जहरदाता न बनें अन्नदाता

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जहरदाता न बनें अन्नदातागाँव कनेक्शन

अमेरिका, चीन, इज़रायल और थाईलैंड जैसे देशों ने अत्याधुनिक कृषि यंत्रों और तकनीकियों का उपयोग कर खेती उत्पादन के नाम पर विश्व पटल पर अपनी पहचान तो बना ली है लेकिन इन देशों में इस्तेमाल में लाए जाने वाले घातक रासायनिक कीटनाशकों और वृद्धि प्रेरक हॉर्मोन्स ने दुनियाभर के चिंतकों के बीच एक अलार्म सा बजा दिया है। ऐसे में जुगाड़ और पारंपरिक ज्ञान के आधार पर कृषि की बात हो तो, हम भारतीयों का कोई जवाब नहीं। 

कई दूरस्थ ग्रामीण इलाकों की बात की जाए या वनवासियों की, आज भी तथाकथित मॉडर्न समाज की मुख्यधारा से दूर ये लोग पारंपरिक ज्ञान के आधार पर सफल खेती को अंजाम दे रहे हैं। समय के साथ-साथ वनवासियों और ग्रामीणों की खेती-किसानी में अनेक बदलाव भी आते रहे लेकिन खेती-बाड़ी से संबंधित कई पारंपरिक युक्तियां आज भी जस की तस बनी हुई हैं। मध्यप्रदेश के मंडला जिले की सैर पर था तब एक बुजुर्ग जानकार से एक नायाब प्राकृतिक कीटनाशक की जानकारी मिली थी।

उन्होंने बताया कि करीब पांच किलो ताजे हरे नीम के पत्ते, पांच किलो आक अथवा अकौना के पत्ते, करीब एक किलो लहसुन और तीन किलो तीखी हरीमिर्च लेकर अच्छी तरह से कुचल लिया जाए ताकि सारा मिश्रण पेस्ट की तरह बन जाए। जब पेस्ट तैयार हो जाए तो इसमें पांच लीटर गौमूत्र मिला लिया जाए और अच्छी तरह घोलकर गर्म किया जाए। कम से कम तीन बार उबाल आने दिया जाए और जब ऐसा हो जाए तो फिर इस सारे मिश्रण को ठंडा करके इसमें करीब पांच-छह बाल्टी पानी (करीब 120 लीटर) पानी मिला दें। अपनी फसल पर इसका स्प्रे करें। पूरी फसल के परिपक्व होने तक की अवधि में इसे तीन से चार बार इस्तेमाल किया जा सकता है। उनकी बताई मात्रा एक एकड़ की फसल के लिए थी। इस नुस्खे को मैंने अपने गृह जिले के कई किसान भाईयों से साझा किया और बाद में जानकारी मिली कि इन भाईयों को इस नुस्खे के इस्तेमाल के बाद किसी अन्य रासायनिक कीटनाशक की आवश्यता ही नहीं पड़ी। 

गुजरात प्रांत के सौराष्ट्र क्षेत्र में कई प्रगतिशील किसान बंधु करीब 30 लीटर मठा/ छाछ तैयार करते हैं और जब छाछ बन जाए तो इसे किसी बड़े पात्र में 24 घंटों के लिए रख दिया जाता है। अगले दिन तक छाछ के भारी हिस्से तलहटी में बैठ चुके होते हैं और ऊपरी सतह पर पानी दिखायी देता है। आहिस्ता- आहिस्ता ऊपरी हिस्से से पानी को निथार लिया जाता है या पानी एकत्र कर लिया जाता है, पानी लगभग 15-20 लीटर होता है। इस एकत्रित पानी में चार लीटर कच्चे नारियल का पानी मिला दिया जाता है। यदि कच्चा नारियल उपलब्ध ना हो तो चार लीटर चावल की माँड ली जाती है। सारे मिश्रण को अच्छी तरह घोल लिया जाए और पौधों पर स्प्रे किया जाए तो इनकी वृद्धि तेजी से होने के साथ उपज भी बेहतर होती है।

सदियों से चली आ रही इस तरह के परंपरागत ज्ञान को स्थायी और सतत बनाए रखने वाले इन होनहार वनवासियों को जब घिसे-पिटे, गरीब, तंगहाल और अविकसित कहा जाता है तो मुझे बेहद दुख होता है। वनवासियों के कृषि और वानिकी संबंधित पारंपरिक ज्ञान को सहेजने के बजाए जब इसकी आलोचना की जाती है, तो बेहद तकलीफ होती है। ये बात अब जग जाहिर है कि रासायनिक खाद और जहरीले कीटनाशक ना सिर्फ खेतों को बंजर कर देते हैं बल्कि हमारे स्वास्थ्य के लिए बेहद घातक भी हैं। 

रासायनिक खादें महंगी तो होती ही हैं इसके अलावा खेतों में इनके प्रयोग से जो नुकसान हमें और हमारे जानवरों को होता है, उसका अंदाजा तक लगाना मुश्किल है। शहरीकरण और जनसंख्या विस्फोट के चलते खेतों से ज्यादा से ज्यादा उत्पादन और तेजी से आर्थिक लाभ की चाहत में अपने पारंपरिक ज्ञान को एक किनारे कर कई किसान भाई जिस तरह के हथकंड़े अपनाने लगे हैं, वो पूरी मानव प्रजाति और पर्यावरण के लिए एक चुनौती बन चुका है। कम समय और ज्यादा उत्पादन की चाह ने हम सभी को स्वास्थ्य सुरक्षा के दृष्टिकोण से गर्त में धकेलना शुरू कर दिया है। 

खेतों में घातक रसायनों के छिड़काव से ग्रस्त वनस्पतियों को किसान के चौपाये भी खाते हैं, इन्हीं चौपायों के दूध के साथ ये रसायन वापस किसानों के घर तक सबसे पहले पहुंचते हैं। कई भयावह रोगों और स्वास्थ्य में गिरावट की शुरुआत खुद किसान के घर से होती है। आखिर अन्नदाता कहलाने वाला किसान जहरदाता कैसे हो सकता है, वो भी सिर्फ चंद रुपयों के मुनाफे के नाम पर?

(लेखक हर्बल विषयों के जानकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

 

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