जीएम सरसों की तरह अब जीएम गन्ने पर बहस , वैज्ञानिकों का दावा कम पानी में होगी फसल 

Ashwani NigamAshwani Nigam   22 Sep 2017 7:57 PM GMT

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जीएम सरसों की तरह अब जीएम गन्ने पर बहस  , वैज्ञानिकों का दावा कम पानी में होगी फसल गाँव कनेक्शन।

लखनऊ। विश्व के सबसे ज्यादा गन्ना और चीनी उत्पादन करने वाले देश ब्राजील ने जेनिटिकली मोडिफाईड गन्ने की प्रजाति की खेती को अपनी मंजूरी दी है, जिसके बाद से भारत में भी जीएम गन्ने की खेती की बहस एक बार तेज हो गई है।

पानी की कमी के कारण देश के बड़े गन्ना उत्पादक राज्य महाराष्ट्र और कर्नाटक में जहां गन्ने की खेती से किसान मुंह मोड़ रहे हैं वहीं देश में गन्ना की खेती का रकबा लगातार घट रहा है। ऐसे में देश में गन्ने की ऐसी किस्म की मांग हो रही है जिसकी खेती में कम पानी की जरूरत पड़े।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अंतगर्त आने वाले गन्ना प्रजनन संस्थान कोयंबटूर के निदेशक डॉ बख्शी राम ने बताया '' भारतीय गन्ने की खेती के परिवेश को देखते हुए हमने अपनी गन्ने की प्रजाति जेनेटिकली मोडिफाइड किया है, लेकिन इस फिल्ड ट्रायल हम नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि भारत सरकार के बायोटेक्नोलाजी डिपार्टमेंट ने हमे मंजरूी नहीं मिली है।

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भारत में साल 2003 में बीटी काटन की व्यवसायिक खेती को मंजूरी मिली मिली थी उसके बाद जीएम सरसों की खेती को लेकर सालों से बवाल मचा हुआ। देश में जीएम फसलों की खेती के लिए भारत सरकार के वन एंव पर्यावरण मंत्रालय के अंतगर्त आने वाली जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल कमेटी (जीईएसी) से मंजूरी लेना पड़ता है।

भारतीय गन्ना अनुसंधान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. राजेश कुमार ने बताया '' इंडोनेशिया के बाद ब्राजील ने इस साल जीएम गन्ने की खेती को अपनी मंजूरी दी है। माना जा रहा है कि जीएम गन्ने की प्रजातियों में कम पानी लगता है और बीमारियां भी कम होती है लेकिन भारत में इसका परीक्षण होना अभी बाकी है। जीएम गन्ने की सफलता और असफलता को लेकर अभी अंतिम निष्कर्ष नहीं आया है। ''

भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान की एक रिपोर्ट के मुताबिक गन्ने की एक टन फसल को तैयार करने में 250 टन पानी लगता है। 12 से लेकर 18 महीनों में तैयार होने वाली गन्ने की फसल में 180 से लेकर 120 सेंटीमीटर पानी की जरुरत पड़ती है। जो देश में सालभर होने वाली औसत बारिश 120 सेंटीमीटर से काफी अधिक है। ऐसे में पिछले कुछ सालों देश के अलग-अलग जगहों पर हो रही कम बारिश से गन्ने की फसल पर असर पड़ और गन्ने की बुवाई का क्षेत्रफल घट रहा है।

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देश के 18 राज्यों में गन्ने की खेती प्रमुख रूप से होती थी लेकिन गन्ने की खेती पिछले तीन साल साल से लगातार कम हो रही है। वर्ष 2014 में देश में गन्ने का कुल रकबा 5321 हजार हेक्टेयर था, जो साल 2015 में घटकर 5307 हजार हेक्टेयर हो रह गया था वहीं साल 2016 में 5284 हजार हेक्टेयर रह गया था। गन्ने की खेती का क्षेत्रफल घटने से भारतीय चीनी मिलों के सामने कच्चे माल यानि गन्ने की कमी का खतरा मंडरा रहा है। ऐेसे में गन्ने की उपज को बढ़ाने को लेकर जीएम गन्ने को विकल्प के रूप में देखा जा रहा है।

इंडोनेशिया में सूखा रोधी जीएम गन्ने की खेती की तकनीक को जानने के लिए भारतीय कृषि वैज्ञानिकों और चीनी मिलों के विशेषज्ञों को एक दल इंडोनेशिया गया था। इस दल में पुणे स्थित वसंतदादा सुगर इंस्टीट्यूट जिसे डेक्कन सुगर इंस्टीट्यूट के नाम भी जाना जाता है के वैज्ञानिक भी थे। इस बारे में जानकारी देते हुए यहां के महानिदेशक डॉ. शिवाजीराव देशमुख ने बताया '' हमारी टीम के तीन सदस्यों ने जब इंडोनेशिया जाकर वहां की जीएम गन्ने की खेती को देखा तो उन्होंने बताया कि जीएम गन्ने की फसल नॉन जीएम की तुलना में अधिक हरीभरी थी, जबकि उस क्षेत्र में न तो बारिश हुई थी और न ही चार महीने से उसकी सिंचाई की गई थी।''

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जीएम फसलों का लेकर जहां देश में अधिक पैदावार और बीमारी और सूखारोधी होने के कारण इसकी खेती को मंजूरी देने की मांग राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अकादमी के अध्यक्ष और जानेमाने कृषि वैज्ञानिक डॉ. पंजाब सिंह के नेतृत्व में अभियान चल रहा है वहीं जीएम फसलों के विरोध में भी देश के जानेमाने कृषि वैज्ञानिक, किसान संगठन और समाजसेवी हैं।

मजदूर किसान शक्ति संगठन के निखिल डे बताया '' देश में जीएम फसलों को अपनाना मतलब प्रकृति को बदलना है। यह देश की खेती-किसानी को बर्बाद कर देगा। जीएम फसलों से खेत की उर्वरा शक्ति भी बर्बाद हो जाएगी।'' उन्होंने बताया कि जीएम फसलों को लेकर जो दावा किया जाता है कि इनमें बीमारियों नहीं लगेंगी लेकिन बीटी काटन का अनुभव बताता है कि जीएम में तरह-तरह की बीमारियां लगती हैं और उनको दूर करने के लिए अधिक कीटनाशकों का इस्तेमाल करना पड़ता है।

गन्ना।

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भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी मंत्रालय के अंतगर्त आने वाले राष्ट्रीय कृषि-खाद्ध जैव प्रौद्योगिकी संस्थान, मोहाली पंजाब के वैज्ञानिक डा. सिद्धार्थ तिवारी ने बताया कि जिस तरह देश-दुनिया की आबादी बढ़ रही है वैसे में इनकी जरूरतों को पूरा करने की लिए फसल का ज्यादा उत्पादन जरूरी होगा ताकि लोगों का पेट भरा जा सके।

फसलें जो हो भी रही हैं उनमें पोषक तत्वों का अभाव है लिहाजा ऐसे में जरूरी हो गया है कि हम जेनेटिक मोडीफाइड क्रॉप्स को अपनाएं जिससे न केवल उत्पादन बढ़ेगा बल्कि मनचाही वैरायटी और ब्रीड भी तैयार की जा सकेगी। उन्होंने बताया कि दुनिया भर के 28 देश जीएम फसलों पर प्रयोग कर रहे हैं। जीएम को लेकर जो भ्रांतियां है उसे दूर करने की जरूतर है।

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