तमिलनाडु में सूखे से लड़ रहे किसानों की तरफ सरकार क्यों नहीं देती ध्यान?

Shefali SrivastavaShefali Srivastava   28 March 2017 1:30 PM GMT

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तमिलनाडु में  सूखे से लड़ रहे किसानों की तरफ सरकार क्यों नहीं देती ध्यान?प्रांत के ग्रामीण किसान अनियमित बारिश और पानी की कमी के कारण अपनी फसलों पर सिंचाई नहीं कर पा रहे हैं (फोटो: गाँव कनेक्शन)

लखनऊ। दक्षिण भारत के तमिलनाडु प्रांत में इस समय सूखे की स्थिति भयावह है। वहां दक्षिण-पश्चिमी मानसून और पूर्वोत्तर मानसून की लगभग 60 फीसदी तक की कमी के कारण सूखे की समस्या गंभीर है।

रिपोर्ट के अनुसार, प्रांत के ग्रामीण किसान अनियमित बारिश और पानी की कमी के कारण अपनी फसलों पर सिंचाई नहीं कर पा रहे हैं। कुछ इस विकट संकट की स्थिति के कारण आत्महत्या कर रहे हैं।

नंदिनी वॉइस नाम के एक नॉन प्रॉफिट ऑर्गनाइजेशन ने तमिलनाडु में रहने वाले नागरिकों के विचारों और सुझावों को आमंत्रित किया है ताकि कृषि समुदाय को अल्पकालिक और दीर्घकालिक राहत प्रदान की जा सके।

इसमें बड़ी संख्या में लोगों ने अपनी प्रतिक्रिया दी, जिनमें से मुख्य विचारों व सुझावों का हम अपने लेख में खुलासा कर रहे हैं। सूखे की स्थिति भारत में किस हद तक ग्रामीण किसानों को प्रभावित करती है, इस पर तुरंत सभी संबंद्ध लोगों को ध्यान देने की जरूरत है।

सूखे की समस्या नई नहीं है, और सरकारें ध्यान नहीं देती है

तमिलनाडु में सूखे की समस्या नई नहीं है। तमिल साहित्य भी इंगित करता है कि पंडियन साम्राज्य के दौरान लगभग 12 वर्षों तक यहां अकाल जैसे हालात प्रबल थे।

कभी उपजाऊ भूमि रहा डेल्टा क्षेत्र ने जंगल और कृषि के विकास के लिए प्रोत्साहित किया था। घने जंगल के आच्छादन से बाढ़ को रोकने, पहाड़ी ढलानों पर पानी को रोके रखने के लिए और सहायक नदियों द्वारा भूजल को रिचार्ज करने में सहायता मिलती है। हालांकि अब नदी घाटियों पर वर्षों से हो रही वनों की कटाई से वर्षा में कमी हो रही है।

सरकार खुद भी इन वनों की कटाई को रोकने में फेल रही जो अब काफी महंगा साबित हो चुका है।

एक अनुमान के तहत तमिलनाडु के करीब 50 फीसदी जिले सूखा प्रवण क्षेत्र हैं। सिंचाई के लिए बने टैंक, तालाब, झरने और दूसरे माध्यम के मलबों को कई वर्षों से साफ तक नहीं किया गया है।

उदाहरण के लिए कडालोर जिले में अकेले 3500 से ज्यादा सिंचाई टैंक हैं और उनमें से कई सूख चुके हैं।

पिछले कई समय से सूखे के अनुभव की वजह से तमिलनाडु सरकार को अब वाकई वर्तमान स्थिति से निपटने के लिए तैयार रहना चाहिए लेकिन दुर्भाग्यवश , हम अब तक सूखे को रोकने के लिए रणनीतियां ही ढूंढ रहे हैं, उन पर चर्चा कर रहे हैं और उन्हें देख रहे हैं।

क्या हैं किसानों की आत्महत्या की वजहें

कई किसान निजी धन उधारकर्ताओं के कर्ज के जाल में फंसे हैं। ब्याज दर भी 25 फीसदी से शुरू होकर 60 फीसदी तक ऊंची होती जा रही है।
कई किसानों की आत्महत्या की सबसे बड़ी वजह मानसून का फेल होना होता है, इसके बाद ऋण का बोझ, व्यक्तिगत मामले और पारिवारिक समस्याएं शामिल होती हैं।
उन पर निजी उधारकर्ताओं की शरण में जाने के लिए दवाब बनाया जाता है क्योंकि खेती से आने वाली आय से उनके परिवार की जरूरतें जैसे बच्चों की शिक्षा, बीमारी के इलाज व शादी-ब्याह जैसे काम पूरे नहीं हो पाते।
जब फसल खराब होने लगती है, तो फसल हानि और क्षति के मूल्यांकन का मुआवजा भी समय पर नहीं मिल पाता है। फसल बीमा अब किसानों के लिए धोखा साबित हो चुका है।

बोरवेल पर ज्यादा निर्भर रहना


पानी की कमी उत्पादकता को प्रभावित करती है। सूखे की स्थिति के दौरान भूजल की कमी सिंचाई में भयंकर समस्या उत्पन्न करती है। तमिलनाडु रेन शैडो एरिया में स्थित है जहां वार्षिक वर्षा 1100 से 1200 मिमी होती है जबकि वार्षिक वाष्पीकरण 2190 से 2930 मिमी तक होता है जो प्रत्येक सीजन पर सूरज की रोशनी के घंटे पर निर्भर करता है।
जबकि डेल्टा क्षेत्र में वार्षिक वर्षा काफी ज्यादा होती है फिर भी मुख्य फसलों के उत्पादन वाले महीनों में सिंचाई के लिए केवल 30 प्रतिशत ही जल प्राप्त हो पाता है। इस क्षेत्र की लगभग 65 फीसदी भूमि ही सिंचित रह पाती है। ऐसी स्थिति में भूजल संसाधन और बोरवेल पर निर्भरता काफी बढ़ जाती है।
राज्य में करीब 3.1 लाख बोरवेल और करीब 15.66 लाख खुले कुएं हैं जो भूजल निकालने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। पंप सेटों के उपयोग में भी इजाफा हो रहा है।
जहां-जहां सिंचाई के साधन बोरवेल और पंप मौजूद हैं वहां पैदावार अच्छी है लेकिन इन क्षेत्रों के छोटे किसानों को सिंचाई के लिए वर्षा और बांधों पर निर्भर रहना पड़ता है। लोगों को बोरवेल के बजाय खुले कुएं की खुदाई के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

किसान पूरे साल खेती नहीं करते


ये एक गलत धारणा है कि डेल्टा क्षेत्र के किसान एक साल में तीन फसल काटते हैं। मामला यह नहीं है। मुख्य रूप से डेल्टा की मिट्टी की प्रकृति साल में एक बार ही धान की खेती की अनुमति देती है।
अगर सिंचाई के लिए समुचित पानी उपलब्ध होता है तो किसान प्रतिबंधित क्षेत्रों में भी कुरुवई और थैलेडी धान की फसल उगाते हैं।
कभी बाजरे की खेती के लिए जाना जाने वाला डेल्टा क्षेत्र अब धान और गन्ने की खेती के लिए प्रसिद्ध हो गया है। इन दोनों ही फसलों में अधिक पानी की जरूरत होती है।
इस समय जो खेती करने का पैटर्न है उससे फसल के साथ-साथ मिट्टी से पोषक तत्व गायब हो रहे हैं, फसल में कीट का हमला होने की संभावना बढ़ रही है।
ये जरूरी है कि बाजरे की खेती की तरफ दोबारा लौटा जाए, जो पोषक होने के साथ-साथ कम पानी में आसानी से उग जाती थी।

कृषि उत्पादकता को सुधारने की जरूरत


डेल्टा क्षेत्र में कृषि समस्या का दूसरा कारण कम उत्पादकता का होना है। कम उत्पादकता से किसानों की आय भी कम हो रही है। इससे खेती में निवेश भी प्रभावित होता है। इस मुद्दे पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता जितना जरूरी है।


एक कुशल मार्केटिंग स्ट्रक्चर की आवश्यकता


भारतीय किसानों को उनके उत्पाद पर ग्राहकों द्वारा दी गई कीमत का सिर्फ 10 से 20 फीसदी ही प्राप्त होता है, बाकी ट्रांसपोर्टेशन की लागत और बिचौलिओं को चला जाता है।
वहीं यूरोप और संयुक्त राज्य के विकसित अर्थव्यवस्था के किसानों को यह कीमत 64 से 80 फीसदी तक मिलती है।
उपभोक्ता की जरूरतों को पूरा करने के लिए उत्पाद के साथ प्रभावी मार्केटिंग स्ट्रक्चर की स्थापना किसानों के लिए एक बड़ी आवश्यकता है। तमिलनाडु में कोल्ड स्टोरेज, फूड पैकेजिंग के साथ-साथ सुरक्षित और कुशल ट्रांसपोर्ट सिस्टम की कमी है।
इस वजह से वहां खाने की बर्बादी की दर ज्यादा है, खास तौर पर मानसून और प्रतिकूल मौसम परिस्थितियों के दौरान। कृषि उत्पाद व्यापारियों के कम और अक्षम चेन के जरिए ग्राहक तक पहुंचते हैं। ग्राहक सब्जी मंडियों से ही कृषि उत्पाद खरीदता है जिससे बिचौलियो का फायदा होता है और किसानों का नुकसान। एक किसान समर्पित बाजार होना जरूरी है जहां किसानों को प्रत्यक्ष रूप से अपने उत्पाद बेचने का हक हो। सरकार को किसान फ्रेंडली मार्केटिंग मैकेनिज्म बनाने की जरूरत है।

     

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