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कीटनाशकों पर पाबंदी लगाने में क्यों पिछड़ रही है सरकार ?

कीटनाशकों पर प्रतिबंध को लेकर सरकारों का रवैया न सिर्फ सवालों के घेरे में है, बल्कि सरकार किसानों को जहरीले कीटनाशकों का विकल्प देने में भी नाकाम है…
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कीटनाशकों को आम बोलचाल की भाषा में कीट-पतंगों और खपतवार की दवा कहा जाता है, लेकिन असल में ये ज़हर है। ये बात, कीटनाशक बनाने वाली कंपनियां, लाइसेंस देने वाली सरकार, प्रचार-प्रसार करने वाले कर्मचारी और फसलों में छिड़काव करने वाला किसान सब जानते हैं, लेकिन खेतों में धड़ल्ले से उपयोग जारी है। अगर ऐसा है तो फिर इन पर पाबंदी क्यों नहीं लगती? क्या कीटनाशकों का कोई विकल्प नहीं? या जो हैं उन्हें आगे नहीं बढ़ाया गया?


लखनऊ। वर्ष 2018 के बाद यूरोपीय संघ के 28 देशों में तितलियों और मधुमक्खियों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटनाशकों पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया जाएगा। यूरोपीय देश इससे पहले भी कई कीटनाशकों का इस्तेमाल रुकवा चुके हैं, जो भारत में धड़ल्ले से इस्तेमाल किए जाते हैं। हमारे देश में 100 से ज्यादा ऐसे कीटनाशक बिक रहे हैं, जो दूसरे एक या एक से ज्यादा देशों में प्रतिबंधित हैं।
कीटनाशकों को आम बोलचाल की भाषा में कीट-पतंगों और खपतवार की दवा कहा जाता है, लेकिन असल में ये ज़हर है। ये बात, कीटनाशक बनाने वाली कंपनियां, लाइसेंस देने वाली सरकार, प्रचार-प्रसार करने वाले कर्मचारी और फसलों में छिड़काव करने वाला किसान सब जानते हैं, लेकिन खेतों में धड़ल्ले से उपयोग जारी है। अगर ऐसा है तो फिर इन पर पाबंदी क्यों नहीं लगती? क्या कीटनाशकों का कोई विकल्प नहीं? या जो हैं उन्हें आगे नहीं बढ़ाया गया?

‘गाँव कनेक्शन’ने ‘किसान प्रोजेक्ट’ की श्रृंखला में इस बार किसान के खेत से लेकर सरकार की फाइलों तक में इसका जवाब तलाशने की कोशिश की। हरित क्रांति के साथ तोहफे में आए कीटनाशकों से प्रति हेक्टेयर उत्पादन तो दोगुना हो गया, लेकिन 1965-70 के आसपास तक जिन खेतों में कीट-पतंगे और रोगों पर खर्च लगभग शून्य था, वो अब किसानों के मुताबिक 5000 रुपए प्रति हेक्टेयर तक पहुंच गया है, क्योंकि भारत की खेती अनिश्चित मौसम, पानी और जलवायु पर निर्भर है। जहां मौसम बदलने पर कीट पतंगों का हमला बढ़ जाता है।


कीटनाशक कंपनियों के लिए मुनाफे की फसल काटने जैसा
धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तसीगढ़ के रायगढ़ और उससे लगे उड़ीसा में खरीफ यानी धान का सीजन शुरू हो चुका है। ये सीजन यहां कीटनाशक कंपनियों के लिए मुनाफे की फसल काटने जैसा होता है। रायगढ़ में विज्ञान से स्नातक अनंत अग्रवाल की कीटनाशक और उर्वरक की तीन दुकानें हैं, ये उनका पारिवारिक काम है। अनंत को इससे मुनाफा भी खूब है, लेकिन वो अब ये काम नहीं करना चाहते।
मैं नहीं जानता कि विज्ञान क्या कहता है…
अनंत फोन पर बताते हैं, “हम जिस इलाके में रहते हैं यहां धान खूब होता है, तो कीटनाशक भी खूब इस्तेमाल होते हैं। औसतन एक किसान एक एकड़ में 5000 रुपए की दवा डालते हैं। लेकिन हम जो बेच रहे हैं, किसान जो खेत में डाल रहे हैं, वो ज़हर है। मैं नहीं जानता कि विज्ञान क्या कहता है, लेकिन पिछले 10-12 साल में मैं देख रहा हूं, यहां कैंसर के रोगी तेजी से बढ़े हैं। ये बीमारियों की जड़ है, लेकिन किसानों के पास दूसरा कोई विकल्प नहीं है।”
किसान कीटनाशक नहीं डालेगा तो…

हुकुम देव नारायण सिंह, भाजपा सांसद 

“कीटनाशक, खरपतवारनाशी पर तुरंत प्रतिबंध तो लगा दिया जाए, लेकिन उसका विकल्प कहां है? असली समस्या कीटनाशक नहीं, उनका अंधाधुंध प्रयोग है। किसान कीटनाशक नहीं डालेगा तो फसल नहीं होगी, किसान इतना नुकसान कैसे सह पाएगा?,” मधुबनी से भाजपा सांसद और कृषि पर संसद की स्टैंडिंग कमेटी के सदस्य हुकुम देव नारायण सिंह कहते हैं।
यही हाल खेतों का भी है
अपने बयानों को लेकर चर्चा में रहने वाले हुकुम देव नारायण कहते हैं, “देखिए आयुर्वेदिक दवाएं सदियों से हमारे यहां हैं, लेकिन लोग ज्यादा एलोपैथ (अंग्रेजी दवाएं) इस्तेमाल कर रहे हैं, ये जानते हुए भी कि इनका रिएक्शन होगा, नुकसान होगा, महंगी मिलेंगी। क्योंकि कई रोग आयुर्वेद से उस वक्त कंट्रोल नहीं होते। यही हाल खेतों का है। किसानों के पास कीटनाशकों का कोई विकल्प नहीं है।”
बिना कीटनाशक फसलें हो सकती हैं…

कविता कुरुंगति, सदस्या, किसान स्वराज (आशा)

बीस राज्यों से 400 किसान संस्थाओं के समूह किसान स्वराज की सदस्या और सुप्रीम कोर्ट में कीटनाशकों के खिलाफ याचिकाकर्ता कविता कुरुगंति बताती हैं, “बिना कीटनाशक फसलें हो सकती हैं, बड़े पैमाने पर खेती हुई है। अविभाजित आंध्र प्रदेश में नॉन पेस्टीसाइड मैंनेजमेंट के तहत 35 लाख एकड़ में खेती का होना सुबूत है। भारतीय कृषि अनुंसधान परिषद के यूपी के मोदीपुरम में स्थित संस्थान इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फार्मिंग सिस्टम की रिपोर्ट के अनुसार तो उन्होंने देश के करीब 30 केंद्रों पर 9 साल तक 28 फसलें उगाईं। तीन साल तक उत्पादन में गिरावट देखी गई, लेकिन बाद में अच्छी फसल हुई। हां, गेहूं जरूर नहीं अच्छा रहा।”
सरकार की मंशा पर सवाल उठता है
कविता आगे कहती हैं, “यहां पर सरकार की मंशा पर सवाल उठता है, कीटनाशकों पर आई रिपोर्ट को भी सरकारी संस्थाएं नकारती हैं और जैविक और प्राकृतिक तरीकों से हुए प्रयोगों को भी। सरकार विज्ञान के हिसाब से आगे नहीं बढ़ रही, यही बाधा है।”
भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा कीटनाशक उत्पादक देश
भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा कीटनाशक उत्पादक देश है। विश्व भर में प्रति वर्ष लगभग 20 लाख टन कीटनाशक का उपयोग किया जाता है। टॉक्सिक लिंक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 108 टन सब्जियों को बचाने के लिए 6000 टन कीटनाशक का प्रयोग किया जाता है। जबकि कुल कीटनाशकों में से करीब 60 फीसदी का उपयोग कपास में होता।
नया कीटनाशक प्रबंधन का नया मसौदा और भी लचर
देश में कीटनाशक का उपयोग कीटनाशक अधिनियम 1968 के मुताबिक होता है और नया कीटनाशक प्रबंधन का जो नया मसौदा तैयार किया है, जानकारों के मुताबिक वो और लचर है। भारत में आखिरी बार जिस कीटनाशक पर बैन लगा था, वो एंडोसल्फान था। केरल में कासरगोड जिले में हजारों महिलाओं के गर्भपात और 5000 बच्चों के अपंगता समेत कई बीमारियों के शिकार होने के बाद इस पर 2013 में कई वर्षों की लंबी लड़ाई के बाद प्रतिबंध लगा था। जबकि फॉस्फैमिडोन, मिथोमाइलस, फोरेट, ट्राईजोफोस, मोनोक्रोटोफोस जैसे क्लास वन कीटनाशक भी इंडोसल्फान की कैटेगरी (लाल निशान वाले) में आते हैं, लेकिन इनका इस्तेमाल जारी है।
न तो प्रतिबंध लगा पाई, न विकल्प दे पाई
इंडोसल्फान समेत कीटनाशकों दूसरे कीटनाशकों के खिलाफ आवाज़ उठाने वाली भारतीय महिला फेडरेशन की महासचिव एनी राजा बताती हैं, “हमारे यहां कॉरपोरेट इंटरेस्ट को ज्यादा वेटेज (इंडस्ट्री के हितों को तवज्जो) है। कीटनाशक बंद हो गए तो किसानों के खेत में रोग लगेंगे, उनका नुकसान होगा, कीटनाशकों पर सब्सिडी देने वाली सरकार को चाहिए कि किसानों के नुकसान की भरपाई करे, लेकिन सरकार इसके लिए तैयार नहीं, इसीलिए न तो वो कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगा पा रही है, न विकल्प दे पाई है।”


प्रतिबंध लगाने का अधिकार केंद्र सरकार को
भारत में खेती राज्य सरकार का विषय है। केन्द्र सरकार नियम कानून बनाती है, उनके प्रचार-प्रसार और लागू करने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है, लेकिन कीटनाशकों पर नियम कानून केंद्र के लागू हैं।
उत्तर प्रदेश में कृषि रक्षा विभाग की उप निदेशक एलएस यादव कहते हैं, “कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगाने का अधिकार केंद्र सरकार को है। हम लोग लाल निशान वाले यानि क्लास वन कीटनाशकों के इस्तेमाल की सलाह नहीं देते। सरकार उन पर अनुदान भी नहीं देती, जबकि बॉयोपेस्टीसाइड पर 75 फीसदी अनुदान है। हम लोग गोष्ठियों और दूसरे माध्यम से किसानों को बॉयोपेस्टीसाइड के फायदे बता रहे हैं।”
राहत की खबर 

380 ग्राम प्रति हेक्टेयर देश में खपत पहुंची कीटनाशकों की वर्ष 2017-18 में, जो वर्ष 2016-17 में 600 ग्राम प्रति हेक्टेयर थी

75 फीसदी अनुदान सरकार किसानों को दे रही बॉयोपेस्टीसाइड को फसलों में इस्तेमाल करने पर

उत्तर प्रदेश में वर्ष 2016-17 प्रति हेक्टेयर कीटनाशक (एक्टिव) की खपत, 4.04 ग्राम प्रति हेक्टेयर थी, जबकि इसी दौरान देश की औसत खपत 600 ग्राम था। वर्ष 2017-18 में यूपी की खपत भले 4.10 ग्राम हुई, लेकिन देश के स्तर पर अच्छी ख़बर है। इस दौरान प्रति हेक्टेयर कीटनाशकों का उपयोग घटकर 380 ग्राम दर्ज किया गया।
फिक्की और टाटा स्टैटजिक मैनेजमेंट की 2015 में आई रिपोर्ट के मुताबिक भारत में समस्या सिर्फ कीटनाशकों के अंधाधुंध उपयोग की ही नहीं, नकली कीटनाशक भी हैं। भारत में कीटनाशकों के 260 मालीक्लूल्य (अणु) रजिस्टर्ड हैं, जबकि उत्पादनों की संख्या ढाई लाख से ज्यादा है।


किसानों के पास दूसरा विकल्प नहीं 
किसान प्रोजेक्ट की पहले भाग में यूपी के बाराबंकी जिले के जिस एक किसान जिक्र किया था, वहीं पर यूनिटाइफ फॉस्फोरस लिमिटेड समेत दुनिया की लगभग हर कीटनाशक कंपनियां अपने उत्पादन बेच रही हैं। इस कंपनी का जिले में 6 लोग हैं। दो ब्लॉक में काम करने वाले एक कंपनी के एक एजेंट ने बताया, “साल भर में अकेले मैं 50 लाख का बिजनेस कंपनी को देता हूं। हम लोग जो किसानों को फसल बचाने के तरीके बताते हैं, लेकिन किसान ओवर डोज अपनी मर्जी से देता है। लेकिन एक बात तय है कि इन हालातों में किसानों के पास दूसरा कोई विकल्प भी नहीं है।”

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