खेती की एक तकनीक जो है बाढ़ और सूखे के खिलाफ एक सुरक्षा कवच

Karan Pal SinghKaran Pal Singh   16 Nov 2017 6:03 PM GMT

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खेती की एक तकनीक जो है बाढ़ और सूखे के खिलाफ एक सुरक्षा कवचउत्तराखंड की कोसी नदी के किनारे खेजारी गाँव में खेत की निराई करती महिला। फोटो: विनय गुप्ता

सोनभद्र (उत्तर प्रदेश)। हल्की-हल्की बारिश में छप्पर के नीचे हुक्के को गुड़गुड़ाते हुए गोंड़ आदिवासी जनजाति के मुखिया मूंछों पर ताव देते हुए कहते हैं, “हमें मौसम की कोई चिंता नहीं है। हमारे खेत में फसल एकदम सही है। हमारे पूर्वजों द्वारा दी गई बेवर खेती को ही हम लोग करते हैं जिससे हमरी जनजाति को अनाज की कमी नहीं होती है।

उन्होंने अपने शब्दों में बताया।” सोनभद्र में आदिवासियों को अपनी खेती पर मौसम के उतार-चढ़ाव पर कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वे आज भी सदियों से चली आ रही बेवर खेती प्रणाली से खेती करते हैं।

आदिवासियों को अपनी खेती पर मौसम के उतार-चढ़ाव पर कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वे आज भी सदियों से चली आ रही बेवर खेती प्रणाली से खेती करते हैं।
नरेश गोंड, किसान, सोनभद्र

जिला मुख्यालय से लगभग 150 किमी दूर दक्षिण दिशा में स्थित बभनी ब्लॉक के करकच्छी गाँव में आदिवासी जनजातियों की अधिकता है। यहां की आदिवासी जनजाति पहाड़ों पर बिना संसाधन के खेती करती है और साल भर खाने के लिए अनाज की कमी नहीं रहती है। गोंड जनजाति के मुखिया नरेश गोंड (58 वर्ष) बताते हैं, “सदियों से चली आ रही बेवर खेती में जमीन को जोता नहीं जाता। इस खेती में 16 से लेकर 56 तरह के पारंपरिक बीजों की मदद से खेती की जाती है। इस देसी तकनीक में ना बाढ़ का असर पड़ता है और ना ही सूखे का। इसमें इतनी फसल हो जाती है कि हमारे कबीले का गुजारा हो जाए।”

सोनभद्र के कई इलाकों की जमीन पथरीली लेकिन काफी उपजाऊ है।

देवना टोला के रहने वाले राम बिलास खरवार (49 वर्ष) बेवर खेती के बारे में बताते हैं, “हम खेत जोतते नहीं हैं बस छोटी-बड़ी झाड़ियों को जलाने के बाद आग ठंडी होने पर वहीं ज़मीन पर कम से कम 16 अलग-अलग तरह के अनाज, दलहन और सब्जियों के बीज डाल देते हैं। इनमें वो बीज होते हैं, जो अधिक बारिश हुई तो भी उग जाएंगे और कम बारिश हुई तो भी हो जाते हैं। इस खेती में न खाद की ज़रूरत होती है और न महंगे कीटनाशकों की।”

जंगल में मिलने वाले कम से कम 24 तरह के पत्ते और फूल और 25 तरह फलों की सब्ज़ी आदिवासियों के भोजन का हिस्सा हैं। मशरुम की लगभग 50 प्रजातियां हैं, जिन्हें गोंड़, बैगा और कोरबा आदिवासी खाते हैं।
नलिन सुंदरम भट्टू, जिला उद्यान अधिकारी, सोनभद्र (तत्कालीन)

बोए जाते हैं ये बीज

यूं तो आदिवासी जनजाति के कई बीज विलुप्त हो रहे हैं, लेकिन फिर भी कई तरह के बीज जैसे भेजरा, डोंगर, सिकिया, नागदावन कुटकी, रसैनी कुटकी, मलागर राहर, कतली कांग, खड़ेकांग, रोहलाकांग, मदेला उड़द, छोटे राहर, रोहेला भुरठा, कबरा, झुंझरू, डोगरा, हारवोस, बेदरा, डोलरी, सफेद कांदा और रताल किसी तरह आज भी बचे हुए हैं जो बेवर खेती में प्रमुखता से बोए जाते हैं।

नहीं रहता कीड़ा लगने का डर

बेवर खेती की मिश्रित प्रणाली के कारण फसल में कीड़ा लगने का खतरा भी नहीं रहता है। इसमें बाढ़ व आकाल झेलने की क्षमता भी होती है और यह कम लागत व अधिक उत्पादन की तर्ज पर काम करता है। इसकी ख़ासियत यह है कि इस खेती में एक साथ 16 से 56 प्रकार के बीजों का इस्तेमाल किया जाता है, उनमें कुछ बीज अधिक पानी में अच्छी फसल देता है, तो कुछ बीज कम पानी होने या सूखा पड़ने पर भी अच्छा उत्पादन करता है।

ब्रिटिश सरकार ने लगाई थी रोक

जब देश गुलाम था तब ब्रिटिश सरकार ने जंगल की कटाई रोकने के नाम पर बेवर खेती को प्रतिबंधित कर दिया था, लेकिन 1972 में भारतीय वन कानून बनने के बाद इस प्रतिबंध को वापस ले लिया गया।

तीन प्रकार की आदिवासियों की खेती की पुरानी विधियां

बेवर खेती, पहली विधि- जहां पानी की जरूरत नहीं होती वहां बीजों को राख में दबा दिया जाता है या बड़े गड्ढे के जरिए ज़मीन में छेदकर रोप दिया जाता है। आदिवासियों में सबसे ज्यादा की जाने वाली विधि है।

डाही खेती, दूसरी विधि- जिसमें नदी नालों के किनारे या दलदली ज़मीन या जंगलों की नमी के बीच फसल बोई जाती है, लेकिन पानी की कमी और बेमौसम बरसात से होने वाले नुकसान के कारण इस विधि का इस्तेमाल अब न के बराबर करते हैं।

किडवा खेती, तीसरी विधि- इसमें बाँस की मदद से लकड़ी को जलाया जाता है और ज़मीन में छेद करके फसल ली जाती है, लेकिन यह विधि भी अब प्रचलित नहीं रही।

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