आधुनिक मशीनों से बदल रही महाराष्‍ट्र के किसानों की किस्मत

आधुनिक मशीनें किसानों का समय तो बचा ही रही हैं, उनकी आय भी बढ़ा रही हैं। महाराष्‍ट्र के किसानों, मछुआरों की जिंदगी कैसे बदली, पढ़िए उनकी कहानी।

Manoj ChoudharyManoj Choudhary   25 Aug 2022 8:35 AM GMT

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आधुनिक मशीनों से बदल रही महाराष्‍ट्र के किसानों की किस्मत

महाराष्ट्र के सतारा जिले के विंग गाँव में धान रोपाई मशीन। सभी फोटो: अरेंजमेंट

आनंद मोकाशी ने खेती के अपने पारिवारिक व्यवसाय को छोड़ने का लगभग फैसला कर लिया था। विंग गाँव का 28 वर्षीय किसान महाराष्ट्र के सतारा जिले में अपनी एक एकड़ धान की जमीन पर खेतीहर मजदूरों से काम कराने की कोशिश कर रहे थे।

मोकाशी ने गाँव कनेक्शन को बताया, "ज्यादातर लोग जो परंपरागत रूप से खेतीहर मजदूर थे, वे अब फैक्‍ट्रि‍यों में काम करने चले गये हैं। हमें अब दूर-दूर से मजदूर लाना पड़ता है।"

मोकाशी के अनुसार एक एकड़ धान के खेत में लगभग 30 मजदूरों की जरूरत पड़ती है और एक बार की कटाई की लागत 8,000 रुपये से अधिक थी। यह लागत बीजों से ज्‍यादा है। बीजों की कीमत किसानों को लगभग 40 किलोग्राम (किलो) प्रति एकड़ के लिए 2,400 रुपये पड़ती है।

लेकिन चार साल पहले कुछ ऐसा हुआ जिसने सब कुछ बदल दिया और मोकाशी अब एक उत्साही किसान हैं जो खेती से मुनाफा कमा रहे।

जून 2018 में विंग के बारह युवा ग्रामीणों ने मिलकर रामेश्वर रेशम उद्योग नामक एक स्वयं सहायता समूह का गठन किया। उन्होंने यह देखने के लिए ऐसा किया कि क्या वे एक साथ अपने गाँव में किसानों के संकट का समाधान कर सकते हैं।

उनके विचार-विमर्श के बाद चावल ट्रांसप्लांटर मशीन खरीदने का प्‍लान बनाया। गोदरेज एंड बॉयस एमएफजी कंपनी ने उन्हें 2.75 लाख रुपये की मशीनरी 50 प्रतिशत सब्सिडी पर दी।

सतारा की खंडाला तहसील के मिरजे गाँव में एक ऐसी ही ट्रांसप्लांटिंग मशीन ने जिंदगी बदल दी। श्री नाथसागर किसान समूह ने दो साल पहले मशीनरी ली थी। मिर्जे निवासी घनश्याम जाधव ने गांव कनेक्शन को बताया, "गांव में करीब 42 एकड़ जमीन में ट्रांसप्लांटिंग मशीन का इस्तेमाल किया जा रहा।"


"हमें पहले लगभग 2,000 किलो धान प्रति एकड़ मिलता था, लेकिन एक बार जब हमने मशीन का उपयोग करना शुरू कर दिया तो हमारी उपज 2,500 किलोग्राम प्रति एकड़ हो गई। किसान अब अपनी जमीन पर काम करने के लिए अन्य मजदूरों पर निर्भर नहीं हैं। परिवार के सिर्फ दो सदस्यों से ही काम हो जा रहा।," उन्होंने बताया।

जाधव के अनुसार मशीन ने किसानों की कटाई लागत 12,000 रुपये से घटाकर लगभग 5,000 रुपये प्रति एकड़ कर दी। बीज की कीमत भी कम हुई। प्रति एकड़ 40 किलोग्राम बीज का उपयोग करने से आवश्यकता घटकर 12 किलोग्राम प्रति एकड़ रह गई। हाथ से बीज लगाने से एक बड़ा हिस्सा बर्बाद हो जाता है या बह जाता है। नतीजतन खर्च 2,400 रुपये प्रति एकड़ से घटकर 700 रुपये प्रति एकड़ हो गया।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि श्रम लागत में कमी आई क्योंकि अब केवल दो लोगों प्रत‍ि एकड़ खेत में प्रत‍िदिन दो घंटे काम करने की जरूरत पड़ती है। जबकि किसान हर मौसम में प्रति एकड़ 8,000 रुपये से अधिक श्रम लागत के रूप में खर्च करते थे जो मशीन की बदौलत घटकर 2,000 रुपये हो गया है।

गोदरेज और बॉयस कंपनी की कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी ने इन मशीनों के प्रयोग को और सुलभ बनाया।

गोदरेज एंड बॉयस के कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) और सस्टेनेबिलिटी के प्रमुख, अश्विनी देवदेशमुख ने गांव कनेक्शन को बताया, "हमने 2018 में सतारा जिले में एकीकृत खेती पर ध्यान केंद्रित करना शुरू किया जिसका उद्देश्य पूरे गांव समुदायों को मजबूत और विकसित करना है।" .

देव देशमुख ने कहा, "100 ग्रामीणों के साथ विभिन्न परियोजनाएं शुरू की गईं और मार्च 2024 तक 2,200 ग्रामीणों को प्रत्यक्ष लाभ सुनिश्चित करने का लक्ष्य है। हम आजीविका और कृषि क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।" उन्होंने कहा कि इन हस्तक्षेपों से और भी बहुत से लोग परोक्ष रूप से लाभान्वित हो रहे हैं।

धान रोपाई मशीन

झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले के टाटा स्टील फाउंडेशन के कृषक सतीश पाणिग्रही ने कहा कि रोपाई मशीन किसानों की पैसे बचाने वाली दोस्त साबित हुई है और अधिक से अधिक लोग इसका इस्तेमाल करने के लिए आगे आ रहे हैं।

किसान ने गाँव कनेक्शन को बताया, "गांवों में महिलाएं अपनी जमीन से मिट्टी इकट्ठा करती हैं, उसे साफ करती हैं, उसमें से छोटे-छोटे पत्थर निकालती हैं, ट्रे में डालती हैं और उसमें धान के बीज लगाती हैं, तब मशीन काम में आती है।" पाणिग्रही ने बताया, "बीज ट्रे में अंकुरित होते हैं जिसके बाद उन्हें चावल ट्रांसप्लांटर मशीन में रखा जाता है, जो प्रत्येक पौधे को एक निश्‍चित दूरी पर ट्रांसप्लांट करता है। मशीन को चलाने के लिए केवल दो लोगों की आवश्यकता होती है।"

मोकाशी ने दोहराया, "प्रत्यारोपण मशीन ने उत्‍पादन बढ़ा दिया हैक्योंकि पौधे एक निश्चित दूरी पर लगाए गए थे, यह सुनिश्चित करते हुए कि प्रत्येक पौधे में बढ़ने के लिए पर्याप्त जगह थी।"

धान किसान ने कहा कि प्रति एकड़ उपज लगभग 1,300 किलोग्राम हुआ करती थी जिससे वे 50,000 रुपये कमाते थे। लेकिन अब प्रति एकड़ उपज बढ़कर 1,800 किलोग्राम हो गई थी और उन्होंने अपनी उपज बेचकर 75,000 रुपये तक की कमाई की।

रामेश्वर रेशम उद्योग समूह ग्राम समूह अन्य किसानों को मशीन किराए पर देकर अतिरिक्त कमाई भी कर रहा। ये किसान जो एसएचजी का हिस्सा नहीं होते। कुल मिलाकर लगभग 42 किसान अपने गाँव में मशीन का उपयोग कर रहे हैं। गैर-सदस्यों को मशीनरी चलाने के लिए आवश्यक पेट्रोल और 100 रुपये प्रति घंटे का भुगतान करना पड़ता है। मोकाशी के मुताबिक गांव में कुल 35 एकड़ जमीन पर काम करने के लिए ट्रांसप्लांटिंग मशीन किसानों को किराए पर दी गई है।

सदस्य-किसानों की पत्नियां भी अपने सीडर और नर्सरी ट्रे पर पौधे तैयार करने का प्रारंभिक कार्य करके पैसा कमा रही हैं।

एक सदस्य किसान की पत्नी स्वप्नाली महागरे ने गाँव कनेक्शन को बताया, "वे 30 रुपये प्रति ट्रे लेत हैं और एक किसान को एक एकड़ जमीन के लिए लगभग 80 ट्रे की आवश्यकता होती है।" यह काम करीब 10 महिलाएं कर रही हैं।

उन्होंने कहा, "प्रत्येक महिला सात सप्ताह के अंतराल में लगभग 2,400 रुपये कमाती हैं। अपने खेत के लिए रोपण तैयार करने के अलावा वे इसे अन्य किसानों के लिए भी बनाती हैं और इसके लिए शुल्क लेती हैं।"


मछुआरों के लिए फाइबर बोट और सोलर ड्रायर

खंडाला तहसील में सिर्फ किसान ही नहीं गोदरेज और बॉयस ने मछुआरा समूहों को भी उन्नत उपकरण उपलब्ध कराए हैं। इसने खंडाला में मछुआरों को छह नावें खरीदने के लिए 50 प्रतिशत सब्सिडी प्रदान की है। प्रत्येक नाव का उपयोग दो लोगों कर रहे हैं। यह गोसाविराज मछुआरे समूह के गठन के बाद हुआ।

खंडाला तहसील के टोंडल गाँव का मछुआरा समुदाय संघर्ष कर रहा थ। वे मछली के लिए जोखिम भरे तरीकों का इस्तेमाल करते थे और अक्सर दुर्घटनाओं में घायल हो जाते थे या बीमारियों से घिर जाते थे। और कड़ी मेहनत के अंत में वे केवल तीन से पांच किलोग्राम मछली पकड़ पाते थे जिससे उन्हें लगभग 400 रुपये मिलते थे।

लेकिन अब, उनके पास फाइबर बोट, बेहतर गुणवत्ता वाले जाल और एक सोलर फिश ड्रायर है, जिससे उनकी आय और जीवन स्तर में वृद्धि हुई है।

टोंडल गाँव के एक मछुआरे नवनाथ पानसरे ने गाँव कनेक्शन को बताया, "पहले हम असुरक्षित नावों के कारण वीर बांध के पानी में बहुत दूर तक नहीं जा सकते थे।" वे पानी में एक किलोमीटर से अधिक की यात्रा नहीं करते थे और अक्सर खाली हाथ लौटते थे।


"जून 2021 से हम फाइबर बोट से मछली पकड़ने के जाल का उपयोग कर रहे हैं और हम बांध द्वारा बनाई गई झील में पांच किलोमीटर तक जा सकते हैं। अब हममें से हर आदमी एक दिन में आठ से पंद्रह किलोग्राम मछली आराम से पकड़ लेते हैं। पनसारे ने कहा। "अब हम लगभग 1,500 रुपये प्रतिदिन कमाते हैं," उन्होंने खुशी से कहा।

टोंडल गाँव के मछुआरे न केवल मछली की बेहतर पैदावार का आनंद ले रहे हैं, बल्कि वे लाइफ जैकेट जैसे अधिक सुरक्षा उपकरणों के साथ भी मछली पकड़ रहे हैं। इसके अलावा, गोसाविराज मछुआरे समूह ने सौर ड्रायर भी खरीदे जो मछलियों को लंबे समय तक संरक्षित रखने में मदद करते हैं, जिससे मछुआरों को उनके पकड़ने के लिए बेहतर कीमत मिलती है।

मछुआरों के समूह को सात सोलर ड्रायर मिले और उन्हें उनके लिए केवल 10,000 रुपये का भुगतान करना पड़ा (शेष 50,000 रुपये गोदरेज और बॉयस द्वारा वहन किए गए थे)। पानसरे ने गाँव कनेक्शन को बताया कि अब मछली को एक महीने तक सुरक्षित रखा जा सकता है।

टोंडल गाँव के विष्णु बामने ने गाँव कनेक्शन को बताया, "पहले हम जो छोटी मछलियां लाते थे, उनमें से ज्यादातर बर्बाद हो जाती थीं क्योंकि वे खराब हो जाती थीं। लेकिन अब, छोटी सूखी मछलियां मुर्गी के चारे के रूप में भी बेची जाती हैं।" उन्होंने कहा कि कभी-कभी वे सूखी मछली को लगभग 300 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बेच देते थे।

टोंडल में एक मछुआरे की पत्नी कल्याणी पनसारे ने गाँव कनेक्शन को बताया कि जब पुरुष मछली पकड़ने जाते थे तो उन्हें बहुत चिंता होती थी। "लेकिन अब हम जानते हैं कि वे सुरक्षित हैं और हम मछली को सुखाकर परिवार की आय भी बढ़ा रहे हैं जिससे हमें अतिरिक्त पैसा मिलता है, "उन्होंने कहा।

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