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राजस्थान के इस किसान ने कूमठ से गोंद उत्पादन में कमाया लाभ

केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (काजरी) जोधपुर जैसे शीर्ष अनुसंधान संस्थानों ने लम्बे शोध के बाद इन सूखे इलाकों की स्थानीय वानस्पतिक प्रजातियों से बेहतर आय पाने के अभिनव प्रयोगों में सफलता प्राप्त की है।
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जोधपुर। पश्चिमी राजस्थान की प्रतिकूल जलवायु वाली परिस्थितियों ने यहां के किसानों की आय के स्त्रोतों पर नाग की तरह कुण्डली मार रखी है। केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (काजरी) जोधपुर जैसे शीर्ष अनुसंधान संस्थानों ने लम्बे शोध के बाद इन सूखे इलाकों की स्थानीय वानस्पतिक प्रजातियों से बेहतर आय पाने के अभिनव प्रयोगों में सफलता प्राप्त की है।

खेजड़ी, कैर, पीलू, ग्वारपाठा एवं घास बीजों के अलावा परंपरागत तौर पर कूमठ के पेड़ से थोड़ी सी मात्रा में आय हो पाती थी। कूमठ की हरी पत्तियों को ऊंट बड़े चाव से खाते हैं तो सूखी पत्तियां झड़कर बकरियों-भेड़ों का प्रिय खाद्य बन जाती है। इसके बीज राजस्थान की प्रसिद्ध पंचकुटा नाम की मिश्रित सूखी सब्जी के अलावा अचार बनाने में भी काम लिये जाते हैं।

कूमठ से प्राप्त होने वाले गोंद को औषधीय प्रयोग में बेहतर माना जाता है। हालांकि पारंपरिक रूप से किसान प्रायः कुल्हाड़ी से कूमठ पेड़ की शाखाओं, तने पर थोड़ी-थोड़ी अंतराल पर चीरे लगा देते हैं, फलस्वरूप गोंद इकट्ठा किया जाता है। स्वाभाविक तौर पर औसतन 25 से 50 ग्राम गोंद ही प्रति पेड़ प्राप्त किया जा सकता था। शायद इसी कारण पिछले दो दशक तक मारवाड़ अंचल के किसानों का ध्यान इस महत्वपूर्ण उत्पाद की ओर नहीं गया।

तब प्रयोग आजमाना शुरू किया


वर्ष 1990 में काजरी के प्रधान वैज्ञानिक डॉ. एलएन हर्ष के नेतृत्व में कूमठ की विभिन्न स्थानीय प्रजातियों के पौधे काजरी परिसर में ही पनपाकर, साथ ही किसानों के खेतों में प्राकृतिक पनपे कूमठ के पेड़ों पर विविध प्रयोग आजमाना शुरू हुए।

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करीब आठ साल तक गहन अध्ययन एवं पर्यवेक्षण करते रहने के बाद काजरी ने प्रायोगिक सफलता हासिल की। उस समय फलौदी तहसील के किसान भीखाराम, प्रेमाराम, ओमप्रकाश एवं महीपाल सिंह आदि ने नवीन तकनीक अपनाकर कूमठ से अधिक गोंद उत्पादन लेने में रुचि दिखाई। आज बाड़मेर, जैसलमेर, बीकानेर के अनेक किसान जागरुकता दिखाते हुए अच्छा लाभ कमा रहे हैं।

देसी कूमठ से बनाया गोंद

जोधपुर के प्रगतिशील किसान मोहनराम सारण इस सूची में आज सबसे आगे हैं, जिन्होंने काजरी की इस तकनीक को अपनाकर देसी कूमठ से गोंद उत्पादन में कामयाबी हासिल की है। उनकी इस पहल के चलते पूरा गाँव अब गोंद उत्पादन को लेकर जागरूक हुआ है।

वे बताते हैं, “काजरी ने कूमठ के पेड़ों के तनों में छेद करके 4 मिलीलीटर लाल रंग का उत्प्रेरक इंजेक्शन लगाते हुए प्राकृतिक गोंद उत्पादन से औसतन 10 गुना ज्यादा गोंद लेने की तकनीक ईजाद की। फिलहाल काजरी स्थित एटिक केंद्र पर यह दस रुपये प्रति इंजेक्शन की दर पर बेचा जा रहा है।”

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काजरी के पूर्व प्रधान वैज्ञानिक और जोधपुर कृषि विश्वविद्यालय के पहले कुलपति रहे डॉ. एलएन हर्ष बताते हैं, “प्राकृतिक कूमठ के पेड़ों को इस इंजेक्शन से उपचार किया जा सकता है। जहां तक हो सके, स्वस्थ पेड़ों का ही चयन किया जाना चाहिये। जलग्रहण क्षेत्र में स्थित कूमठों से उपचार उपरांत ज्यादा गोंद मिलता है। अक्टूबर-नवम्बर माह में इसकी फलियां पक जाती हैं और फरवरी तक पत्तियां झड़ जाती हैं। वातावरण में तापमान धीरे-धीरे बढ़ने लगता है। मार्च से मई तक इस इंजेक्शन से उपचार किया जाता है।”

इस तरह से लगाए पौधे

प्रगतिशील किसान मोहनराम सारण बताते हैं, “कूमठ के तने में जमीन से करीबन एक-डेढ़ फीट ऊंचाई पर हाथचालित छेदक यंत्र अथवा गिरमिट से तिरछा (अंदर की ओर ढालू) छेद किया जाता है। इसकी गहराई 2 इंच और व्यास (चौड़ाई) आधा इंच रखी जाती है जिसमें 4 मिलीलीटर द्रव इंजेक्शन आसानी से उंडेला जा सकता है। यह तिरछा छेद करीब 45 डिग्री का होता है ताकि द्रव बहकर बाहर नहीं निकले। सीरींज की सहायता से उत्प्रेरक घोल (दवाई) अंदर पिचकारी कर दी जाती है।”

मोहनराम आगे बताते हैं, “इस छेद के ऊपर तालाब की माद, चिकनी मिट्टी की टिकिया करीब 3 इंच घेराव की बनाकर, छेद पर लीप कर अंगूठे से सीलबंद कर देते हैं। सावधानी रखनी चाहिये कि छेद के अंदर घोल तथा चिकनी मिट्टी परस्पर संपर्क में नहीं आने पाए। अगर चिकनी मिट्टी और दवा का संपर्क होता है तो पूरी दवा रासायनिक प्रतिक्रिया करके अपना असर खो सकती है। उपचार के 5-6 दिन बाद टहनियों पर स्वतः ही गोंद आना शुरू हो जाता है।”

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मोहनराम ने बताया, “जो किसान भाई, परंपरागत तरीके से उपचार के बाद भी कुल्हाड़ी द्वारा टांचे (चीरे) लगा देते हैं, वे नुकसान में रहेंगे क्योंकि उत्प्रेरक दवा के प्रभाव से गोंद बड़ी तेजी से इन चीरों (घावों, टांचों) में से बहकर जमीन पर गिर जाएगा। इसलिए चीरे नहीं लगाने चाहिएं। उपचार के बाद चीरे लगाने पर निकलने वाला पतला गोंद सूखने के लिए समय नहीं बचता, इसलिए गोंद निकलकर भी ढ़ेलों के रूप में सूख नहीं पायेगा और किसान को नुकसान हो जाएगा।”

औसतन मिलता है 500 ग्राम गोंद


इन तमाम सावधानियों के अनुसार उपचारोपरांत औसतन 500 से 800 ग्राम गोंद प्रति देसी कूमठ पेड़ आसानी से मिल जाता है, जो स्थानीय बाजार में 2000 रुपये प्रति किलो की दर पर बेचा जाता है।

कुल मिलाकर मरूक्षेत्र के बाशिन्दों को कूमठ के पेड़ों से इस प्रकार आय बढ़ाने में रुचि लेनी चाहिए, ताकि खेजड़ी, कैर, पीलू जैसे वृ़क्ष-झाड़ियों के साथ कूमठों की संख्या बढ़ाई जा सके। अगर मरूस्थल में कूमठ के गोंद उत्पादन को बढ़ावा मिलता है तो यहां पर गम-गार्डन स्थापना की संभावनायें भी बढ़ जायेंगी।

दूसरे किसानों ने लगाए करीब 15 हजार पौधे

प्रगतिशील किसान मोहनराम सारण ने पिछले साल 50 किलो गोंद का उत्पादन लिया था, जिससे उनको 100,000 की आय हुई थी। इस साल गोंद देने योग्य 100 पेड़ों से पिछले साल की तुलना में अधिक गोंद मिलने की संभावना है। मोहनराम की मानें तो दईकड़ा गाँव में तकरीबन 50-60 किसानों ने उनसे प्रेरित होकर अपने खेतों की मेड़ों पर करीबन 15,000 पौधे लगाए हैं। शुरुआत करने वाले 5-6 किसानों ने तो आय लेना भी शुरू कर दिया है। अकेले मोहनराम के खेत में 5000 पौधे तैयार हो रहे हैं।

किसान साथी अनुभव जानने के लिए संपर्क करें

मोहनराम सारण, छोटी रॉयल वाटिका, दईकड़ा, बनाड़, जोधपुर। मोबाइल नं.-09460008560, 07688853556

(लेखक कृषि पत्रकार और पर्यावरण प्रेमी हैं।) 

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