रीवा रतनपुर, बाराबंकी (उत्तर प्रदेश)। जनार्दन वर्मा दशकों से मेंथा की खेती करते हैं, लेकिन फसल की रक्षा करने की चुनौती कभी भी इतनी नहीं रही जितनी मौजूदा सीजन में है।
बाराबंकी के लालापुर गाँव में लगभग दो हेक्टेयर जमीन के मालिक अधेड़ उम्र किसान ने गाँव कनेक्शन को बताया, “ऐसा लगता है कि प्राकृतिक ताकतें मेरे मेंथा को बर्बाद करने के लिए इकट्ठा हो गई हैं। गर्मी का तापमान इतना अधिक कभी नहीं रहा, गर्म हवाएं पृथ्वी को झुलसा रही हैं, ये गर्म हवाएं मई-जून में आती थीं लेकिन इस बार अप्रैल के शुरुआती सप्ताह से ही आना शुरू हो गई हैं।
42 वर्षीय किसान ने कहा, “इसके अलावा, मेरी फसल में कीट लग गए हैं। डर है कि इस साल मुझे नुकसान उठाना पड़ सकता है।”
किसान ने गाँव कनेक्शन को बताया कि मेंथा की फसल की ताजगी और गंध बरकरार रखने लिए नमी बनाए रखना जरूरी होता है लेकिन बढ़ते तापमान और हीटवेव ने सिंचाई की मांग को बढ़ा दिया है।
वर्मा ने बताया, “मेंथा की खेती में प्रति एकड़ 20 हजार रुपये लागत आती है। लेकिन अब तक 35 हजार रुपये प्रति एकड़ खर्च हो चुके हैं। कुल 1 लाख 60 हजार रुपये खेती पर खर्च हो चुके हैं लेकिन फसल तैयार होने में अभी 2 महीने बाकी है। इस बार किसान हकीकत में डरे हुए हैं।”
राज्य के हॉर्टिकल्चर एंड फूड प्रोसेसिंग डिपार्टमेंट के अनुसार मेंथा की खेती 88 हजार हेक्टेयर में फैली हुई है। अकेले बाराबंकी जिले का मेंथा तेल के उत्पादन में 25 से 30 प्रतिशत का योगदान है।
पूर्वी हवाओं की वजह से बढ़ा है कीटों का प्रकोप
बाराबंकी का रत्न पुरवा गाँव जो वर्मा के गाँव से 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, दूसरे किसानों ने गाँव कनेक्शन को जो बताया उससे वह सहमत नजर आए। प्रदीप कुमार गौतम ने उत्तेजित स्वर में कहा, “इस बार चीजें असाधारण हैं। इससे पहले कभी भी खेतों में कीड़ों के ऐसे झुंड नहीं देखे हैं। इस बार ये पुर्वा हवा चलने के कारण है। अगर मैं अपने खेतों को 3 से 4 दिन के लिए छोड़ दूं तो हो सकता है कि मेरी फसल न बचे।”
उन्होंने कहा, “कीटनाशक दवाओं पर खर्च पहले से बढ़ गया है। पौधे मुश्किल से एक महीने पुराना है। अगर मैं इसकी हिफाजत नहीं करूं तो मुमकिन है कि मैं जून-जुलाई में नुकसान उठाऊं।”
बाराबंकी के एक दूसरे किसान रमेश चंद्र वर्मा ने बताया, कीटनाशक दवाओं के एक बार छिड़काव से कीड़े सिर्फ एक हफ्ते के लिए दूर हो जाते हैं। लेकिन इस बार एक हफ्ते से पहले कीड़ों का प्रकोप देखा जा रहा है।
इस वक्त कीटों की संख्या काफी ज्यादा है। ऐसा लगता है कि कीटनाशकों का उन पर को असर ही नहीं पड़ रहा है। कीड़ों ने किसानों की लागत बढ़ा दी है। जिन्हें मेंथा फसल की रक्षा करने के लिए अधिक कीटनाशक खरीदना पड़ रहा है।
रासायनिक कीटनाशक दवाओं के इस्तेमाल से बचें
इस बीच, लखनऊ के केंद्रीय औषध एवं सगंध संस्थान (सीआईएमएपी) के मुख्य वैज्ञानिक ने बताया कि कीटनाशक दवाओं को बढ़ाने से पौधों की प्रतिरक्षा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की संभावना है जो भविष्य में एक बड़ी समस्या बन सकती है।
संजय कुमार ने गाँव कनेक्शन को बताया, “कीटों को रोकने के लिए आवश्यक खुराक लगभग दोगुनी हो गई है। ऐसी हालत में, इन रासायनिक कीटनाशक दवाओं का छिड़काव किसानों के लिए हानिकारक हो सकता है क्योंकि उनकी फसल प्रतिरक्षात्मक रूप से कमजोर हो जाएगी और इससे अधिक नुकसान होगा। किसानों को सलाह दी जाती है कि अपनी मेंथा की फसल की हिफाजत के लिए जैविक कीटनाशकों को प्राथमिकता दें।”
मेंथा की फसल पर कीटों के हमले के बारे में अधिक जानकारी देते हुए, बाराबंकी के जिला फसल सुरक्षा अधिकारी ने गाँव कनेक्शन को बताया कि जो कीट फसलों को नुकसान पहुंचा रहे हैं, वह कैस्टर सेमी-लूपर है जिसे स्थानीय भाषा में गडेहला के नाम से जाना जाता है।
प्रीति किरण बाजपेयी ने गाँव कनेक्शन को बताया, “यह कीड़े भूरे, हरे या काले रंग के होते हैं जो मेंथा के पत्तों को खाते हैं। यह कीट दिन में छिपा रहता है और रात में पौधों की पत्तियों को खाता है।”
उन्होंने किसानों को सलाह दी कि वे निम्नलिखित के मिश्रण का उपयोग करें: क्विनालफॉस (25 प्रतिशत), इमिडाक्लोप्रिड (17.8 प्रतिशत), क्लोरपाइरीफोस (20 प्रतिशत), एमामेक्टिन बेंजोएट (पांच प्रतिशत) 600 से 800 लीटर पानी में मिला कर पत्तों पर छिड़काव करें। ये एक हेक्टेयर खेती का फार्मूला है।
उन्होंने कहा, “यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इन रसायनों का छिड़काव करने से पहले खेतों में नमी हो और इसे सुबह सूर्योदय से पहले या शाम को सूर्यास्त के बाद किया जाना चाहिए।”
इस बीच, सीमैप के वरिष्ठ वैज्ञानिक संजय कुमार ने गाँव कनेक्शन को बताया कि मेंथा की फसल का कुल रकबा लगभग 325,000 हेक्टेयर है, जबकि अकेले उत्तर प्रदेश में इसका 2,75,000 हेक्टेयर रकबा है। उत्तर प्रदेश में, अकेले बाराबंकी में कुल उत्पादन का लगभग एक-तिहाई हिस्सा होता है, जबकि अन्य जिले जो पेपरमिंट की फसल का उत्पादन करते हैं, वे सीतापुर, गोंडा, सुल्तानपुर, बदायूं, बरेली, रायबरेली, संभल, उरई, शाहजहांपुर और लखीमपुर हैं।
उन्होंने यह भी बताया कि धीरे-धीरे पंजाब, बिहार और हरियाणा भी मेंथा की खेती में बढ़ोतरी कर रहे हैं।
अनुवाद: मोहम्मद अब्दुल्ला सिद्दीकी