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वैज्ञानिकों ने विकसित की खारे पानी में उगने वाली धान की नई प्रजाति

#paddy crop

नई दिल्ली। अभी तक खारे पानी में धान की खेती न के बराबर हो पाती है, ऐसे में वैज्ञानिकों ने धान की किस्म आईआर-64 इंडिका में एक जंगली प्रजाति के धान के किस्म को मिलाकर एक नई प्रजाति विकसित की है। इस प्रजाति की विशेषता यह है कि यह नमक-सहिष्णु है और इसे खारे पानी में उगाया जा सकता है।

जिस जंगली प्रजाति के जींस का उपयोग चावल की इस नई प्रजाति को विकसित करने में किया गया है उसे वनस्पति-विज्ञान में पोर्टरेशिया कॉरक्टाटा कहते हैं। इसकी खेती मुख्य रूप से बांग्लादेश की नदियों के खारे मुहानों में की जाती है। चावल की यह किस्म बांग्लादेश के अलावा भारत, श्रीलंका और म्यांमार में भी प्राकृतिक रूप से पायी जाती है।

इस अध्ययन से जुड़े कोलकाता स्थित जगदीश चंद्र बोस इंस्टीट्यूट के प्रमुख शोधकर्ता डॉ. अरुणेंद्र नाथ लाहिड़ी मजूमदार ने बताया, “यह नई प्रजाति 200 माइक्रोमोल प्रति लीटर तक खारे पानी को सहन कर सकती है जो समुद्र के पानी की तुलना में लगभग आधा खारापन है (समुद्र के पानी में नमक की मात्रा 480 माइक्रोमोल प्रति लीटर होती है)।

इस अध्ययन में यह भी पता चला है कि मानव सहित कई पौधों और जानवरों में पाया जाने वाला विटामिन जैसा पदार्थ इनोसिटोल तनाव से लड़ने में मदद करता है और पौधों को नमक-सहिष्णुता प्रदान करता है। यह अध्ययन हाल में शोध पत्रिका साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित किया गया है।


डॉ. मजूमदार ने बताया, “यह नई खोज संकेत देती है कि इनोसिटोल की सहायता से चयनात्मक जोड़-तोड़ कर पौधों में नमक के प्रति असहिष्णुता से निपटने के तरीके खोज सकते हैं। ट्रांसजेनिक फसलों के विकास में पौधों से प्राप्त जींस उपयोगी हो सकते हैं। हालांकि, खारे पानी में ट्रांसजेनिक पौधों की अनुकूलन क्षमता का मूल्यांकन करने के लिए अधिक अध्ययन की जरूरत है।”

हेलोफाइट्स नामक पौधे नमक सहिष्णुता के जीन के समृद्ध स्रोत होते हैं। पोर्टरेशिया कॉर्क्टाटा उनमें से एक है। शोधकर्ताओं ने इस पौधे से प्राप्त पीसीआईएनओ1 और पीसीआईएमटी1 नामक दो जीनों को आईआर-64-इंडिका चावल के पौधे में प्रविष्ट किया है। ऐसा करने से वैज्ञानिकों को तीन प्रकार चावल की प्रजातियां प्राप्त हईं। इन तीनों प्रजातियों में इनोसिटोल की मात्रा की तुलना करने पर पाया गया कि खारे पानी में इनोसिटॉल उत्पादन केवल पीसीआईएनओ1 वाले जीन के सन्दर्भ में निर्बाध रूप से बना रहा।

यह अध्ययन वैश्विक जलवायु परिवर्तन पर बढ़ती चिंताओं के संदर्भ में महत्वपूर्ण है। दुनिया की बढ़ती आबादी और जलवायु परिवर्तन के खतरों को देखते हुए चावल उत्पादकता बढ़ाने की आवश्यकता है। ऐसे में चावल की ऐसी किस्मों को विकसित करने की आवश्यकता है जो नमक और सूखा प्रतिरोधी हों। पारंपरिक प्रजनन कार्यक्रमों से नमक और सूखा-सहिष्णु चावल किस्में विकसित हुई हैं जो भारत, फिलीपींस और बांग्लादेश जैसे देशों में प्रचलित हैं। हालांकि, इस तरह के पारंपरिक प्रजनन की सफलता की दर सीमित है।

डॉ. मजूमदार के अलावा, बोस संस्थान के राजेश्वरी मुखर्जी, अभिषेक मुखर्जी, सुभेंदु बंद्योपाध्याय, श्रीतामा मुखर्जी, सोनाली सेनगुप्ता और सुदीप्त रे इस शोध में शामिल थे। (इंडिया साइंस वायर)

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