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हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों में होगी औषधीय और सुगंधित पौधों की प्राकृतिक खेती

हिमाचल प्रदेश के कई जिलों में किसान औषधीय और सुगंधित पौधों की खेती करते हैं, अब जल्द ही यहां पर प्राकृतिक विधि से इन फसलों की खेती की जाएगी।
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पिछले कुछ वर्षों में पहाड़ी क्षेत्रों के किसानों का रुझान सुगंधित और औषधीय फसलों की खेती की तरफ बढ़ा है। क्योंकि दूसरी फसलों की तुलना इन्हें आवारा पशु या बंदर नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। अब किसान इन फसलों की प्राकृतिक खेती करेगा।

कृषि विभाग हिमाचल प्रदेश व सीएसआईआर-हिमालय जैव संसाधन प्रौद्योगिकी संस्थान (आईएचबीटी), पालमपुर किसानों को प्राकृतिक खेती का प्रशिक्षण दे रहे हैं। गुरुवार, 24 फरवरी को हिमाचल प्रदेश के चंबा जिले के भट्टियात ब्लॉक में प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन किया गया, जिसमें 60 किसानों ने प्राकृतिक खेती के गुर सीखे।

प्रशिक्षण कार्यक्रम में महिलाओं और युवाओं ने खेती की जानकारी हासिल की।

इस दौरान भट्टियात के एसडीएम बच्चन सिंह ने कहा कि भट्टियात ब्लॉक के किसान सुगंधित फसलों की खेती को अपना सकते हैं जिनकी अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारी मांग है। इन फसलों का उपयोग इत्र, सुगंध, खाद्य उद्योगों में किया जाता है। इन फसलों पर बंदरों और जंगली जानवरों का असर नहीं हो रहा है। उन्होंने सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने पर भी जोर दिया क्योंकि इससे इनपुट लागत कम होगी और रासायनिक मुक्त खेती के माध्यम से उपज की गुणवत्ता में सुधार होगा।

सीएसआईआर-आईएचबीटी ने मार्च 2023 तक 3000 हेक्टेयर क्षेत्र को सुगंधित फसलों के तहत लाने का लक्ष्य रखा है। चंबा जिले की जलवायु उच्च मूल्य वाली सुगंधित फसलों के उत्पादन के लिए काफी उपयुक्त है। आवश्यक तेलों की गुणवत्ता और मात्रा के आधार पर, पहाड़ी किसान सालाना 0.8 से 1.5 लाख प्रति हेक्टेयर का शुद्ध लाभ कमा सकते हैं।

सीएसआईआर-आईएचबीटी, पालमपुर के वरिष्ठ प्रधान वैज्ञानिक व अरोमा मिशन सह नोडल डॉ राकेश कुमार ने बताया, “दुनिया भर में सुगंधित फसलों की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है, क्योंकि इसका उपयोग फूड, फ्लेवरिंग, इत्र और दवा उद्योग में किया जाता है।”

उन्होंने आगे कहा, “सुगंधित तेलों की भारत ही नहीं विदेशों के भी इत्र, स्वाद और सुगंध उद्योग में मांग है। इनमें कई तरह के औषधीय गुण पाए जाते हैं।”

प्रशिक्षण कार्यक्रम में महिलाओं और युवाओं ने खेती की जानकारी हासिल की। साथ ही उन्हें जंगली गेंदे के बीज भी दिए गए। चंबा जिले के तल्ला गाँव के पवन कुमार (48 वर्ष) भी प्रशिक्षण कार्यक्रम में शामिल हुए, जंगली पशुओं की वजह से उन्हें मक्के की फसल को काफी नुकसान हो रहा था, जिसके बाद से उन्होंने जंगली गेंदा की खेती शुरू की है। पवन कुमार बताते हैं, “मक्का की खेती में काफी नुकसान उठाना पड़ रहा था, इसलिए जब जंगली गेंदे के बारे में पता चला तो इसकी खेती शुरू की। जब पहले साल अच्छा मुनाफा हुआ तो अब दूसरे किसान भी गेंदा की खेती करने लगे हैं।”

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