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बिहार के मखाना को जीआई टैग तो मिला, लेकिन कीमतों में अचानक आई गिरावट से किसानों की बढ़ी मुश्किलें

तीन महीने पहले अगस्त 2022 में बिहार के मिथिलांचल क्षेत्र के मखानों को प्रतिष्ठित भौगोलिक संकेत (जीआई) टैग मिला था। लेकिन किसानों के लिए फिलहाल तो यह कोई खुशी की कोई बात नहीं रही। मखाना का बाजार गिर गया है और किसानों का हाल बेहाल है।
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सुपौल, बिहार। दुनियाभर में सुपर स्नैक यानी मखाने का लगभग 90 फीसदी हिस्सा भारतीय राज्य बिहार में पैदा होता है। तीन महीने पहले अगस्त 2022 में बिहार के मिथिलांचल क्षेत्र के फॉक्स नट्स ने प्रतिष्ठित भौगोलिक संकेत (GI) टैग भी अर्जित किया था।

मिथिलांचल के अलावा राज्य में सीमांचल और कोसी क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर मखाने की खेती की जाती है। फॉक्स नट्स दरअसल वाटर लिली की एक प्रजाति के खाने योग्य बीज होते हैं। लाखों किसान अपने जीवन यापन के लिए जल निकायों के बड़े इलाकों में इसकी खेती करते हैं।

हालांकि जीआई टैग के बाद अपनी उपज की बढ़ती मांग की संभावनाओं के चलते किसानों के बीच उत्सव जैसा माहौल होना चाहिए था, क्योंकि इससे उनके आय के अवसर बढ़ने की पूरी उम्मीद थी। लेकिन वास्तविकता इससे काफी दूर है।

मखाना किसानों की शिकायत है कि उन्हें फसल पर अपने निवेश पर रिटर्न भी नहीं मिल पा रहा है और बाजार में मखानों की कीमत गिर गई है।

रंजीत लगभग 10-12 साल से मखाना की खेती में लगे हुए हैं। वो बटाईदार किसान के रूप में अभी 20 बीघा से ज्यादा जमीन पर मखाना की खेती करते हैं। फोटो: राहुल कुमार 

रंजीत लगभग 10-12 साल से मखाना की खेती में लगे हुए हैं। वो बटाईदार किसान के रूप में अभी 20 बीघा से ज्यादा जमीन पर मखाना की खेती करते हैं। फोटो: राहुल कुमार 

सुपौल जिले के बीना पंचायत के एक मखाना किसान रंजीत ने गाँव कनेक्शन को बताया, “मखाना जो कभी 500 रुपये से 600 रुपये प्रति किलो के बीच बिकता था, अब 400 रुपये किलो से नीचे बिक रहा है।” 38 साल के किसान ने कहा कि वह 20 बीघे से ज्यादा जमीन को पट्टे पर लेकर लगभग 12 सालों से मखाने की खेती कर रहे हैं।

उन्होंने कहा, “इस बार हमने चार बीघे जमीन से मखाने की कटाई भी नहीं की है। एक बीघा जमीन से हमें करीब पांच क्विंटल मखाना मिलता है, जिसकी कीमत पांच हजार रुपए प्रति क्विंटल से ज्यादा नहीं है। यह पहले की तुलना में आधी है।”

देवशंकर खान भी निराश हैं। सहरसा जिले के बनगांव गाँव का यह किसान तीन बीघे में फैले एक तालाब में मखाने की खेती करता है। उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया, “मैं 2019 से मखाने की खेती कर रहा हूं और इससे लगभग एक लाख कमा लेता था। लेकिन इस बार कीमत कम हो गई है। मुझे नहीं लगता कि मैं इस साल 40,000 रुपये का भी लाभ कमा पाऊंगा। “

मखाने की खेती में बढ़ोतरी, कीमतों में गिरावट

मखाना एक ऊंची कीमत पर बिकने वाली फसल है, जिसकी व्यावसायिक रूप से सिर्फ बिहार और पूर्वी भारत के कुछ हिस्सों में खेती की जाती है। इसके अलावा, इसे मध्य प्रदेश, राजस्थान, जम्मू और कश्मीर, त्रिपुरा और मणिपुर में प्राकृतिक फसल के रूप में उगाया जाता है।

एग्रीकल्चरल एंड प्रोसेस्ड फूड प्रोडक्ट्स एक्सपोर्ट डेवलपमेंट अथॉरिटी (APEDA) के अनुसार, भारत में कुल 15,000 हेक्टेयर में मखाना की खेती के किए जाने का अनुमान है। यहां 120,000 मीट्रिक टन (mt) मखाना बीज पैदा होता है, जो प्रसंस्करण के बाद 40,000 मीट्रिक टन मखाना पॉप का उत्पादन करता है। किसानों के स्तर पर उत्पादन का अनुमानित मूल्य 250 करोड़ रुपये है और यह व्यापारी के स्तर पर 550 करोड़ रुपये का राजस्व उत्पन्न करता है।

सुपौल जिला के करिहो पंचायत में मखाना की खेती।

सुपौल जिला के करिहो पंचायत में मखाना की खेती।

किसानों का दावा है कि मखाना की खेती लोकप्रिय हो रही है। सुपौल जिले के बीना पंचायत के रंजीत ने कहा, “अभी दो साल पहले हमारी पंचायत में सिर्फ 60 बीघा जमीन पर खेती होती थी। अब यह बढ़कर 500 बीघा हो गई है।”

उन्होंने बताया, “गाँव के निचले इलाकों में जहां कभी गेहूं और धान की खेती की जाती थी, अब वहां सिर्फ मखाना की खेती की जा रही है। जाहिर है, जब उत्पादन बढ़ जाएगा तो कीमतें गिरेंगी ही, भले ही उनकी मांग बढ़ गई हो। “

बीना में करिहो पंचायत के गुलशन महतो ने गाँव कनेक्शन को बताया, “गाँव में खेती लायक जमीन का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा पानी में डूबा हुआ है। यही कारण है कि हम में से ज्यादातर ने मखाना और जूट की खेती करने का फैसला किया है।” 38 साल के महतो के मुताबिक, जहां किसानों को जूट के लिए अच्छा पैसा मिला है, वहीं मखाने पर वह मुश्किल से अपनी लागत ही निकल पाए हैं।

बिहार का मखाना मैन कहे जाने वाले मिथिला नेचुरल्स के मनीष आनंद ने भी माना कि मखाने की कीमतों में गिरावट आई है।

उन्होंने कहा कि पिछले साल उनकी खाद्य प्रसंस्करण कंपनी, जो मखाने के सबसे बड़े खरीदारों और विक्रेताओं में से एक है, ने लगभग 18,000 रुपये प्रति क्विंटल पर कच्चा मखाना खरीदा था। लेकिन इस साल कीमत 9,000 रुपये प्रति क्विंटल से ज्यादा नहीं है। आदर्श रूप से कच्चे मखाने की कीमत 10,000 रुपये से 12,000 रुपये प्रति क्विंटल से कम नहीं होनी चाहिए। उन्हें उम्मीद है कि एक या दो साल में चीजें ठीक हो जाएंगी।

मिथिला नेचुरल्स बिहार में पहला स्टार्ट-अप है जिसे केंद्रीय कृषि मंत्रालय द्वारा अनुदान के लिए चुना गया था। इसे बिहार सरकार के उद्योग विभाग और बागवानी विभाग की ओर से भी अनुदान के लिए चुना गया है।

ट्रेडर्स लॉबी को दोषी ठहराया जाए?

आनंद ने कहा, “बहुत से लोग मखाने के धंधे में आ गए हैं। दो साल पहले मखाने को लेकर इतना बिजनेस नहीं था।”

कुछ विशेषज्ञ कीमतों में गिरावट के लिए ट्रेडर्स लॉबी को जिम्मेदार ठहराते हैं। आईसीएआर आरसीईआर रिसर्च सेंटर फॉर मखाना, दरभंगा के प्रमुख वैज्ञानिक इंदु शेखर सिंह ने कहा कि मखाना की कीमतों में गिरावट मखाना-ट्रेडिंग लॉबी के कारण हो सकती है।

वैज्ञानिक ने गाँव कनेक्शन को बताया, “व्यापारियों ने इस बार मखाना नहीं खरीदा है और यह कीमतों में गिरावट का एक कारण हो सकता है।”

सिंह के अनुसार, महामारी के बाद कई स्टार्टअप आए जिन्होंने मखाने का इस्तेमाल किया और इससे कुछ व्यापारियों को नुकसान हुआ। वैज्ञानिक ने कहा, “लेकिन, अगर उत्पादन में वृद्धि हुई है, तो मखाने की मांग भी हुई है। इसलिए इसी पैदावार में वृद्धि वास्तव में कीमतों में गिरावट का कारण नहीं होनी चाहिए।”

मधुबनी रेडियो के संस्थापक और पत्रकारिता पढाने वाले राज झा भी इस बात से सहमत हैं कि कीमतों में गिरावट की वजह ट्रेडर्स हैं।

उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया, “इसका एक कारण और है। सहरसा और सुपौल में, जहाँ मखाने की खेती की जाती है, आस-पास कोई प्रोसेसिंग यूनिट नहीं हैं। सबसे पास की यूनिट दरभंगा और मधुबनी में लगभग 100 किलोमीटर दूर हैं।” झा ने कहा कि तब कीमतें अधिक थीं क्योंकि ट्रांसपोर्ट में निजी वाहनों का इस्तेमाल किया जाता था। “अब एक ट्रेन कनेक्शन है, इसलिए उपज को लाने ले जाने में इतना पैसा नहीं लगता है।”

मखाना के किसानों ने की एमएसपी की मांग

मखाना की खेती से जुड़े सुपौल के उदय मुखिया मल्लाह ने गाँव कनेक्शन को बताया, “मखाने की गिरती कीमतों का कई परिवारों पर प्रतिकूल असर पड़ने वाला है। हम जैसे साधारण लोग व्यापारी-संघर्ष में खुद को फंसा हुआ पा रहे हैं। हमें किसी को दोष नहीं देना है। अगर उत्पादन अधिक है तो सरकार को इसके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करके हमारा समर्थन करना चाहिए।

सुपौल के कृषि विभाग के एक अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर गाँव कनेक्शन को बताया, “कृषि विभाग की ओर से गेहूं और धान के अलावा अन्य फसलें उगाने वाले किसानों को (30,000 रुपये प्रति किसान) अनुदान दिया जाता है। मखाना और जूट आदि के लिए भी कई अनुदान उपलब्ध हैं, लेकिन यह सिर्फ कागजों पर है। हर किसी को नहीं मिलते हैं। किन जिलों में कितने किसानों को अनुदान मिलेगा, यह पहले से तय होता है।”

न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) के दायरे में शामिल खाद्य फसलों की सूची में मखाना के नहीं आने के कारणों के बारे में पूछे जाने पर, सहरसा में राज्य के कृषि विभाग के कृषि समन्वयक संजीव कुमार झा ने इसके पीछे कई कारणों का हवाला दिया।

“पहले, कोसी नदी के किनारे के जिलों में इतने बड़े पैमाने पर मखाने की खेती की जाती थी, जैसा कि मधुबनी और दरभंगा जिलों में किया जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह एक महंगी फसल है और इसके लिए गहन श्रम की आवश्यकता होती है। अब तक, किसानों ने खुद कभी भी एमएसपी सूची में शामिल होने की मांग नहीं उठाई, “झा ने गाँव कनेक्शन को बताया।

“इसके अलावा, मखाना की फसल व्यापारियों को उच्च कीमतों पर बेची जाती है, यही वजह है कि किसानों ने इसके लिए एमएसपी की मांग करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है, यही वजह है कि सरकार ने भी इस मुद्दे पर कभी ध्यान नहीं दिया है। यह पहली बार है जब किसान संगठन यह मांग उठा रहे हैं लेकिन एक या दो साल में स्थिति निश्चित रूप से बदल जाएगी।

सेहत के लिए फायदेमंद

मखाने पोषक तत्वों से भरपूर होता है। इसमें जहां फाइबर की मात्रा काफी ज्यादा होती है वहीं ये अपने कम ग्लाइसेमिक इंडेक्स और फाइटोकेमिकल घटकों के लिए जाना जाता है। इसमें कैलोरी कम होती है। अपने इन्हीं गुणों के चलते इसे आमतौर पर दस्त के इलाज भी इस्तेमाल किया जाता है।

100 ग्राम मखाने में 350 कैलोरी होती है, जिसमें से 308 कैलोरी कार्बोहाइड्रेट से और 39 कैलोरी प्रोटीन से आती है। इसमें न तो फैट होता है और न ही कोई ट्रांस-फैट। इसके अलावा मखाने में पोटेशियम की मात्रा ज्यादा होती है तो कैल्शियम थोड़ा कम।

बिना स्वाद वाले मखाने में कोलेस्ट्रॉल, फैट और सोडियम लगभग न के बराबर होता है। बार-बार भूख लगने वाले लोगों के लिए यह एक सुपर स्नैक है।

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