Kisan Divas: किसान के हैं मर्ज़ क़ाफ़ी, सरकारों का शॉर्टकट- कर्ज़माफ़ी

देश में इस बात की चर्चा है कि क्या कर्ज़ामाफ़ी ही वी ब्रह्मास्त्र है जिससे कृषि संकट खत्म हो जाएगा
#Kisan Divas

लखनऊ। वादे के मुताबिक तीन राज्यों राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकारों ने कर्ज़माफ़ी की प्रक्रिया शुरू कर दी है। इसी के साथ इस चर्चा से जोर पकड़ा है कि क्या कर्ज़माफ़ी ही वह ब्राह्मास्त्र है, जिससे कृषि संकट खत्म हो जाएगा? कर्ज़ कृषि का बड़ा रोग है लेकिन दूसरी समस्याएं भी किसानों की राह की बाधा हैं।

17 दिसंबर को शपथ लेने के बाद मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ भोपाल में जब किसानों की कर्ज़माफ़ी की फाइल साइन कर रहे थे तो उससे कुछ घंटे पहले वहां से लगभग 600 किलो मीटर दूर महाराष्ट्र की नासिक की एक मंडी से देवीदास परभाने एक कुंतल प्याज के बदले 700 रुपए लेकर घर जा रहे थे। महाराष्ट्र में पिछले साल जून में भाजपा की देवेन्द्र फडणवीस सरकार ने भी किसानों का कर्ज़ा माफ किया था।

30 नवंबर को जब देशभर के किसान नई दिल्ली पहुंचे थे, उनकी मांगें बस यह संपूर्ण कर्ज़माफी नहीं थीं, बल्कि किसान संगठन संसद का विशेष सत्र बुलाकर उन दो बिलों को पास करने की मांग कर रहे हैं, जिनमें से एक बिल लाभकारी न्यूनतम मूल्य देने और उस पर कानून बनाने का भी है।

महाराष्ट्र में नासिक, लाडाची के रहने वाले किसान देवीदास परभाने (48) गांव कनेक्शन को फोन पर बताते हैं “हमारे यहां मंडियों में प्याज की खरीदी एक से दो रुपए प्रति किलो में हो रही है। मुझे एक कुंतल के लिए 700 रुपए मिला, इतने का तो खाद पानी ही लग गया था। आप फायदे की तो बात ही मत करिए, हम तो अब लागत निकालने की सोचते हैं।” परभाने को भी पिछले साल कर्ज़माफी योजना का लाभ मिला था, हालांकि उन्होंने यह नहीं बताया कि कितनी राशि माफ हुई थी।

1990 में वीपी सिंह की सरकार ने पहली बार पूरे देश के किसानों का करीब 10 हजार करोड़ रुपए कर्ज़ माफ़ किया था। फिर यूपीए सरकार ने 2008-09 के बजट में करीब 4 करोड़ किसानों को ध्यान में रखकर करीब 71 हजार करोड़ रुपए का एकमुश्त कर्ज़माफी किया था।

कर्ज़माफी की कश्ती पर सवार कांग्रेस ने 2014 तक देश में सरकार चलाई। अब एक बार फिर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने आगामी लोकसभा चुनाव में कर्ज़माफी को मुख्य मुद्दा बताया है। बीजेपी ने सत्ता में आने पर कर्ज़माफी को राज्यों का मुद्दा बता कर उन पर छोड़ दिया था, जिसके बाद उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान की भाजपा सरकारों ने नियम-शर्तों के साथ कर्ज़ माफ किए। लेकिन उसी राजस्थान में बीजेपी हार गई और यूपी में किसान संतुष्ट नहीं है। महाराष्ट्र के किसान लगातार आंदोलन करते रहे हैं।

ये भी पढ़ें-देश के 52.5% किसानों पर है कर्ज, अगर 2019 में हुआ माफ तो भी नहीं मिलेगी राहत

देश के प्रख्यात खाद्य एवं निर्यात निति विशेषज्ञ देविंदर शर्मा कहते हैं “कर्ज़माफी शार्ट टर्म रिलीफ है। यह किसानों की समस्या की पूर्णकालिक समाधान नहीं है। यह तो प्रायश्चित है।” अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वो कहते हैं, “पिछले चार दशकों से किसानों की आय स्थिर बनी हुई है। ऐसे में किसानों को डायरेक्ट इनकम सपोर्ट की जरूरत है, हर राज्यों में किसान आयोग बनना चाहिए जो किसानों की आय बढ़ाने पर काम करें। इसके अलावा केंद्र सरकार की कृषि लागत एवं मूल्य आयोग का नाम बदलकर किसान आय और कल्याण आयोग कर देना चाहिए और इसका काम हो कि यह किसानों की आय बढ़ाने के उपायों पर काम करें।”

राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार ने कर्जमाफी की प्रक्रिया शुरू की

किसानों की आमदनी 2022 तक दोगुनी करने के सरकारी वादे में नीति आयोग का अहम रोल है। योजना आयोग का नाम बदलकर बने नीति आयोग ने तीन राज्यों में हुई कर्ज़माफी को वाजिब नहीं ठहराया है। नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने कहा है कि कृषि क्षेत्र में संकट के लिए कृषि ऋण माफी कोई समाधान नहीं है। नीति आयोग के सदस्य (कृषि) रमेश चंद भी कुमार की बातों से सहमति जताते हैं और कहते हैं कि कर्ज़ माफी की सबसे बड़ी समस्या यह है कि इससे किसानों के केवल एक तबके को लाभ होगा।

राजीव कुमार कहते हैं, “जो गरीब राज्य हैं, वहां केवल 10 से 15 प्रतिशत किसान कर्ज़ माफी से लाभान्वित होते हैं क्योंकि ऐसे राज्यों में बैंकों या वित्तीय संस्थानों से कर्ज़ लेने वाले किसानों की संख्या बहुत कम है। यहां तक कि 25 प्रतिशत किसान भी संस्थागत कर्ज़ नहीं लेते।” वहीं रमेश चंद आगे कहते हैं किसानों के कर्ज़ लेने के मामले में संस्थागत पहुंच को लेकर जब राज्यों में इस तरह का अंतर हो, तब ऐसे में बहुत सारा पैसा कृषि कर्ज़ माफी पर खर्च करने का कोई मतलब नहीं है।” उन्होंने कहा, कैग की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि कृषि कर्ज़ माफी से मदद नहीं मिलती। कृषि क्षेत्र में किसानों की समस्या के हल के लिए कर्ज़ माफी समाधान नहीं है।

कर्ज़माफी शार्ट टर्म रिलीफ है। यह किसानों की समस्या की पूर्णकालिक समाधान नहीं है। यह तो प्रायश्चित है। पिछले चार दशकों से किसानों की आय स्थिर बनी हुई है। ऐसे में किसानों को डायरेक्ट इनकम सपोर्ट की जरूरत है-  देविंदर शर्मा, खाद्य एवं निर्यात निति विशेषज्ञ

उत्तर प्रदेश में कन्नौज के नगला विशना गांव में रहने वाले आदेश कुमार (40 वर्ष) उस लिस्ट में शामिल थे, जिन्हें योगी आदित्यनाथ की सरकार की कर्ज़माफी का लाभ मिला था। आदेश गांव कनेक्शन को बताते हैं, “पिछले साल मेरा करीब 35 हजार रुपए का लोन माफ हुआ था, मैंने फिर इतने ही रुपए का कर्ज़ लिया है। क्योंकि बिना कर्ज़ लिए काम नहीं चलता, हमारे खेतों में जो होता उसका दाम नहीं मिलता। इस बार लहसुन 200 रुपए कुंतल बेचा है, क्या करूं।?”

पिछले कुछ वर्षों से देश में किसान आंदोलनों की संख्या बढ़ी है। किसान संगठन एक मंच पर आकर सरकार और राजनीतिक दलों को अपनी शक्ति का अहसास करा रहे। किसान मुक्ति मार्च का आयोजन करने वाली 208 किसान संगठनों की समिति अखिल भारतीय किसान समन्वय समित की मुख्य मांगों में संपूर्ण कर्ज़माफी और स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक एमएमसपी देने और उसे कानूनी जामा पहनाने की है। ताकि एमएमपी से नीचे खरीद करना कानूनन अपराध हो जाए।

यह भी पढ़ें-क्या किसानों का कर्ज माफ करना सही उपाय है?

कृषि जानकार और विष्लेषक लगातार कहते रहे हैं कि जब तक किसानों की उपज का सही दाम नहीं मिलेगा, खेती की लागत नहीं घटेगी और किसानों को जमीन पर सुविधाएं नहीं मिलेंगी किसान कर्ज़ के जाल से निकल नहीं पाएगा, लेकिन किसानों के ये गंभीर मुद्दे चर्चा में नहीं आ पाते। किसान का जिक्र आत्महत्या और कर्ज़माफी तक सिमटा नजर आता है।

एमएसपी अभी भी पहेली

सरकार किसानों को नुकसान बचाने के लिए 23 फसलों पर एमएसपी दे रही है लेकिन उसकी वास्तविक स्थिति बेहद नाजुक है। देश के मुश्किल से छह फीसदी किसान ही इसके दायरे में आते हैं। उदाहरण के तौर पर देखें तो केंद्र सरकार ने इस साल धान का एमएसपी 200 रुपए बढ़ाकर 1750 रुपए कर दिया, बावजूद इसके किसानों को इसका लाभ नहीं मिल पा रहा। खरीद केंद्रों पर तमाम कमियां बताकर फसल लौटा दी जाती है, फिर किसान बाहर उसे औने-पौने दामों में बेच देता है।


उत्तर प्रदेश के जिला जौनपुर, ब्लॉक मड़ियाहूं के गांव गुतवन के रहने वाले किसान प्रमोद मिश्रा कहते हैं, “दो बार खरीद केंद्र पर अपना धान लेकर गया, लेकिन एजेंसी के अधिकारियों ने यह कहकर फसल लौटा दी कि इसमें नमी ज्यादा है, मुझे पैसों की जरूरत थी, इसलिए मैंने बाहर व्यापारी को 1400 रुपए धान बेच दिया।” मतलब प्रमोद को एक कुंतल के पीछे सरकारी दर के हिसाब 350 रुपए का नुकसान हुआ।

यह भी पढ़ें-क्या किसानों का कर्ज माफ करना सही उपाय है?

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री चंद्र सेन दूसरी समस्याओं की ओर ध्यान दिलाते हुए कहते हैं “सरकार और विशेषज्ञों को इस ओर भी ध्यान देना चाहिए कि ऐसा क्या किया जाए ताकि किसान कर्ज़ ही न लें। एमएसपी के लिए नियम इतना कठिन है कि किसान इसका लाभ ही नहीं उठा पाते। इसके किसानों को सही बीज नहीं मिलता, सिंचाई की व्यवस्था आज भी बदतर है। ऐसे में सरकारों को कर्ज़माफी के साथ-साथ किसानों के इन मुद्दों पर भी बराबर ध्यान देना चाहिए।”

बटाईदार कौन हैं

देश में बड़ी आबादी उन किसानों की है जो भूमिहीन हैं, ये दूसरों से जमीन बटाई या ठेके पर लेकर खेती करते हैं। प्राकृतिक आपदाओं से नुकसान इन्हें भी होता है लेकिन ये किसी दायरे में नहीं आते।


“दो साल पहले ओलावृष्टि और भारी बारिश के कारण दो एकड़ में लगी मेरी रबी की फसल पूरी तरह से बर्बाद हो गयी। मेरा खुद का खेत बहुत कम है। दो एकड़ खेत मैंने बटाई पर लिया था। बंदोबस्त के नाम पर खेत के मालिक ने शुरू में ही मुझसे एक मुश्त राशि ले ली थी। बावजूद इसके उनको नुकसान का मुआवजा मिला। और मुझे कर्ज़ लेना पड़ा। मुझे इसलिए मुआवजा नहीं मिला क्योंकि जमीन के कागजात मेरे नाम से नहीं थे।” बटाईदार किसान राम नरेश गौतम कहते हैं। रामनरेश का गांव बरांव, बिहार की राजधानी पटना से केवल 40 किमी दूर भोजपूर जिले में है।

भारत में 25 फीसदी खेती बटाईदारों के जरिए होती है। इसमें सभी जोखिम बटाईदार उठाते हैं जबकि उन्हें मेहनत का पूरा इनाम नहीं मिलता है।

महाराष्ट्र के जिला यवतमाल के पाढरकवड़ा निवासी किसान नेमराज राजुरकर कहते हैं “हमारे क्षेत्र में आत्महत्या करने वाले किसानों को मुआवजा या सरकारी योजनाओं का लाभ बस इसलिए नहीं मिला क्योंकि वे बटाईदार किसान थे। मैं भी बटाई पर खेती करता हूं। लेकिन हमें लाभ नहीं मिलता।”

सिंचाई व्यवस्था की स्थिति खराब

देश के कई हिस्सों में अच्छी बारिश होने के बावजूद एक बड़ा हिस्सा सूखे की चपेट में आ गया है। इंडिया वाटर पोर्टल के अनुसार क्योंकि देश में आज भी 70 फीसदी से ज्यादा की खेती वर्षा के पानी पर निर्भर है। कुल कृषि क्षेत्र का केवल एक तिहाई हिस्सा ही अब तक सिंचित क्षेत्र के दायरे में आता है। बाकी के दो-तिहाई के लिए किसानों की उम्मीद ऊपर वाले से ही रहती है। इस साल बिहार, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ सहित कई अन्य राज्यों के किसानों को सूखे की स्थिति का सामना करना पड़ रहा है।

यह भी पढ़ें-किसानों का कर्ज माफ करना कृषि समस्या का समाधान नहीं : नीति आयोग

छत्तीसगढ़ के प्रगतिशील किसान के संयोजक राजकुमार गुप्ता कहते हैं कि हमारे यहां सबसे ज्यादा धान की पैदावार होती है जिसके लिए पानी की ज्यादा जरूरत होती है, लेकिन इस साल बारिश कम हुई है। लेकिन सरकार से नलकूप लगाने के लिए मदद नहीं मिलती। ऐसे में गरीब किसानों के सामने सबसे बड़ी समस्या पानी की है।

खराब बीज से घाटा सह रहे किसान

जलवायु परिवर्तन और सरकार की नीतियों के बाद किसानों का सबसे ज्यादा नुकसान खराब बीज के कारण भी हो रहा है। हाईब्रिड धान की वजह से देशभर के किसान परेशान हैं। इसके चावल टूटते ज्यादा है जिस कारण एजेंसियां और राइस मिलर्स खरीदने से इनकार कर देते हैं। ऐसे में इन किसानों को एमएसपी का लाभ नहीं मिल पाता। यूपी में जिला सीतापुर, बिसवां के किसान पद्मकांत सिंह 20 अक्टूबर को जब धान लेकर खरीदी केंद्र गये तो उनकी उपज मंडी में नहीं बिकी। हाइब्रिड बीज का धान होने के कारण रिजेक्ट कर दिया गया।

पद्मकांत कहते हैं ” मैंने बीज सरकारी खरीदी केंद्र से ये कहकर खरीदा था कि ज्यादा उपज वाला बीज चाहिए, किस्म का ध्यान मुझे नहीं है, लेकिन सरकार एजेंसियों ने खरीदा ही नहीं, उनका कहता था कि धान ज्यादा टूटा है।”

किसानों के सामने छुट्टा मवेशी इस समय सबसे बड़ी समस्यों में से एक हैं।

ऐसा ही कुछ हाल बीटी कपास का भी है। महाराष्ट्र में पहले तो बीटी कपास को खूब बढ़ावा दिया गया लेकिन अब वही बीटी कपास किसानों के लिए काल बनता जा रहा है। महाराष्ट्र के जिला जलगांव के कपास किसान जीवन पाटिल बताते हैं “बीटी का प्रयोग तो हम इसलिए कर रहे थे कि इसमें कीड़ नहीं लगते, लेकिन अब तो पूरी की पूरी फसल बर्बाद हो जा रही है। कीटनाशकों के छीड़ंकाव से जहां लागत बढ़ रही है तो वहीं इससे जान का खतरा बना रहता है। हम अब दूसरी खेती पर जोर दे रहे हैं।”

यह भी पढ़ें-Election results 2018: लोकसभा चुनाव से पहले किसानों की पहली जीत ?

सीएआई (कॉटन एसोसिएशन आफ इंडिया) के अनुसार, महाराष्ट्र में कपास वर्ष 2016-17 (अक्टूबर से सितंबर) में कपास की बुआई 37 लाख हेक्टेयर में की गई थी जबकि उत्पादन 89 लाख गांठ था और 2017-18 में रकबा बढक़र 42 लाख हेक्टेयर हो गया जबकि फसल उत्पादन घटकर 82 लाख गांठ रह गया और 2018-19 में शुरुआती संकेतों से पता चला है कि रकबा घटकर 38 लाख हेक्टेयर रह जाएगा जबकि फसल उत्पादन 75 से 80 लाख गांठ के साथ काफी कम रह सकता है।

छुट्टा मवेशियों का कोई हल नहीं

देशभर में गोवंश को लेकर विवादों के बाद अब किसानों के लिए छुट्टा गोवंश सबसे बड़ी समस्या बने हुए हैं। बुंदेलखंड के जिला हमीरपुर के किसान संतोष प्रजापति कहते हैं कि उन्होंने अपने दो बीघे की जमीन में एक साल कोई फसल नहीं ले रहे हैं। संतोष कहते हैं “पिछले साल उड़द लगाया था, छुट्टा मवेशी सब चर गये। रखवाली करने वाले लोग एक बीघा के लिए 5 से 10 हजार रुपए मांगते हैं। नुकसान के अलावा कुछ नहीं मिल रहा था, इससे बेहतर मैंने खेती छोड़ देना ही बेहतर समझा। वहीं राजस्थान के चितौड़गढ़ के किसान पप्पू जाट कहते हैं कि छुट्टा पशुओं के कारण हमारे खेती आधी हो गई है। हम अबद अपने आस-पास के खेतों में ही खेती कर रहे हैं, दूर के खेतों में छुट्टा मवेशी पूरी फसल ही बर्बाद कर देते हैं।

Recent Posts



More Posts

popular Posts