कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह का लेख- कृषि के 7 दशक और 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुना करने का लक्ष्य

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कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह का लेख-  कृषि के 7 दशक और 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुना करने का लक्ष्यवर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने का लक्ष्य

कृषि प्रधान देश के कृषि मंत्री का खेती-किसानी पर लेख- राधा मोहन सिंह ने अपने ब्लॉक में लिखा है, आजादी के बाद कृषि के क्षेत्र में कई बड़े बदलाव हुए हैं जो 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने में मददगार साबित होंगे..

नई दिल्ली। आज़ादी के बाद के सत्तर वर्षों के बाद देश ने कृषि क्षेत्र में नए आयाम हासिल किए, बीते वर्षों में सिंचाई, उन्नत बीज, नयी तकनीक के क्षेत्र में भी बहुत काम हुआ। केन्द्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री, राधा मोहन सिंह सात दशकों में कृषि क्षेत्रों में हुए बदलाव और विकास के बारे में अपने ब्लॉग में लिखा है।

" रोहिनी बरसै मृग तपै, कुछ कुछ अद्रा जाये
कहै घाघ सुने घाघिनी, स्वान भात नहीं खाये,
शुक्रवार की बादरी रहे शनिचर छाय
कहा घाघ सुन घाघिनी बिन बरसे ना जाए "

जन कवि घाघ की ये लोकोक्तियां ग्रामीण जनजीवन में सदियों से प्रचलित हैं। इन्हीं के सहारे हमारे किसान भाई खेती-किसानी की व्यवस्था को सदियों तक समझते रहे एवं मौसम के आगमन, खेती से जुड़ी जरूरतों, फसल चक्र, उत्पादन आदि की जानकारी प्राप्त करते रहे। लेकिन जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ी, खेती पर दबाव बढ़ा और हमारे किसान भाईयों को खेती के साधनों जैसे उन्नत बीज, खाद, कीटनाशक सिंचाई सुविधाओं आदि की ज़रूरतें महसूस हुई, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, भारत में कृषक समुदाय के लोगों की दशा सुधारने के उद्देश्य से कृषि क्षेत्र में बदलाव लाने के योजनाबद्ध प्रयास शुरू हुए। कृषि में नयी जान फूंकने के इरादे से नीति निर्माताओं ने दोहरी नीति अपनाई। पहली- कृषि के विकास में संस्थागत बाधाओं को दूर करने के लिये भूमि सुधारों को लागू करना तथा दूसरा सिंचाई, बिजली और ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढाँचे के विकास में बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश को बढ़ावा देना।

विभाजन का दंश झेल रहा स्वतंत्र भारत जहां एक तरफ अनेक आर्थिक समस्याओं जैसे- बंगाल अकाल के पश्चात के प्रभाव, निम्न कृषि उत्पादकता, अत्यंत निम्न प्रति व्यक्ति खाद्य उपलब्धता, ग्रामीण ऋणग्रस्तता और बढ़ती हुई भूहीन श्रमिकों की संख्या, से जूझ रहा था, वहीँ बिगडती राजनैतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों के कारण व रोजगार अवसरों की अत्यंत कमी के चलते, तीव्र औद्योगिकरण आवश्यक था। इसके अतिरिक्त कृषि की उद्योगों के प्रति सकारात्मक प्रतिक्रिया भी आवश्यक थी। अत: कृषि की स्थिति को सुधारने के लिये शीघ्रतम प्रयास करने आवश्यक थे।

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नियोजन काल के दौरान भारतीय सरकार ने खाद्य सुरक्षा के लिये प्रयास किए। प्रथम पंचवर्षीय योजना के दौरान 14.9 प्रतिशत कृषि के लिए आवंटित बजट धनराशि इस संदर्भ में अग्रणीय पहल थी। इसके अतिरिक्त सिंचित क्षेत्रों का बढ़ना एवं अन्य भूमि सुधार उपायों के माध्यम से कृषि उत्पादकता में वृद्धि दर्ज हुई। परंतु अनुकूल उत्पादन होने के बाद भी संभावनायें वास्तविकता में रूपांतरित नहीं हुई। साठ के दशक में एक अन्य महत्वपूर्ण नीतिगत प्रयास के तहत कृषि मूल्य नीति भी लागू की गई जो काफी कारगर सिद्ध हुई। इसी दशक के प्रारंभ में नीति निर्धारक ऐसी कृषि तकनीकियों की खोज में थे जो ये रूपांतरण कर सकें और तभी यह तकनीकी ‘‘चमत्कारी बीजों’’ के रूप में सामने आयी, जो कि मैक्सिको में सफल हो चुकी थी। इस प्रकार भारतीय कृषि में हरित क्रांति के आगमन की पृष्ठभूमि तैयार हुई। यह क्रांति एचवाईवी, बीज, रसायन, कीटनाशकों एवं भू-मशीनीकरण पर आधारित थी। इस क्रांति ने भारतीय कृषि की कला को परिवर्तित कर दिया।

60 के दशक के मध्य से 80 के दशक के मध्य तक हरित क्रांति उत्तर पश्चिम राज्यों (पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी यूपी) से लेकर दक्षिण भारतीय राज्यों तक फैल गई। 80 के दशक के प्रारंभ से ही इस तकनीकी का प्रयोग मध्य भारत एवं पूर्वी राज्यों में भी मंदगति से होने लगा।

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यधपि, ज्वार, बाजरा, मक्के विशेषकर चावल एवं गेहूं के एचवाईवी बीजों के प्रयोग ने कृषि उत्पादकता को पर्याप्त तेजी प्रदान की जिससे हरित क्रांति के प्रारंभिक दौर में गेहूं की उत्पादकता में 75 प्रतिशत की बढ़त दर्ज हुई परंतु भारतीय मानसून अत्यधिक अनिश्चित, अनियमित एवं मौसम आधारित होने के करण एचवाईवी बीजों की अधिक सिंचाई एवं उर्वरकों की मांग को झेल पाने में असमर्थ रही। हरित क्रांति को और प्रभावी बनाने के लिये उच्च क्षमता, विश्वसनीय और कम ऊर्जा उपभोग करने वाले उपकरणों एवं मशीनों की भी आवश्यकता अनुभव हुई जिन्हें सीमित संसाधनों से पूरा किया जाना कठिन था। हरित क्रांति की “जनसंख्या सिद्धांत’’ के आधार पर समीक्षा के अनुसार कृषि उत्पादकता बढ़ी तो सही परंतु जनसंख्या वृद्धि की दर से कम, जिससे की आत्म पर्याप्तता की स्थिति प्राप्त नहीं की जा सकती थी।

सिंचाई की विभिन्न तकनीकियों के बाद भी, भारतीय कृषि मानसून पर निर्भर थी। 1979 व 1987 में खराब मानसून के कारण पड़े सूखे ने हरित क्रांति के दीर्घ कालीन उपयोगिता पर प्रश्न चिह्न लगा दिया। एच वाईवी बीजों के सीमित खाद्यान्नों के प्रयोग ने अन्तर खाद्यान्न असंतुलन उत्पन्न किया। भारत के समस्त क्षेत्रों में हरित क्रांति के एक समान प्रयोग व परिणाम न होने के कारण अंतर्क्षेत्रीय असंतुलन भी सामने आये। यद्यपि हरित क्रांति के सफलतम उल्लेखनीय परिणाम पंजाब, हरियाणा व प० उत्तर प्रदेश में प्राप्त हुए परंतु अन्य राज्यों में यह परिणाम संतोषजनक नहीं थे।

मोदी सरकार किसानों के कल्याण में जुटी है। इससे किसानों के जीवन स्तर में बदलाव आ रहा है। प्रधानमंत्री ने 2022 तक किसानों की आमदनी दुगनी करना का लक्ष्य हमें दिया है, हम इस दिशा में काम कर रहे हैं।

यह लेख केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह के ब्लॉग का पहला अंश है। इस लेख के अंतर्गत भारत में पिछले सात दशकों में कृषि क्षेत्रों में हुए बदलाव और विकास के बारे में बताया गया है।

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