लखनऊ। धान की पराली कुछ लोगों के लिए मुसीबत बनी है तो कुछ किसान इसका शानदार उपयोग कर फायदा उठा रहे हैं। पंजाब में पटियाला के किसान गुरुदेव सिंह लोगों से पराली न जलाने की अपील करते हुए इसके लाभ समझा रहे हैं। गुरुदेव सिंह का कहना है कि इससे बिना लागत के फसल तो अच्छी होंगी ही पर्यावरण भी बचेगा।
“मैं धान का फूस (पराली) जलाने के बजाए उसे कटने के बाद इकट्ठा कर लेता हूं, और जब गेहूं बोता हूं तो उसमें इसी पराली की मल्चिंग (खेत में बिछा देना) कर देता हूं। जमीन तक धूप न पहुंचने से गेहूं में उगने वाले कई खरपतवार (नदीन) उग नहीं पाते और पराली में डिकंपोस्जर डालने से वो अच्छी खाद का काम करते हैं।’ गुरुदेव सिंह फोन पर गांव कनेक्शन को बताते हैं।
केंद्र सरकार की नौकरी से रिटायर्ड गुरुदेव सिंह के पंजाब में दिल्ली-अमृतसर रोड पर पटियाला जिले में खेत हैं। अपने 4 एकड़ खेत में वो जैविक तरीकों से खेती करते हैं। सोशल मीडिया पर सक्रिय गुरुदेव सिंह ने अपने फेसबुक पर खेत में पराली की फोटो पोस्ट करते हुए लिखा कि पराली को खेत मे जलाना धरती माता और इंसानियत के खिलाफ बहुत ही घिनौना पाप है। इसलिये हम अपने रसायन मुक्त फार्म पर कंबाईन से फसल काटने के पश्चात पराली को इकठ्ठा कर लेते हैं और खेत में प्रयोग करते हैं।
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गुरुदेव सिंह अपनी खेती की विधि बताते हैं, “कंबाइन मशीन जीरी (धान) को एक फीट ऊपर से काटती है। बाकी फसल के दाने निकालकर वो फूस (बेकार पराली) निकाल देती है। हम उसे इकट्टा करकर मेढ़ पर लगवा देते हैं। खेत को दो बार हैरो से जुतवाने के बाद पानी लगाते हैं। फिर कुछ दिनों बार गेहूं बोते हैं। उसी दिन उसमें पराली बिछवा देते हैं।’
पराली जो काफी किसानों और आबोहवा के लिए संकट बनती है वो गुरुदेव सिंह के खेत में पहले खरपतावर रोकने का जरिया और बाद में अच्छी कंपोस्ट खाद बन जाती है। पराली और डिकंपोजर के फायदे गिनाते हुए वो कहते हैं, “हर फसल के साथ कुछ खरपतवार जरूर जमते हैं। ज्यादातर ये खेत के ही होते हैं जो अपने समय पर जम जाते हैं। लेकिन मेरे गेहूं और धान में 2 साल से कोई खरपतवार नहीं जमा। क्योंकि मैं उसमे लगातार डिकंपोजर का छिड़काव करता हूं। पराली की मल्चिंग से गेहूं के पौधे दमदार होते हैं वो ऊपर निकल आते हैं लेकिन धूप न पड़ने से खरपतवार नहीं जम पाता। और गेहूं जमने के 20-25 दिन बाद उसमें डीकंपोजर डाल देता हैं। जिससे वो अंदर ही सड़ जाते हैं। दूसरी बुवाई तक पराली भी सड़कर खाद बन जाती है।”
डीकंपोजर एक प्रकार का कचरा अपघटक है जिसे गाजियाबाद स्थित राष्ट्रीय जैविक खेती केंद्र ने गाय के गोबर आदि से तैयार किया था। दही के जामन की तरह काम करते है। इससे पहले भी कुछ कंपनियों और किसान अपने तरीकों से गोबर, खाद और फसलों को अपशिष्ट के सड़ाते रहे हैं। लेकिन, जैविक खेती केंद्र ने इसे मात्र 20 रुपए में तैयार किया है। वेस्ट डी कंपोजर दही में जामन की तरह काम करता है इसकी एक शीशी कई वर्षों लगातार तरल जैविक खाद और कचरा अपघटक बना सकती है।
गुरुदेव सिंह अपने एक एकड़ खेत में 200 लीटर वेस्ट डीकंपोजर डालते हैं। उनके मुताबिक गेहूं में दूसरी सिंचाई तक पराली गलकर खाद बन जाती है। इसके साथ ही धान के जो पौधे बचे रह जाते हैं वो भी गल जाते हैं। इनती ही नहीं पराली की मल्चिंग के चलते खेत पर सीधे धूप नहीं पड़ती, जिससे खेत में नमी ज्यादा दिन तक बनी रहती है।
गुरुदेव सिंह जैविक खेती करते हैं इसलिए वो खेत में डीएपी-यूरिया और किसी तरह का कीटनाशक नहीं डालते। वो कहते हैं, किसान पहले तो खेत जला देते हैं फिर पैदावार लेने के लिए फर्टीलाइजर छोड़ते हैं, जलाने से मित्र कीट भी मर जाते हैं, जब फसल में रोग लगते हैं तो कीटनाशक डालते हैं, इन सब में पैसे तो खर्च होते ही हैं अनाज भी जहरीला होता जाता है, तो क्यों खेतों को फूंका जाए?’ उन्होंने अपनी फेसबुक पोस्ट पंजाब और हरियाणा के किसानों से अपनी भी कि है कि वो राजनेताओं झांसे में आकर पराली न जलाएं। ऐसा न हो कि हमारी आने वाले नस्लों के लिए खेत अनाज पैदा करने काबिल न रह जाएं।
अपने तर्क के समर्थन में वो खुद के खेतों का उदाहरण देते हुए कहते हैं, “2016 के बाद मैंने धान और गेहूं के किसी भी प्रकार का फसल अवशेष नहीं जलाए। इसके साथ ही लगातार वेस्ट डीकंपोजर का छिड़काव किया, इसका फायदा ये हुआ कि ढाई- तीन वर्षों से हमारे खेतों मडूसी और दूसरे नदीन (खरपतवार) पैदा नहीं हो रहे, और फसल में कोई रोग भी नहीं लग रहा। इसी को कहते हैं हिंग्ग लगे न फटकड़ी।”
गेहूं में पराली की मल्चिंग पर खर्च
धान कटाई के बाद पराली इकट्ठा करने में मजदूरी -800 रुपए (4 लेबर)
गेहूं की फसल में पराली बिछाने की मजदूरी- 500 रुपए (2 लेबर)
200 लीटर वेस्ट डीकंपोजर का खर्च- 20 की शीशी, 2 किलो गुड़ -60-80 रुपए, चने का बेसन-80 रुपए
तीन बार खेत में वेस्ट डीकम्पोजर खेत में डालने का कुल खर्च 180 गुणा 3- 540 रुपए
एक एकड़ में रायानिक खेती पर त्वरित खर्च
गुरुदेव सिंह के मुताबिक पंजाब में ज्यादातर किसान एक एकड़ गेहूं में 1 बोरी डीएपी, 2 बोरी यूरिया कुछ दूसरे खादें और कीटनाशक का छिड़काव करते हैं। अगर डीएपी (1400 और यूरिया करीब 600 रुपए) यूरिया पर ही 2000 रुपए कम से खर्च होते हैं। जबकि पराली के सही उपयोग से खेत, पैसा और सेहत तीनों बचे रहेंगे।