीडिया और राजनीतिक दलों से अलग एक नए स्पेस की रचना कर रहे थे और अपनी बातें लिख रहे थे। अब बताने कि ज़रूरत नहीं है कि किस तरह से दलों ने इस स्पेस का राजनीतिकरण किया है। इस खेल में सत्ताधारी दल से जुड़ें समर्थकों और संगठनों का ही पलड़ा भारी रहता है। इनके ख़िलाफ़ शायद ही कभी कार्रवाई होती है। संगठित रूप से गाली दी जा रही है। धमकी दी जा रही है और मनमाफ़िक न लिखने पर राजनीतिक समर्थक व्हाट्सअप से लेकर फेसबुक और ट्विटर पर बदनाम करने का खेल खेलने लगते हैं।

बहुत बड़ी संख्या में लोगों को सोशल मीडिया पर लगाया गया है ताकि वे बहसों और मुद्दों को नियंत्रित कर सकें। इनके हंगामा करने से न्यूज़ चैनलों के न्यूज़ रूम में भूचाल सा आ जाता है। एंकर इन्हें जनता समझकर इनकी भाषा बोलने लगते हैं और जब ये चुप हो जाते हैं तो वो मुद्दा चैनलों से ग़ायब हो जाता है। जैसे गुजरात में ज़मानत पर रिहा हुए अधिकारी को पुलिस प्रमुख बना दिया। इसे लेकर इन समर्थकों ने मीडिया को गाली नहीं दी कि आप चुप क्यों हैं जबकि जिस व्यक्ति को हटाया गया है वो खुलेआम कह रहा है कि उन्होंने पद से हटाने की गुज़ारिश नहीं की थी। उन्हें पुलिस प्रमुख के पद से नहीं हटाया जाए। डीजी वंझारा जेल से छूटकर आते हैं औऱ सार्वजनिक रूप से तलवार लेकर डांस करते हैं। वे खुद को देशभक्त बताते हुए दूसरे देशभक्तों का शुक्रिया अदा करते हैं। यही घटना दूसरे राज्य में हुई होती तो ये लोग गाली गलौज का अंबार लगा देते कि मीडिया बिक गया है। 

सत्ताधारी दल के साथी संगठनों और समर्थकों को अफवाह फैलाने और गाली गलौज करने की छूट है। लोगों में इनकी बातों से तनाव भी फैला मगर अब वे भी समझने लगे कि किस बात पर भरोसा करना है किस पर नहीं। अगर लोग नहीं चेते तो उनके हाथ से ये माध्यम भी छिन जाएगा।   

आमतौर पर लोग अफ़वाहबाज़ों की बातों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं या ब्लॉक कर देते हैं लेकिन जब प्रशासन ऐसा करने लगे तो इस पर सार्वजनिक बहस होनी चाहिए। क्या आऱक्षण को लेकर हिंसक प्रदर्शन इंटरनेट से पहले के दौर में नहीं हुए? हिंसा इंटरनेट से ही भड़कती है क्या ये हर मामले में होता है? कश्मीर में अफ़वाह ही उड़ी कि एक लड़की को कथित रूप से सेना के लोगों ने छेड़ा है। वो लड़की बार-बार कह रही है कि सेना के लोगों ने ऐसा नहीं किया है। अगर उसे पत्रकारों से मिलाया जाता, उसके वीडियो को इंटरनेट के ज़रिए फैलाया जाता तो क्या सही सूचना के आधार पर प्रशासन भीड़ से बेहतर मुकाबला नहीं कर पाती। वहां लड़की की मां का प्रेस कांफ्रेंस रोक दिया गया। इंटरनेट सेवा बंद कर दी गई। प्रशासन को सोचना चाहिए कि इंटरनेट बंद करने से पहले उसका सही इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है। कोई तरीका निकालना चाहिए कि सभी इंटरनेट उपभोक्ताओं को सामूहिक रूप से सूचना भेजी जा सके। इस तरह की अफ़वाहें तो कई बार मुख्यधारा की मीडिया से भी फैल जाती हैं। कई जगहों पर प्रशासन ने कई जगहों पर चैनलों को भी बंद किया है। 

राजनीतिक समर्थकों की भाषा बोलने वालों की निष्ठा सिर्फ अपने दल के प्रति होती है। वही हाल विरोधी दलों के समर्थकों की हो गई है। ये अफवाह फैलाई गई कि भारत में पहली बार पानी की रेल चली है। केंद्रीयमंत्री उमा भारती भी ये बात हमारे सहयोगी श्रीनिवास जैन के इंटरव्यू में कह रही हैं। उन तक ये बात सरकार से पहुंची या सोशल मीडिया के ज़रिए? इंडियन एक्सप्रेस में रविवार को छपा है कि 2 मई 1986 को भारत में पहली बार गुजरात के राजकोट में पानी की रेल चली थी। मुझे किसी ने सूचना दी थी कि 50 के दशक में इलाहाबाद से बुंदेलखंड के माणिकपुर के बीच पानी की रेल चलती थी। मैं इस सूचना की पुष्टि नहीं कर सका हूं लेकिन सरकार के लोग इतनी आसानी से कैसे बोल दे रहे हैं कि पहली बार पानी की रेल चली है। 

बेहतर है कि हम समाज से ही बात करें। प्रशासन सही तथ्यों को उस तक पहुंचाए और इसके लिए ज़रूरी है कि इंटरनेट सेवा बंद न हो। कुछ साल पहले लंदन में दंगे भड़क उठे। पुलिस ने पाया कि सोशल मीडिया के ज़रिए कुछ बातें फैलाई गई हैं। इंटरनेट सेवा बंद करने की जगह पुलिस ने अपनी बात लोगों तक पहुंचानी शुरू कर दी। नतीजा यह हुआ कि हिंसा थम गई। बकायदा इसे लेकर रिपोर्ट बनाई गई थी कि क्या इंटरनेट के कारण दंगे भड़कते हैं। ज़रूरत है कि हम इस अफवाह संस्कृति के राजनीतिक पक्ष को उजागर करें और सही तथ्यों से मुकाबला करें। इंटरनेट बंद करना अंतिम उपाय होना चाहिए, पहला कदम नहीं।

(लेखक एनडीटीवी में सीनियर एक्जीक्यूटिव एडिटर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

 

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