भारतीय समाज में पुरातन काल से ही गाय खासकर भारतीय गाय का बहुत ही पूज्यनीय स्थान रहा है। आदिकाल से लेकर आधुनिक भारत तक के सफर में भारतीय गायों का योगदान कम नहीं आंका जा सकता है। लेकिन मशीनीकरण के दौर ने हमारी भारतीय गायों को जहां बेकार बना दिया वहीं कुछ पुरानी सरकारी नीतियों के कारण आज भारतीय गाय बेकार और लाचार और बेबस हो चली है।
जिस दौर में देश में हरित क्रांति की बात हो रही थी लगभग उसी दौर में हमारी भारतीय गायों को हटाने की बात की शुरुआत हुई। विदेशी सांड़ो का सीमन और विदेशों से सांड़ो को लाकर भारतीय नस्ल की गायों के साथ क्रॉस ब्रीडिंग की शुरुआत हुई। यह क्रॉस ब्रीडिंग की शुरुआत उस दौर मैं बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती थी। देश में जब क्रॉस बिल्डिंग की शुरुआत हुई उस समय संकर गायों को बढ़ावा देने के लिए एक नारा दिया गया था कि ‘देशी गाय से संकर गाय, अधिक दूध और अधिक आय’ लेकिन आज पिछले कुछ सालों से संकर गायों को देश और भारतीय समाज से हटाने की बात हो रही है। भारत सरकार ‘गोकुल मिशन’ के माध्यम से भारतीय नस्ल की गायों के संरक्षण की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य कर रही है।
इस के चलते एक बार फिर भारत में भारतीय गायों का महत्व बढ़ रहा है, इन सबके चलते भारतीय गायों के संरक्षण की दिशा में प्रयास किए जा रहे हैं। भारत सरकार भी पिछले आठ सालों से भारतीय गायों की नस्लों को बचाने के लिए भरसक प्रयास कर रही है और उनको बढ़ावा दे रही है। इसी दिशा में आज एक बार फिर प्राकृतिक कृषि की बात हो रही है। प्राकृतिक कृषि में जो सबसे महत्वपूर्ण बात है, वह भारतीय नस्ल की देशी गाय ही है। प्राकृतिक कृषि में प्रयोग होने वाले जो उत्पाद तैयार होंगे वह भारतीय देशी गाय के गोमूत्र और गोबर से ही तैयार किए जाने हैं। इसको देखते हुए कहा जा सकता है कि भारतीय गाय की नस्लों यानी कि देशी गाय का महत्व बढ़ता दिखाई दे रहा है। इसको देखते हुए आज यह बात कही जा सकती है कि ‘संकर गाय से देसी गाय, अधिक टिकाऊ और अधिक आय’।
आज जब भारतीय देशी गाय की बात की जा रही है तो हम देखते हैं कि हमारी देशी गाय बहुत बड़े पैमाने पर गाँव, शहरों और महानगरों में आवारा घुमंतु बनकर घूम रही हैं। भारतीय देशी गायों की दुर्दशा किसी भी से छुपी नहीं है। इन घुमंतू गायों को बचाने के लिए कई सरकारी प्रयास भी किए जा रहे हैं कई समाजसेवी संस्थाएं भी काम कर रही हैं लेकिन यह प्रयास ऊंट के मुंह में जीरे के समान ही है। जब तक आम जनमानस खासकर गाँव-किसान में इन गायों के संरक्षण के लिए भाव नहीं पैदा होगा, तब तक इन घुमंतू आवारा गायों का संरक्षण नहीं हो सकता है। यह बात थोड़ी कड़वी जरूर है, लेकिन अक्षरस सत्य है कि आज जो आवारा गायें घूमती हुई हमें खेत-खलियान और गाँव-कस्बों से लेकर महानगरों में दिखाई दे रही हैं यह हमारे किसानों द्वारा छोडी हुई ऐसी गाये हैं जिन को किसानों ने कम दूध देने के कारण तथा खेती में उनके बच्चे काम ना आने के कारण इन्हें आवारा छोड़ छोड़ दिया है। आज यही दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हो रही हैं। प्राकृतिक खेती में इन आवारा-घुमंतू गायों का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है।
प्राकृतिक कृषि में इन घुमंतू गायों का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। आज गौ आधारित प्राकृतिक कृषि की बात की जा रही हैण् प्राकृतिक कृषि से घुमंतू भारतीय गोवंश के संरक्षण की दिशा में एक नई आशा की किरण जगी है। यदि प्राकृतिक कृषि की पहल आम किसान-गाँव से लेकर खेतों और फसलों तक पहुंचती है तो निश्चित रूप से देशी भारतीय गायों को दिन अच्छे लाए जा सकते हैं। अब यही समय है कि घुमंतू गायों को वापस गाँव, घर और खूटे तक लाने की जरूरत है। प्राकृतिक कृषि में घुमंतू देशी गाय का महत्वपूर्ण स्थान हो सकता है।
बताया जाता है कि घुमंतू देशी गाय के गोबर में पालतू देसी गाय से भी ज्यादा सूक्ष्म जीवाणु पाए जाते हैं। इसलिए ऐसे किसान जिनके पास आज देशी गाय नहीं है वह भी घुमंतू देशी गाय को पकड़कर प्राकृतिक खेती की शुरुआत कर सकते हैं। इससे जहां घुमंतू देशी गायों को नया जीवनदान मिलेगा वहीं इनको भरपेट चारा भी मिल सकेगा। किसानों की आमदनी में इजाफा होने के साथ ही उनके खेतों की मिट्टी की दशा और दिशा में सुधार होगा। किसानों का इस प्रकार का कदम देशी गाय की रक्षा के साथ ही प्राकृतिक कृषि को बढ़ावा देगा। इसलिए किसानों को इस दिशा में गंभीरता से विचार करने के साथ ही इसे जितनी जल्दी हो सके अपनाने की जरूरत है।
प्राकृतिक कृषि में किसान घुमंतू गायों का प्रयोग करते हैं तो यह उनके संरक्षण की दिशा में एक मील का पत्थर सिद्ध हो सकता है। आज घुमंतू गायों के संरक्षण की बहुत नितांत आवश्यकता है। कुछ वर्षों पूर्व तक यही गाएं अनाधिकृत रूप से कत्लखानों में काटी जा रही थी, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से धर्म परायण सरकारों द्वारा गौ हत्या निषेध कानून का कड़ाई से पालन कराए जाने के कारण अब काफी कुछ हद तक गाय और नंदी की क्रूरतम हत्याओं पर पाबंदी लगी है। गौर करें तो गौ माता की कत्लखाना में हत्या पर पाबंदी जरूर लगी है, लेकिन इनके प्रति क्रूरता आज भी जारी है। गाँव-शहरों मैं घूमती लाचार बेचारी गायों को घायल, बीमार और भूखी, प्यासी बखूबी देखा जा सकता है। गायों के संरक्षण के लिए सरकारों के अलावा स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा काम भी किया जा रहा है। गौशालाओं में आवारा घुमंतू गोवंश के संरक्षण के प्रयास भी हो रहे हैं। कई राज्य सरकारों द्वारा गौशालाओं को अनुदान भी दिया जा रहा है। लेकिन गायों की खिलाई-पिलाई, बीमारी, रखरखाव को देखते हुए यह अनुदान ऊंट के मुंह में जीरे के समान ही प्रतीत होता है।
हालांकि कुछ राज्य सरकारों के द्वारा गौ संरक्षण की दिशा में अच्छी पहल की जा रही है। इन सब प्रयासों के बाद भी आज गाँव, खेतों से लेकर शहरों, महानगरों और सड़कों पर इन गोवंश के झुंड के झुंड देखे जा सकते हैं। सरकारों की पहल भी बड़ी तादाद में घुमंतु गोवंश को पूरा संरक्षण नहीं दे पा रही है। देखा जाए तो सरकारी प्रयासों से यह पूरी तरह संभव भी नहीं हैं। इसके लिए आम जन भागीदारी खासकर किसानों की भागीदारी बहुत जरूरी है।
आज चारे-दाने की कीमतें आसमान छू रही हैं। ऐसे में आवारा घुमंतू देशी भारतीय गोवंश की सुरक्षा के साथ उनसे प्राप्त गोबर और गोमूत्र की उर्जा का कैसे सदुप्रयोग करें। इस दिशा में हमारे देश के किसानों को आगे आकर पहल करने की जरूरत है। इसके लिए आज सबसे अच्छा विकल्प प्राकृतिक कृषि के रूप में उभर कर सामने आ रहा है। प्राकृतिक कृषि अपनाने से जहां किसानों की खेती पर आने वाली लागत काफी कम होगी वही रोग और बीमारियों से लोगों को बचाया जा सकेगा। साथ ही साथ हमारा आवारा घुमंतू भारतीय गोवंश है के संरक्षण की दिशा में बहुत महत्वपूर्ण कार्य हो सकेगा। गाय बचेंगी तो गाँव बचेंगे और गाँव बचेगा तो गरीब बचेगा।
जिन्हें आज हम आवारा, घुमंतू, छुट्टा गाय कह रहे हैं कभी यही गायें भारतीय कृषि की रीढ़ रही हैं। भारतीय गाय गाँव-गरीब-किसान की पोषण सुरक्षा से लेकर ऊर्जा शक्ति का द्योतक रही हैं। देशी गाय का दूध, दही, छाछ, घी ने जहां भारतीय थाली को पोषण सुरक्षा प्रदान की है वहीं भारतीय गायों के बछड़ों द्वारा जवान होकर खेती में किसान के कमाऊ पूत बनकर उनकी सेवा की गई है। लेकिन मशीनीकरण के दौर और कम उत्पादक होने के कारण भारतीय गायों की नस्लों को हम और आपने आवारा बना कर छोड़ दिया है जो कि दर-दर की ठोकर खाती हुई घूम रही है। आलम यह है कि कभी जिस किसान को सब कुछ देने वाली भारतीय गाय जोकि गौमाता कही जाती थी आज उसी किसान की लाठी खाने को मजबूर है। भूखी प्यासी गायें जब उन खेतों में फसल खाती हैं, जिनको कभी उन्होंने अपने खून-पसीने से सीचा था। वही किसान भूखी प्यासी गायों को लाठियां दुत्कार कर उन्हें शहरों और सड़कों की ओर खदेड़ जाते हैं। किसान की भी मजबूरी है कि जंगल हैं नहीं और फसलों को भी बचाना है। सड़कों, महानगरों में यही पूज्यनीय गायें कूड़ा, कचरा, पॉलिथीन, गंदगी आदि अपनी उदर पूर्ति के लिए खाने को मजबूर हैं इसके चलते अधिकांश आवारा घुमंतू गाय बीमार हैं। उनके पेट में पॉलिथीन के गट्ठर जमा हो रहे हैं।