"खुद के बच्चे लंदन में हैं, यहां के बच्चों को जन्नत भेजने का भ्रम फैलाते हैं"

चौदह फरवरी 2019 को हुए आतंकी हमले में 40 जवान मारे गए, पुलवामा के सरकारी दफ्तर में काम करने वाले एक कर्मचारी बताते हैं कि यहां हर दिन हमले होते हैं। दुनिया की सबसे खूबसूरत जगहों में से एक है पुलवामा लेकिन विकास से बहुत दूर दिखाई देता है।

Pragya BhartiPragya Bharti   15 Feb 2019 2:34 PM GMT

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खुद के बच्चे लंदन में हैं, यहां के बच्चों को जन्नत भेजने का भ्रम फैलाते हैं

लखनऊ।

"यहां रोज़ हमले होते हैं, पत्थरबाज़ी होती है, हालत इतनी खराब है कि हम अपने घर पर नहीं रह पाते हैं, हमें राज्य के दूसरे हिस्सों में जाकर छुपना पड़ता है। यहां के पढ़े-लिखे लड़कों का दिमाग खराब किया जा रहा है, नौकरियां हैं नहीं, स्थानीय धार्मिक संस्थाओं द्वारा उन्हें भड़काया जाता है कि तुम्हें जन्नत नसीब होगी, तुम्हारे परिवार को जन्नत नसीब होगी और इसलिए दिन-ब-दिन हालत बर्बाद हो रहे हैं, बेहतर नहीं हो रहे हैं। गरीब तबके को बच्चों को कहते हैं जन्नत में जाओगे, उनके खुद के बच्चे लंदन में हैं लेकिन गरीब बच्चों में भ्रम फैलाते हैं, जब तक इन संस्थाओं पर लगाम नहीं लगेगी तब तक पुलवामा के हालत नहीं सुधरेंगे।"

ये कहना है पुलवामा जिले से 10 -12 किमी दूर बॉर्डर पर बसे एक गांव के सरपंच वसीम डार (पहचान गुप्त रखने के लिए नाम ज़ाहिर नहीं किया गया है) का। पुलवामा जिले में हुए आतंकवादी हमले के बाद गाँव कनेक्शन ने यहां के हालातों के बारे में स्थानीय लोगों से बात करने का प्रयास किया। सरपंच आगे बताते हैं, "बेरोज़गारी बहुत बड़ा कारण है कि कश्मीर के बच्चे आतंकवादी और अलगाववादी संगठनो की तरफ जा रहे हैं। जो स्थानीय पार्टियां हैं जब वो सत्ता में आती हैं तो हालत ठीक रहते हैं, नॉर्मल रहते हैं लेकिन जब राज्यपाल शासन लगता है तो हालत बिगड़ने लगते हैं।"

आप इनके बयान को यहां सुन सकते हैं-


जम्मू और कश्मीर के पुलवामा जिले में 14 फरवरी 2019 की दोपहर एक बड़ा आतंकवादी हमला हुआ। इस हमले में 40 सीआरपीएफ जवान शहीद हो गए। राजधानी श्रीनगर से लगभग 31 किलोमीटर दूर स्थित पुलवामा में हुआ ये हमला पिछले एक दशक का सबसे बड़ा आतंकी हमला बताया जा रहा है। पिछले कुछ सालों में पुलवामा और आस-पास के हिस्सों का नाम आतंकी हमलों और गतिविधियों को लेकर सुर्खियों में रहा है।

गुरूवार को यह हमला तब हुआ जब सीआरपीएफ जवानों की एक बड़ी टुकड़ी विस्फोटकों और हथियारों के साथ जा रही थी। सेना की इस टुकड़ी में 40 से अधिक बसें थीं, जिसमें 2500 से ज़्यादा जवान सवार थे। इनमें से अधिकतर जवान छुट्टियां बिता कर वापस नौकरी पर लौट रहे थे। आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद ने इस आत्मघाती हमले की ज़िम्मेदारी ली है। हमलावर ने बस को टक्कर मारकर विस्फोट किया। न्यूज एजेंसी भाषा के अनुसार इस आत्मघाती विस्फोट में फिदायीन हमलावर आदिल अहमद डार शामिल है।

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कश्मीर के एक पत्रकार ने हमें फिदायीन हमलावर आदिल अहमद डार के पिता का बयान भेजा है। इस बयान में वो बताते हैं कि आदिल कुछ समय पहले अंडरग्राउंड हो गया था, बाद में वो आतंकवादी संगठन में चला गया, इसके बारे में उन्हें या उनके परिवार को कुछ नहीं पता था। वो कहते हैं-

"जान तो जान ही रही है, चाहे आर्मी के जवानों की हो या आम नागिरक की। मर तो इन्सान ही रहे हैं लेकिन ऐसा कब तक चलेगा? सरकार को कुछ तो करना चाहिए। यहां हमले रोज़ के हैं, कभी मिलिटेंट मरते हैं, कभी जवान तो कभी आम आदमी। साल-पे-साल बीत गए लेकिन अभी तक कोई फैसला नहीं हुआ।"

आखिरी जनगणना जो कि 2011 में हुई थी के मुताबिक पुलवामा 1090 किमी स्क्वायर में फैला जिला है। यहां की आधिकारिक वेबसाइट pulwama.gov.in के अनुसार मौसम, झरनों, सुंदर फूलों, फलों और प्राकृतिक दृश्यों के कारण यह दुनिया के सबसे खूबसूरत स्थानों में से एक है। कश्मीर के मध्य में बसा ये जिला चावल की खेती के लिए जाना जाता है, साथ ही यहां दुनिया में सबसे अच्छे केसर की खेती होती है। यहां के अधिकतर लोग कृषि पर निर्भर हैं, लगभग 70 प्रतिशत लोग खेती करते हैं। जम्मू और कश्मीर राज्य में सबसे ज़्यादा दूध का उत्पादन भी पुलवामा में होता है।

इस जगह है पुलवामा-

गर्मियों में पुलवामा का तापमान 30 डिग्री तक रहता है और सर्दियों में यहां कंपाने वाली ठंड होती है, पारा फ्रीज़िंग पॉइंट से भी नीचे चला जाता है। खूबसूरत होने के बावजूद ये इलाका विकास से बहुत दूर है। आखिरी जनगणना के मुताबिक यहां की साक्षारता दर केवल 65 प्रतिशत थी, ये प्रदेश में सबसे कम साक्षारता दर वाले जिलों में से एक है। महिला वर्ग की साक्षारता दर केवल 53.81 प्रतिशत है। पढ़ाई और जागरुकता के अभाव को आतंकवादी हमले और कुरूप बना रहे हैं।

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार पुलवामा में पिछले पांच सालों में ये कुछ बड़े हमले हुए हैं-

  • 16 अगस्त 2014 को मिलिटेंट हमला हुआ, इसमें 2 बीएसएफ जवान शहीद और 4 जवान घायल हुए।
  • 5 दिसंबर 2014 को हुए हमले में 11 लोग मारे गए, इसमें 6 आतंकवादी भी शामिल थे, हमले की ज़िम्मेदारी जैश-ए-मोहम्मद नाम के आतंकवादी संगठन ने ली।
  • 26 जून 2016 को फिदायीन आतंकवादियों ने आर्मी पर हमला किया, इसमें आठ सीआरपीएफ शहीद हो गए, साथ ही 2 फिदायीन आतंकी मारे गए।
  • 31 दिसंबर 2017 को पुलवामा के पास लेथपोरा नाम की जगह पर एक फिदायीन आतंकवादियों द्वारा हमला हुआ।
  • 1 जनवरी 2018 को लेथपोरा में हुए हमले में 5 सीआरपीएफ जवान शहीद हुए, इस हमले में दो मिलिटेंट्स भी मारे गए।
  • 26 जनवरी 2018 पुलवामा के पुलिस स्टेशन के पास एक बम धमाका हुआ, इसकी ज़िम्मेदारी आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद ने ली।

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  • 30 मई 2018 को पुलवामा के ट्राल इलाके में 2 ग्रेनेड हमले हुए। सर्कुलर रोड, बनोरा क्षेत्र, में पुलिस और केन्द्रीय रिज़र्व पुलिस बल के जॉइंट नाके के पास ये हमला हुआ।
  • 22 जून 2018 को ट्राल रोड पर फिर एक ग्रेनेड हमला हुआ जिसमें 9 जवाल घायल हुए।
  • 18 सितंबर 2018 को उरी के आर्मी कैम्प में हमला हुआ, इस हमले में 18 जवान शहीद हो गए तो 22 जवान घायल हुए।
  • 18 नवंबर 2018 को काकपोरा रेलवे स्टेशन के पास कैंप में मिलिटेंट हमला हुआ, इसकी ज़िम्मेदारी जैश-ए-मोहम्मद ने ली।

भारत सरकार के प्रेस इंफोर्मेशन ब्यूरो (पत्र सूचना कार्यालय) द्वारा 5 फरवरी 2019 को जारी की गई प्रेस रिलीज़ में बताया गया कि जम्मू-कश्मीर में 2014 से 2018 के बीच 1708 आतंकवादी हमले हो चुके हैं। इन में सबसे ज़्यादा 614 हमले साल 2018 में हुए, जिनमें अभी तक आर्मी और आम नागरिकों को मिलाकर 477 लोग मारे जा चुके हैं। नीचे दिए आंकड़ों से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि दुनिया का स्वर्ग कहे जाने वाले जम्मू और कश्मीर राज्य में आतंकवादी हमलों के कारण लोग किन हालातों में जी रहे होंगे-

प्रेस इंफोर्मेशन ब्यूरो, भारत सरकार द्वारा जारी प्रेस रिलीज़ के आंकड़े।

लगभग ढाई साल से पुलवामा के सरकारी दफ्तर में काम करने वाले आरिफ अहमद (बदला हुआ नाम) बताते हैं कि, "यहां हर दिन हमले होते रहते हैं, लोग रोज़ के काम ही नहीं कर पाते हैं, ऐसे माहौल में कैसे कोई खुश रह सकता है, जनजीवन बुरी तरह से प्रभावित है।"

"34 साल में मैंने सिर्फ सितम देखे हैं, सुकून की ज़िन्दगी नहीं देखी, बाहर निकलते हैं तो चैकिंग हो रही है, पैलेट्स चलती हैं, रात को मिलिटेंट्स मिलते हैं, लोग यहां केवल सितम सह रहे हैं, मानसिक रूप से बीमार हैं, डिप्रेशन में हैं यहां लोग।"

उत्तर कश्मीर में व्यापार करने वाले राजा गाँव कनेक्शन से फोन पर बात करते हुए ये बताते हैं। वो कहते हैं, "यहां का आम नागरिक शांति से जीना चाहता है, दो मुल्क इस पर अपना कब्ज़ा जमाए बैठे हैं, हिन्दुस्तान कहता है कि ये हमारा अटूट अंग है, पाकिस्तान कहता है कि ये हमारी शान है, ये बातें बिल्कुल गलत है।"

राजा बताते हैं कि राजनैतिक लोग इस समस्या का हल नहीं चाहते। वहां रोज़ हमले होते हैं, सन् 47 से अब तक न जाने कितने हमले हो चुके हैं, एक बड़ा हमला हुआ तो सबको पता चला लेकिन वहां की कौम तंग आ चुकी है। वहां पैलेट गन्स इस्तेमाल होती हैं, हालात बहुत खराब हो चुके हैं। वो कहते हैं कि, "हमला किसी और ने किया लेकिन यहां के लोग कश्मीरी गाड़ियों को जला रहे हैं, कश्मीरी लोगों पर हमला हो रहा है।"

(पैलेट गन्स- सेना द्वारा भीड़ को तितर-बितर करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली बंदूकें, इनमें रबर की गोलियां होती हैं, कई बार इनसे लोग गंभीर रूप से घायल हो जाते हैं, कई लोगों की आंखों की रौशनी चली जाती है)

"आम लोग यहां परेशान है, जब वो अपने हक की बात करते हैं तो उन पर पैलेट चलाई जाती है, गोलियां चलाई जाती हैं, लाखों लोग इनमें मारे जा चुके हैं, घायल हो चुके हैं। यहां इन्सानियत का कत्ल हो रहा है, इसकी गहराई में कोई नहीं जाता। ये वारदातें नहीं होना चाहिए। ये मसला कश्मीर के हवाले से है, तो यहां के लोगों को तय करने देना चाहिए,"- राजा आगे जोड़ते हैं।

जम्मू और कश्मीर की राजधानी श्रीनगर में राइज़िंग कश्मीर के साथ पत्रकार नज़ीर ज़ैनी बताते हैं कि, "यहां लोग हमेशा परेशान रहते हैं, हमलों का तनाव आपके ऊपर असर करता ही है। आप हर रोज़ सोकर उठें और आपको मौत की खबरें मिले तो आपके जीवन पर असर पड़ेगा ही, आपकी मानसिकता पर असर पड़ेगा। ज़िन्दगी तो चलती रहती है। लोग डरे हुए हैं, अगर आप अपने चारों तरफ, सड़कों पर, चौराहों पर लाशें देखेंगे तो कैसा असर पड़ेगा आप पर?"

नज़ीर आगे कहते हैं-

"अगर आप रिपोर्ट्स देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि कश्मीर के ज़्यादातर लोग डिप्रेशन का शिकार हैं। एक बच्चा सुबह निकलता है तो दिन भर में 40 से 50 फोन उसे घर से आ जाते हैं, घर वाले जानना चाहते हैं कि वो ठीक तो है, ज़िंदा तो है। इस सूरत में रहना बहुत मुश्किल है। यहां के लोग हमलों और इस आतंक के माहौल से बुरी तरह प्रभावित हैं, अगर आप पत्रकारों की बात करें तो वो सबसे पहले इन्हें देखते हैं, हर रोज़ जाकर हमलों को, लाशों को कवर करते हैं, लोगों के बयान लेते हैं, लोग जो सहन कर रहे हैं उसे देखते हैं। अगर आप डॉक्टर्स की बात करें तो वो भी इससे प्रभावित हैं।"

वो ये भी बताते हैं कि, "अगर किसी मिलिटेंट की मौत होती है तो हज़ारों लोग उसकी अंतिम यात्रा में शामिल होते हैं, हज़ारों लोग कब्र पर पहुंचते हैं, घटनास्थल पर पहुंचते हैं। इस तरह से मिलिटेंसी को यहां बढ़ावा दिया जाता है।"

    

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