सरकारी एजेंडे से बाहर हैं आदिवासी किसान, चिरौंजी देकर नमक खरीदते हैं लोग

Arvind Kumar SinghArvind Kumar Singh   22 Jan 2019 7:00 AM GMT

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सरकारी एजेंडे से बाहर हैं आदिवासी किसान, चिरौंजी देकर नमक खरीदते हैं लोगअादिवासियाें की बाज़ार

हाल में आदिवासी उत्पादों के विपणन के काम में लगी संस्था भारतीय जनजातीय सहकारी विपणन विकास संघ यानि ट्राइफेड के प्रबंध निदेशक प्रवीण कृष्ण ने एक मुलाकात में हैरत भरी जानकारी दी। उन्होंने बताया कि अभी भी बस्तर इलाके में कुछ ऐसे हाट-बाजार हैं, जहां आदिवासी दो किलो नमक के बदले अपनी एक किलो चिंरौंजी दे देते हैं। आदिवासी हाटों में वस्तु विनिमय कोई हैरत की बात नहीं है लेकिन चिरौंजी के बदले नमक लेना जरूर हैरान करता है। प्रवीण कृष्ण वरिष्ठ आईएएस अधिकारी हैं और वे बस्तर में कलेक्टर भी रहे हैं। ट्राइफेट में शीर्ष पद पर होने के नाते देश भर के आदिवासी समाज से बखूबी परिचित हैं।

सही बात यह है कि आज भी आदिवासी भारी शोषण के शिकार हैं। वे दुर्गम इलाकों में रहते हैं, जहां एक बड़े हिस्से में नक्सली समस्या बनी हुई है। जो खेती किसानी करते हैं, उनका तो शोषण होता ही है, जो वनों पर आश्रित हैं, उनका भी। आदिवासी किसान तो किसी सरकार के एजेंडे में नहीं है। हालांकि 2011 की जनगणना में आदिवासी आबादी करीब 10.42 करोड़ आंकी गयी। इसमें से 9.38 करोड़ आदिवासी ग्रामीण और जंगली इलाकों में रहते हैं। इनकी करीब आधी आबादी गरीबी रेखा से नीचे रह रही है। जंगल उनके जीवन में सबसे अहम हैं क्योंकि उनसे ही उन्हें 60 फीसदी खाद्य सामग्री और औषधियां मिलतीं है।

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चिलचिलाती धूप हो या फिर बारिश या गरमी, आदिवासी जंगलों की खाक छान कर जो वन उत्पादों को जुटाते हैं, उनका वाजिब मूल्य नहीं मिलता। मानवीय दबाव से तेजी से सिमट रहे जंगलों के साथ तमाम चुनौतियों ने उनकी मुश्किलें बढ़ा दी हैं। पेसा एक्ट, 1996 में अनुसूचित क्षेत्रों में लघु वनोपजों के स्वामित्व को लेकर उनकी ताकत बढ़ी है लेकिन उनमें जागरूकता के अभाव के चलते आज भी वे बहुत सी दिक्कतें झेल रहे हैं। आदिवासी समाज बिचौलियों और भ्रष्ट व्यापारियों के शिकंजे में आज भी उलझे हुए हैं।

किसी को भी यह जान कर हैरत हो सकती है कि देश के तमाम हिस्सों में बिखरे पांच हजार से अधिक आदिवासी हाट बाजारों में दो लाख करोड़ रुपए का सालाना कारोबार होता है। लेकिन इसमें से बहुत कम धन आदिवासियों के हाथ बहुत कम आता है। अधिकतर राज्यों में उनकी माली हालत और उनकी ईमानदारी और अज्ञानता को कमजोरी मान कर बिचौलियों का तंत्र उनको दो सदी पीछे धकेलने में लगा है। इसी नाते आदिवासी किसान हों या फिर संग्राहक सबकी दशा खराब है। लेकिन अब भारत सरकार की लघु वन उपजों की समर्थन मूल्य योजना से एक नयी उम्मीदें जरूर जग रही हैं, लेकिन इस पर पहले से कोई आकलन करना सहज नहीं होगा। ट्राइफेड को ही इस योजना को जमीन तक पहुंचाने का जिम्मा मिला है।

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करोड़ों आदिवासियों के जीवन में लघु वनोपज काफी अहम हैं। अपने परिवार के साथ जंगलों में जाकर वे इन उत्पादों को जुटाते हैं। फिर दूर दराज में फैले हजारों हाट-बाजारों में बेच कर वे अपनी रोजमर्रा की जरूरतें पूरी करते हैं। भारत में सालाना वे एक लाख करोड़ रुपए से अधिक का लघु वनोपज निकालते हैं। उनके कई उत्पादों की भारी मांग है। वे जैविक हैं, इस नाते उनका अलग महत्व भी है। लेकिन उऩको महुआ और इमली से लेकर लाख और चिंरौजी तक को कौड़ियों के दाम पर बेचना पड़ता है।

भारत सरकार ने राज्यों के साथ काफी चिंतन मंथन करके लघु वन उपजों के समर्थन मूल्य योजना का तानाबाना बुना है। जंगली शहद, चिरौंजी, महुआ का फूल और बीज, हरड़, इमली लाख, गुग्गल और गोंद जैसे 24 उत्पादों के लिए समर्थन मूल्य योजना लागू की गयी है। आदिवासियों को शोषण से बचाने के लिए वैसे तो 1993 से ही कोशिशें चलीं और 9 राज्यों में योजना कागजों पर तो लागू हुई लेकिन दुर्गम इलाकों तक पहुंच नहीं बना पायी। इनकी तमाम खामियों का आकलन करके लघु वन उपजों की संख्या 10 से बढञा कर अब 24 कर दी गयी है। और योजना भी 9 राज्यों की जगह देशव्यापी कर दी गयी है। आदिवासी मामलों के मंत्रालय की कोशिशें इस बीच में कई मोरचो पर तेज होती दिख रही हैं। 24 लघु वन उपजों की समर्थन मूल्य योजना सफल रही तो सरकार इनका दायरा और बढ़ा सकती है। ट्राइफेड ने जमीनी स्तर पर काफी अध्ययन कर लिया है।

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जिस तरह देश के कई राज्यों में अनाज के मामले में बड़ी कृषि मंडियों का व्यवस्थित तंत्र है, वैसा आदिवासी किसानों के मामले में नहीं है। वन उपजों और आदिवासी किसानों की उपज की तस्वीर अलग है। आदिवासी उत्पाद तमाम दुर्गम इलाकों में बिखरे पांच हजार हाट और बाजारों में बिकते हैं,जहां वहां न तो गोदाम हैं न ही प्रसंस्करण की सुविधा। जल्दी खराब होने वाले कई उत्पाद इस नाते भारी संकट में रहते हैं और काफी बर्बादी होती है। कुछ राज्यों में सहकारी समितियां आंवला, गोंद, तेंदू पत्ता, साल बीज खरीदती हैं और नोडल एजेंसी भी बनायी हुई है। लेकिन छत्तीसगढ़ और तेलंगाना को छोड़ कर बाकी राज्यों में अभी बहुत कमजोर तंत्र है।

हालांकि भारत सरकार ने आदिवासियों को बिचौलियों से बचाने की दिशा में जो पहल की है उसकी राह में अभी भी तमाम रोड़े हैं। राज्यों और उनकी एजेंसियों को अभी कई दिशा में मजबूत बनाने की जरूत है। कमजोर आधारभूत ढांचे के विकास के लिए भी भारी संसाधनों की दरकार है।

सरकार चाहती है कि विभिन्न इलाकों में वनोपज का मूल्य संवर्द्धन हो तो आदिवासियों के जेब में अधिक धन जा सकता है और इससे उनक सशक्तिकरण हो सकता है। कुछ समय पहले इस बबात एक राष्ट्रीय सम्मेलन किया गया, जिसमें नयी रणनीति बनायी गयी। इसमें सरकार सहकारिता और निजी क्षेत्र को भी शामिल करके प्रशिक्षण भी देना चाहती है। इस रास्ते से बेशक आदिवासियों को उनकी उपज का ज्यादा मूल्य मिल सकता है। आदिवासी अंचलों में बड़ी तादाद में बिचौलिये और भ्रष्ट कारोबारी बड़ी संख्या में बिखरे हुए हैं। वे आदिवासी उत्पादों को औने पौने दामों में खरीद पर भारी मुनाफा कमाते हैं जबकि भोले भाले आदिवासी जहां के तहां रह जाते हैं।

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ट्राइफेड की स्थापना 1987 में की गयी थी लेकिन उचित संसाधन न मिलने के कारण यह अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाया। अब पहली बार वह अग्रणी भूमिका में आया है। हालांकि बीते दशकों में ट्राइफेड में आदिवासी इलाकों में अपनी अलग पहचान बनायी है और उनके उत्पादों के विपणन के लिए एक भरोसेमंद नाम के रूप में उभरा है। सरकार चाहती है कि अब लघु वन उपज संग्रह केंद्रों पर आदिवासियों की दैनिक आवश्यकता की सामग्रियां उचित दाम पर बिकें ताकि उनका शोषण रुक सके। इस तरह खनिज पदार्थों के बाद लघु वन उपजें राजस्व का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत बन सकती हैं। ट्राइफेड ने हाल में अमेजन के साथ समझौता कर 'ट्राइब्स इंडिया' ब्रांड को अगले चरण में ई-कॉमर्स के जरिये राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय बाजार तक ले जाने की दिशा में भी कदम उठाया है। इसके तहत आदिवासियों के द्वारा निर्मित हथकरघा उत्पादों के विपणन को प्रोत्साहित करने की रणनीति बनायी गयी है। आदिवासियों द्वारा तैयार बांस के उत्पाद, आदिवासी गहने, ढोकरा उत्पाद, आदिवासियों द्वारा निर्मित दस्तकारी एवं चित्रों की बिक्री बढ़ाने के लिये ऑनलाइन खुदरा बाजार भी उपलब्ध कराया जा रहा है।

तेंदू, बांस, महुआ फूल, महुआ बीज, साल पत्ता, साल बीज, लाख, चिरौंजी, जंगली शहद, आंवला, इमली, गोंद जैसे उत्पादों के समर्थन मूल्य में शामिल करने से आदिवासी जीवन में काफी बदलाव आ सकता है। कुछ जगहों पर सरकार प्रसंस्करण इकाई भी लगाने की तैयारी में है। अभी इमली से बीज और चिरौंजी की गुठली हटाने का काम हाथ से बहुत कम मात्रा में होता है। बगैर बीज की इमली अगर 150 रुपए किलो में बिकती है तो बीज सहित पकी इमली खुले बाजार में 25 रुपए किलो में। बस्तर की इमली देश विदेश में बहुत लोकप्रिय है लेकिन ग्रामीण व्यापारी उनको 15 से 20 रुपए में खरीदते हैं। यही हाल चिरौंजी का है। अगर चिरौंजी की प्रोसेसिंग हो जाये तो प्रति किलो तीन से सात सौ रुपए का फायदा हो सकता है।

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आज हालत यह है कि तमाम आदिवासी हाट बाजार में एक किलो महुआ के बदले एक किलो आलू आदिवासी खरीदते हैं। लघु वन्य उत्पादों के संग्रहण में आदिवासियों को काफी श्रम करना पड़ता है पर बदले में उनको मामूली रकम से संतोष करना पड़ता है। अभी भी उनके द्वारा उत्पादित वनोपज के लिए कोई ठोस बाजार उपलब्ध नहीं हो पाया है। आदिवासी हाटों में वनोपज संग्रह करने वाले आदिवासियों से कौड़ियों के दाम में जो सामान खरीदते हैं वही उपभोक्ताओं को जैविक या हर्बल बता कर कई गुना अधिक दामों पर बेचते हैं।

अधिकतर आदिवासी लघु वन उत्‍पाद एकत्रित करने के अलावा खेती बाड़ी भी करते हैं, जिनसे होने वाली मामूली उपज भी सब धान बाइस पसेरी के भाव बिकती है।

इस मसले पर संसदीय समितियों में भी कई बार मसला उठा। आदिवासी मामलो के मंत्रालय का आंकड़ा बताता है कि वनों से आदिवासियों को 60 फीसदी खाद्य सामग्री और औषधियां मिलतीं है, जबकि इन उत्पादों से 60 फीसदी आमदनी होती है। इसी तथ्य को ध्यान में रख पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों में एमएसपी मूल्य संवर्द्धन और लघु वन उत्पादों के विपणन संबंधी पहलुओं की पड़ताल के लिए पंचायती राज मंत्रालय द्वारा गठित डॉ.टी.हक समिति ने एमएसपी के बारे में कुछ सिफारिशें की थीं।

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न्यूनतम समर्थन मूल्य योजना को अभी परवान चढना है। हालांकि इसके लिए 967.28 करोड़ रूपये का प्रावधान किया जा चुका है जिसमें से केंद्र सरकार 249.50 करोड़ रूपये दे रही है। बाकी राशि राज्‍यों द्वारा चालू योजना अवधि में ही अपने अंशदान के रूप में उपलब्‍ध करायी जा रही है। आंध्र प्रदेश, छत्‍तीसगढ़, गुजरात, मध्‍य प्रदेश, महाराष्‍ट्र, ओडीशा, राजस्‍थान और झारखंड को इससे खास लाभ होगा।

यह ध्यान देने वाली बात है कि आदिवासियों का मुख्य व्यवसाय कृषि ही है। 80 फीसदी से अधिक आदिवासी खेती पर या वन्य उत्पादो पर आश्रित हैं। लेकिन औसत उत्पादता बहुत कम है। उऩके क्षेत्रों में सिंचाई साधनों का अभाव है और तकनीक भी नहीं पहुंची है। उनके द्वारा उत्पादित अन्न, तिलहन, दालें और मसालों का वाजिब दाम नहीं मिल पाता है। इस नाते उनका जीवन आज भी अंधेरे में है। इस नाते नयी पहल से उनका जीवन बदल सकता है बशर्ते केंद्र और राज्य सरकारें सही दिशा में काम करें और उन तक वास्तविक पहुंच बना सकें। आदिवासी किसान और संग्राहकों को योजना का केंद्र बिंदु बनाए बिना उनका कायाकल्प फिलहाल संभव नहीं लगता।

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