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एक डिब्बे से शुरू किया था मधुमक्खी पालन आज हज़ारों किसानों को सिखाते हैं इसके गुर 

Bee keeping

उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रामनाईक ने 18 फरवरी को बृजेश कुमार शर्मा (48 वर्ष) को सबसे अच्छे शहद उत्पादन के लिए सम्मानित किया। बृजेश ने एक डिब्बे से मधुमक्खी पालन शुरू किया था लेकिन उनको इसकी खेती इतनी भा गई कि आज वो करीब 650 डिब्बे में इसकी खेती करते हैं और करीब 5500 लोगों को प्रशिक्षण भी दे चुके हैं।

”मैने 1992 में एक डिब्बे से मधुमक्खी पालन शुरू किया था। उसके बाद धीरे-धीरे डिब्बों की संख्या बढ़ाता रहा और आज 650 डिब्बों में मधुमक्खी पालन कर रहा हूं,” लखनऊ जिले की गोसाईगंज ब्लॉक के मदारपुर गाँव के किसान बॉजेश कुमार शर्मा बताते हैं, ” मैं करीब 26 वर्षों से मधुमक्खी पालन कर रहा हूं और इसके साथ ही अभी तक यूपी और बिहार के करीब 5500 लोगों को इसका प्रशिक्षण भी दे चुका हूं।”

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गोसाइगंज ब्लॉक को बीब्लॉक भी कहा जाता है। क्योंकि यहां पर बड़े स्तर पर मधुमक्खी पालन किया जाता है। इस ब्लॉक में पिछले वर्ष 280 टन शहद का उत्पादन हुआ था।

बृजेश को अभी तक मधुमक्खी पालन और उससे संबंधित कार्यों के लिए 10 बार सम्मानित और अवार्ड जिया जा चुका है। उन्हें इसी महीने में दो अवार्ड मिले हैं 16 फरवरी को भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान, लखनऊ की तरफ से उन्हें मधुमक्शी के अच्छे उत्पादन के लिए अवार्ड दिया गया और 18 फरवरी को राज्यपाल रामनाईक ने सबसे अच्छे शहद उत्पादन के लिए सम्मानित किया गया।

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मधुमक्खी पालन में पिछले कुछ वर्षों में काफी बढ़ोतरी हुई है। लोग बढ़चढ़ कर मधुमक्खी पालन कर रहे हैं और इसे सरकार भी बढ़ावा दे रही है। वैज्ञानिक तरीके से विधिवत मधुमक्खी पालन का काम अठारहवीं सदी के अंत में ही शुरू हुआ। इसके पहले जंगलों से पारंपरिक ढंग से ही शहद एकत्र किया जाता था। पूरी दुनिया में तरीका लगभग एक जैसा ही था जिसमें धुआं करके, मधुमक्खियां भगा कर लोग मौन छत्तों को उसके स्थान से तोड़ कर फिर उसे निचोड़ कर शहद निकालते थे। जंगलों में हमारे देश में अभी भी ऐसे ही शहद निकाली जाती है।

मधुमक्खी पालन उद्योग करनेवालों की खादी ग्राम उद्योग कई मात्रा में मदद करता है। यह एक ऐसा व्यवसाय है, जो ग्रामीण क्षेत्रों के विकास का पर्याय बनता जा रहा है। हालांकि भारत शहद उत्पादन के मामले में अभीपांचवें स्थान पर है।

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मधुमक्खी पालन का आधुनिक तरीका पष्चिम की देन

आपको बता दें कि मधुमक्खी पालन का आधुनिक वैज्ञानिक तरीका पश्चिम की देन है। यह इस तरह विकसित हुआ…

  • सन् 1789 में स्विटजरलैंड के फ्रांसिस ह्यूबर नामक व्यक्ति ने पहले-पहल लकड़ी की पेटी (मौनगृह) में मधुमक्खी पालने का प्रयास किया। इसके अंदर उसने लकड़ी के फ्रेम बनाए जो किताब के पन्नों की तरह एक-दूसरे से जुड़े थे।
  • सन् 1851 में अमेरिका निवासी पादरी लैंगस्ट्राथ ने पता लगाया कि मधुमक्खियां अपने छत्तों के बीच 8 मिलिमीटर की जगह छोड़ती हैं। इसी आधार पर उन्होंने एक दूसरे से मुक्त फ्रेम बनाए जिस पर मधुमक्खियां छत्ते बना सकें।
  • सन् 1857 में मेहरिंग ने मोमी छत्ताधार बनाया। यह मधुमक्खी मोम की बनी सीट होती है जिस पर छत्ते की कोठरियों की नाप के उभार बने होते हैं जिस पर मधुमक्खियां छत्ते बनाती हैं।
  • सन् 1865 में ऑस्ट्रिया के मेजर डी. हुरस्का ने मधु-निष्कासन यंत्र बनाया। अब इस मशीन में शहद से भरे फ्रेम डाल कर उनकी शहद निकाली जाने लगी। इससे फ्रेम में लगे छत्ते एकदम सुरक्षित रहते हैं जिन्हें पुनः मौन पेटी में रख दिया जाता है।
  • सन् 1882 में कौलिन ने रानी अवरोधक जाली का निर्माण किया जिससे बगछूट और घरछूट की समस्या का समाधान हो गया। क्योंकि इसके पूर्व मधुमक्खियां, रानी मधुमक्खी सहित भागने में सफल हो जाती थीं। लेकिन अब रानी का भागना संभव नहीं था।

क्या आप जानते हैं मधुमक्खियों की 20,000 प्रजातियां होती है?

जंगली मधुमक्खियों की 20,000 से अधिक प्रजातियां हैं। कई प्रजातियां एकान्त होती हैं (उदाहरण के लिए, मेसन मधुमक्खियों, पत्तेदार मधुमक्खी (मेगाचिइलिडे), बढ़ईदार मधुमक्खियां और अन्य भू-घोंसले के मधुमक्खियां)। कई अन्य लोग अपने युवाओं को बुरे और छोटे कालोनियों (जैसे, भौंरा और डंक से मक्खियों) में पीछे रखते हैं। कुछ शहद मधुमक्खी जंगली हैं छोटी मधु (एपिस फ्लोरिया), विशाल मधु (एपिस डोरसाटा) और रॉक बी (एपीआईएस लाइबोरिया)।

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