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ओडिशा के आदिवासी किसानों की किस्मत बदल रही रबड़ की खेती, सालाना होती है लाखों में कमाई

साल 1995 में ओडिशा के मयूरभंज जिले में 200 एकड़ में रबर की खेती शुरू की गई थी, अब यह 4500 एकड़ तक फैल गई है। लेटेक्स और रबर उद्योग से 6 हजार से अधिक किसान जुड़े हुए हैं। रबड़ प्रोसेसिंग इकाइयां भी स्थापित की गई हैं।
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सुकाराम सिंह रोजी रोटी के लिए बकरी और मुर्गी पालन करते थे। उनकी तीन एकड़ जमीन बंजर पड़ी थी। एक दशक पहले, ओडिशा के मयूरभंज जिले के केंदुआ गाँव के 42 वर्षीय बकरी पालने वाले ने रबर की खेती में हाथ आजमाने का फैसला किया और रबर के बागान ने उनकी किस्मत बदल दी।

मुस्कुराते हुए सुकाराम ने गाँव कनेक्शन से बताया, “मुझे पता चला कि रबर प्लांटेशन लाभदायक है। मैंने इसे आजमाने का फैसला किया और 2012 में अपनी तीन एकड़ जमीन पर रबर के पेड़ लगाए। आठ साल बाद, 2020 में, मैंने रबर की खेती में सिर्फ तीस हजार रुपये के खर्च से तीन लाख रुपये कमाए।”

ऐसा ही कुछ अनुभव मयूरभंज के बड़ासाही ब्लॉक के जदुनाथपुर गाँव के रहने वाले मंगल चरण सिंह का भी रहा है। मंगल चरण ने बताया, “मैंने आईटीडीए (एकीकृत जनजातीय विकास एजेंसी) से 2013 में रबर के पौधे लेकर अपनी 2 एकड़ बंजर जमीन पर लगाए थे। मेरे लिए, यह एक नई फसल थी जिसका नतीजा मुझे मालूम नहीं था।”

35 वर्षीय किसान ने बताया, “2021 में, पौधों से निकले लेटेक्स से लगभग दो लाख रुपये तक कमाया। मुझे बाजार में उसका अच्छा रेट मिला।”

सुकाराम और मंगल चरण की तरह, मयूरभंज जिले में रबर की खेती में अच्छा रिटर्न मिलने की वजह से आदिवासियों की तादाद बढ़ रही है।

जिले के आदिवासी बहुल भारी बारिश वाले पहाड़ी इलाकों में नम जलवायु को देखते हुए यह रुझान देखने को मिल रहा है कि यह इलाका रबर की खेती के ज्यादा उपयुक्त है।

मयूरभंज में रबर की खेती

1995 में, भारतीय रबड़ बोर्ड ने पहली बार जादूनाथपुर गांव में 200 एकड़ (1 एकड़ = 0.4 हेक्टेयर) बंजर भूमि पर राज्य सरकार के सहयोग से संचालित एकीकृत जनजातीय विकास एजेंसी (आईटीडीए) की मदद से 20,000 रबर के पौधे लगाए।

मयूरभंज के रबर फार्मर्स प्रोड्यूसर कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) सुरेश कुमार नायक ने गांव कनेक्शन को बताया, “इस समय, रबर की खेती लगभग 4,500 एकड़ जमीन पर फैली हुई है और कम से कम 6,000 किसान रबर की खेती से जुड़े हुए हैं। 1500 के करीब स्थानीय लोग रबर के पेड़ों से लटेक्स निकालने और उसे इकट्ठा करने का कार्य कर रहे हैं।”

एक रबर प्लांट को तैयार होने में लगभग सात साल लगते हैं, जिसे किसान जीविकोपार्जन और मुनाफा कमाने के लिए बेच देते हैं। आईटीडीए के परियोजना प्रबंधक प्रणव दास ने बताया, “एक पेड़ से प्रतिदिन औसतन 600 मिलीलीटर रबर लेटेक्स निकलता है। एक साल में एक से लगभग 50 से 60 लीटर तक लेटेक्स निकलता है। चूंकि रबर के पेड़ों को पानी की जरूरत नहीं होती है और उर्वरक की भी आवश्यकता न्यूनतम होती है, इसलिए रबर के बागान आदिवासियों की आजीविका को बेहतर अवसर दे सकते हैं।”

एक लाख रुपये तक का सालाना लाभ

नायक ने बताया, “मयूरभंज जिले में रबर की खेती के कुल क्षेत्रफल में बढ़ोतरी हुई है क्योंकि किसानों को रबर की पैदावार से आकर्षक कीमत मिल रही है। ज्यादातर रबड़ की खेती समखुंटा, बड़ासाही, खूंटा, कप्तीपाड़ा, शरत, करंजिया, जशीपुर, बिसोई और मराडा ब्लॉक में होती है।”

सीईओ ने बताया, “किसानों को रबर की खेती से लाभ कमाने के काफी इमकान हैं। क्योंकि एक रबर किसान एक एकड़ रबर के बागान से साल में लगभग एक लाख रुपये तक का मुनाफा कमाता है।”

मयूरभंज रबर फार्मर्स प्रोड्यूसर कंपनी ने श्यामाखुंटा, बड़ासाही, खुंटा, जशीपुर, बिसोई और मराडा में रबर प्रोसेसिंग प्लांट स्थापित किए हैं। नायक ने बताया, “किसान हमसे उचित प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद पौधों से रबर लेटेक्स को संसाधित करके रबर शीट और बैंड का उत्पादन कर रहे हैं।”

शुरुआत में, कई किसान रबड़ की खेती के परिणाम के बारे में झिझक रहे थे। लेकिन अब वे इससे अच्छा मुनाफा कमाकर खुश हैं।

आईटीडीए के दास के अनुसार, किसान रबर के पेड़ों का रकबा बढ़ाने के इच्छुक हैं और ओडिशा रूरल डेवलपमेंट एंड मार्केटिंग सोसायटी (ORMAS) भी रबर की खेती और इसके विपणन को बढ़ावा देने में मदद कर रही है। उन्होंने बताया, “रबर की भारी मांग है, कई कंपनियों को इसकी तलाश है और अच्छी कीमत देने के लिए भी तैयार हैं।”

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