पॉली हाउस में खेती करने वाले किसानों के सामने मुश्किल आती है कि एक बार पूरा सेटअप तैयार हो गया तो कई साल तक उसे नहीं हटा सकते, लेकिन किसानों की इस समस्या का हल भी वैज्ञानिकों ने ढूंढ लिया है।
उत्तराखंड के अल्मोड़ा में स्थित विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (वीकेएमएस) के वैज्ञानिकों ने कई साल के शोध के बाद छोटे आकार और कम लागत का पोर्टेबल पॉलीहाउस विकसित किया है। इस पॉली हाउस को कभी कहीं ले जा सकते हैं और छोटे आकार के होने के कारण पहाड़ों पर खेती के लिए सबसे सही है।
नैनीताल के रामगढ़ ब्लॉक के दाड़िम गाँव के किसान बच्ची सिंह (53 वर्ष) के खेत में पोर्टेबल पॉलीहाउस लगाया गया है। बच्ची सिंह बताते हैं, “संस्थान की मदद से हमारे खेत में पॉलीहाउस लगाया है। दिसम्बर-जनवरी में मटर बोई थी, उसी पर पॉलीहाउस लगा दिया था। मटर का अच्छा उत्पादन हुआ था। अभी पॉलीहाउस में गोभी, टमाटर, बीन्स, मिर्च और बैंगन जैसी सब्जियां लगा रखीं हैं। हमारा एक नाली (200.67 स्क्वायर मीटर) का खेत है, इतने छोटे खेत में पॉलीहाउस लगाना आसान नहीं था, लेकिन लग गया है।”
बच्ची सिंह की तरह उत्तराखंड के कई किसानों के खेत में इसका ट्रायल किया और सफल भी रहा है।
वीएल पोर्टेबल पॉलीहाउस को विकसित करने वाली विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (वीपीकेएएस) की वैज्ञानिकों की टीम का नेतृत्व करने वाले प्रधान वैज्ञानिक डॉ. शेर सिंह इस पॉलीहाउस की खासियतें बताते हुए कहते हैं, “अभी जो पॉलीहाउस किसान लगाते हैं वो स्थायी पॉलीहाउस होते हैं, उससे यह होता है कि अगर एक ही जगह पर पॉलीहाउस चार-पांच साल तक लगा रहता है तो वहां की मिट्टी खराब हो जाती है। स्वायल बॉर्न डिजीज (मृदा जनित बीमारियां) लगने लगती हैं। नीमेटोड की भी समस्या हो जाती है और मिट्टी भी हार्ड हो जाती है। यह सब इसलिए होता है अगर जब तक मिट्टी में नेचुरल लाइट नहीं लगेगी तो मिट्टी खराब हो जाती है।
वो आगे कहते हैं, “इस पॉलीहाउस की खास बात यह है कि आप किसी खेत में कोई फसल लगा दो और दूसरे खेत में दूसरी क्रॉप की तैयारी करो और जब पहली फसल तैयार हो गई, तो दूसरी जगह पर इसे शिफ्ट कर दो इससे एक बाद एक फसल ले सकते हैं। और सबसे जरूरी बात इसके साइज को लेकर है, इसका साइज लगभग 62.4 वर्ग मीटर है, जबकि अभी तक जो पॉलीहाउस आते हैं वो साइज में बहुत बड़े होते हैं और पहाड़ों पर छोटे-छोटे खेत होते हैं।”
इसमें बगल में वॉटर हार्वेस्टिंग की भी सुविधा दी है, जब सर्दियों में पानी की कमी हो जाती है और ओस गिरती रहती है, इसमें साइड में ऐसी व्यवस्था की है, जिसमें सारा पानी इकट्ठा हो जाता है और उसे ड्रिप के जरिए सिंचाई के काम ला सकते हैं।
डॉ. ए. पटनायक के नेतृत्व में डॉ. शेर सिंह, डॉ श्यामनाथ, डॉ जीतेंद्र कुमार की टीम ने इसे विकसित किया है। पोर्टेबल पॉलीहाउस का विकास अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना – प्लास्टिक अभियान्त्रिकी, कृषि संरचना और पर्यावरण प्रबंधन के तहत किया गया है।
इसे विकसित करने वाली टीम के सदस्य डॉ. जीतेंद्र कुमार कहते हैं, “इसे लाइसेंस मार्च 2021 में मिला है, जबकि इसे दो साल पहले ही हमने विकसित कर लिया था और यहां के किसानों के खेत में इसका ट्रायल भी हो चुका है। इसे ज्यादा से ज्यादा किसानों तक पहुंचा पाएं इसलिए हमने इसके लिए हमने पश्चिम बंगाल की एक कंपनी ऐरोटेक इंजीनियरिंग वर्क्स प्राइवेट लिमिटेड के साथ मिलकर काम काम कर रहे हैं। इसके अगर कहीं का भी किसान हमसे कहता है कि उन्हें पोर्टेबल पॉलीहाउस लगाना है तो हम कंपनी के जरिए वहां पर कहीं पर पॉलीहाउस लगा सकते हैं।”
किसान ने किसी खेत में पॉलीहाउस लगाया और दो-तीन साल बाद वहां से हटा दिया, जिससे वहां की मिट्टी एक बार फिर उपजाऊ हो जाएगी। इसमें आसानी से पॉलीहाउस की जगह बदलते रहते हैं, जिससे मिट्टी की सेहत भी अच्छी बनी रहेगी और किसान अच्छा उत्पादन भी पा सकते हैं।
पॉलीहाउस में लगातार चार से पांच साल तक खेती करने के बाद मिट्टी की सेहत खराब होने से कीट-पतंगों और मृदा जनित बीमारियों में वृद्धि होती है। इससे खेती की लागत तो बढ़ जाती है, लेकिन उत्पादन घट जाता है।
ऐसी स्थितियों में या तो किसान को मिट्टी बदलनी पड़ती है या स्थायी पॉलीहाउस को नए खेत में ले जाना पड़ता है। यह बहुत महंगा होने के साथ काफी थकाऊ होता है। इसके अलावा ऊंची पहाड़ियों (समुद्र तल से 1250 मीटर से अधिक ऊंचाई) में बड़े आकार के खेत आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। यदि होते हैं तो वे चौड़ाई में पतले (दो से पांच मीटर) ही होते हैं। लंबाई में सीधे नहीं होते। दो या दो से अधिक छोटे खेतों को मिलाकर एक खेत बनाने में न केवल अत्यधिक मिट्टी कटाई का कार्य करना पड़ता है, बल्कि लागत को भी बढ़ाता है। लेकिन इस पोर्टेबल पॉलीहाउस से पहाड़ों पर भी किसान पॉलीहाउस में फसल उगाकर अच्छा उत्पादन पा सकते हैं।